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________________ ७७८, मध्यमस्याद्वादरहस्ये रखण्डः ३ . का.११ * अदष्टस्य करणवनामांमः नाशं प्रति पृधमेव हि हेतुत्वमसङ्ग्रहस्ततो नास्तेि । विभुनाऽपि परम्परया संयोगो युज्यते जन्तोः ॥७॥ -ॐ जयलता *वायोगात्, एककार्यतावच्छेदेन सनः कार्यस्य कालान्तर-धिकरणान्तरवत्तित्वाध्योगादिनि काम्यैव ध्वमाधिकरणत्वनियमात. तस्य च विभुत्वेन सर्वमूर्त्तसंयोगिन आत्मनस्तत्संयुक्तत्वाऽसम्भवात, संयोगस्याःप्राप्तिपूर्वकप्राप्तिरूपत्वादिति दुरि एब व्यतिरकन्यभिचार इति वक्तव्यम्, यतो जन्यसत्त्वेन जन्यत्वमुपेयते । जन्यसत्त्वावच्छिन्नं प्रत्यवादृष्टस्य स्वरमवायिसंयोगसम्बन्धेन कारणत्वात, वंसे र नोक्तसम्बन्धावच्छिन्नादृप्रनिष्ठकारणतानिरूपितकार्यताया अवच्छंदकमित्यतो न व्यभिचारिता । सन्चस्य कार्याकार्यसाधारणवेनादृष्टकार्यतावच्छेदकल्या योगादिति जन्यत्युक्तम् । ध्यस व्यभिचारचारणाय सवते नमन जन्यत्वविशिष्टसत्वं उननीतरत्वान किन्तु जन्यसन्मात्रवