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.: मध्यमस्याद्वादरहरुप रबण्ट्रः ३ . का.२४ * पचपारिकारणानसंगाद: *
आयतेनुमितिः परवृत्तिस्तत्परागृशति लापरपुंसि ॥9॥ अच्छिा रखनुमतितापिाधा माद्याता त्वया । आपाधता हि जत्यत्वावच्छेदकपुरस्कृता ।।
* Murl] - वाचस्पतिमिश्चन्तु अज्ञानविषयाकृत चननामीश्वरः. अज्ञानाश्रयीमूतं च जार' इति व्याच । 'जास्मिंश्च पभज्ञानानान्याञ्जीवना. नात्वम् । प्रतिनीवश्च प्रपञ्चमंद: जीनस्यैव स्वाज्ञानारहितनया जगदपादानल्यात । प्रत्यभिज्ञा चापि मादृदयात् । ईराध्य च | सम्रपञ्चजाचानियाधिष्ठानत्वेन कारणोपचारादिति । अपनत्र चापच्छदकवादः' (सि.चि.१.२२७) इति सिद्धान्तविन्दा म्पटमक्कम ।
अथात्माद्वतनयं तत्परानुनि = तस्मिन चत्र ‘गना हिच्या मधूमधान उनि परामशति सति अपरपुंसि परामागून्य मैत्र परवृत्तिः = चत्रनिः अनामतः तपा-बसावकागितिः अपतेत, ज्ञानान्नानया विरोधादिनि चन : न. भिन्नाश्रयाः ज्ञानाज्ञारपारकविपनापि विराधित्वा दर्शनान । करणाश्रय मज्ञानं कांअपक्षानन विरुध्यत इति चेत् ! न. प्रमाणाभावान, गुरुपान्तरमधुनी च नदयनान्त करणन लापमानन करणभूतन त्रिमिनकामानुमान मिनटीयान्तःकग्णज्ञाननिय - दानादिनि (पं.चिव.ए.) पञ्चपादिकाविवरणकारः । तद भास्करमतापाकरण विद्यारण्यस्वामिनापि विवरणप्रमेयमडग्रह. "आत्माश्रितज्ञानेनान्नाकरणाभितम्या झानस्य विरोधासम्भवात एकस्मिन्नपि विषय दवदननिष्ठज्ञानन यजदत्त नष्टज्ञानस्यानिवृनः । 'अन्यत्र भिन्नाश्रन्ययोरविधि पि करणगतमज्ञानं क्तंगतशानन विमध्यन इनि चेत् ! न. 'यज्ञदनी अन्न करगलयहन्दृष्टयन मुषप्त लीयमानान्त: करणवान' इत्यनुमातरि देवदत्त स्थितनानेन ज्ञाननामिनिकरणमंते सपनयज्ञदत्तान्त:करणे स्थिनस्याज्ञानग्यानिवृत:" (विव....४५) इति ॥५॥
प्रकरणकारस्तु मधुसूदनसरस्वतीमतं पुरस्कृत्योक्ती पनिराकरणार नानाविध्यात्मवादिनयाबिकमतमपटनांद्वानांगक्रमते . माद्यना त्वया नानाविभ्वात्मवादिना नयायिकन अबच्चित्रा = स्नदन्तःकरणावच्छिन्ना अनुमितिम्तु नापाद्या. हि = परमात कारणात आपायना जन्यतावच्छेदकपुरस्कृता भवनानि दोपः । अयं वदान्तिनाऽभिग्रायः शुद्धं ब्रह्म नाचस्वयमगगक्षप्रकाश. स्वरूपमिनि न नरिमन परोक्षामित्यापादनं सम्भवति किन्त तदन्तःकरणावच्छिन्न प्रत्यगात्मनि परीक्षामितवापादनं सम्भ. वति । परं चंबान्तःकरणाबछेदनात्मनि परामर्श सति मैत्रान्त करा वन्दनानुगिनेरारादनं नैव सम्भवति, मत्रान्तःकरणावाच्छन्नानुमिनित्वस्य चत्रान्तःकरणावछिन्नगरामर्शकार्यतानबच्छेदकत्वात. कार्यतानवदकाच्छिन्नस्यानापाद्यत्वात. अन्यथा तिप्रमङ्गान । न हि वृक्षस्यकत्वं जपि शान्वायां कपिरायांगासत्त्वं मूलान्छिन्कपिरयोगी भिवर्तने । चैत्रान्त:करणावनिमत्रानुमितिस्तु भवत्येव तदानींगिति न कनिटीपः । न च बबादमंत्राभिन्नत्ववन खपुष्पा गाभिन्नत्वमिष्टं बनदा खप्यादी नागपि ब्रह्मात्मकत्वं ब्रह्मणा | वा तच्छत्वं प्रसन्न्येन तदनराकर च दनप्रसङ्ग इत्या भयतः पाशारजरिन वाच्यम, सदद्वतस्यवाभ्युपगमात्, आसवनं पक्रियन एवेति मधुसूदनसरस्वती ।।२।। प्रकार का जो स्व-परव्यवहार होता है वह भिन्न भित्र गर्गग्मयोगात्मक उपाधि के भंद से होता है, न कि चैत्रान्मा और मैत्रान्मा आदि के भंट से। इगी नाद आत्माद्वैतमन में इस आपत्ति का भी कि -- "चत्रात्मा और मैत्रात्मा परस्पर अभित्र है तो चैत्र को 'पर्वतो पहिव्यायधूमवान इत्याकारक परामर्श होने पर उनर क्षण में जैम वेत्र को या अनुमति होती है कि 'पर्वती वहिमान' ठीक न ही वह अननिति मंत्र में भी होने लगेगी, क्योंकि चैत्रात्मा और मंत्रात्मा परम्पर अभिन्न ही है और ज्ञान अज्ञान का विरोधी होता है" - अवकाश नहीं है ।'', "||
इसका कारण यह है कि आप बत्रात्मा में अनुमिति होने पर मैत्रात्मा में अनमिति की उत्पनि का आगदन कर रहे हैं । इसका अर्थ यही है कि वैवान्तःकरणावदेन आत्मा में परामर्श होने पर मंत्रान्तःकरणारयेदेन आत्मा में अनुमिनि उत्पन्न होनी चाहिए । अर्थात् मावच्छिन्न = अन्त:करणावच्छिन्न = मैत्रात:करणावच्छिन्न अन्मिति की उत्पनि का आपाटन आपको अभिमत है । मगर नानात्मवाद में मदोन्मत्त आप नैयायिक उक्त मानिन्न अनुमिति का भापादान नहीं कर मरने हैं, क्योंकि वास्तव में आपायता जन्यनावच्छेदक के पुरस्कार में होती है । जिम सामग्री का कार्यतावच्छे टक जिसमें रह गकता हो उमीका आपादन उस मामग्री में हो सकता है। चैत्रात्मा, मैत्रात्मा परम्पर अभिन्न होने पर भी मंत्रान्तःकरणाभित्र अनुमिति का आत्मा में आपादन करना हो तब उसकी मामग्री मंत्रान्तःकरणानि परामर्शज्ञान की आत्मा में उपस्थिति होनी चाहिए । यहाँ ना आपादकविषया वेत्रान्तःकरणावच्छिन्न परामर्श ज्ञान का निर्देश किया गया है तब उसमे कैग मेघान्न करणावच्छिन्न अनुमिनि का आपादन हो सकता है : विद्यमान मामग्री के जन्वना अनपदक स अवधि का आपादन कभी भी नहीं हो सकता, अन्यथा दण्य, चक्र, कुलान आदि होने पर पट का भी आपादन होने लगेगा ।। ||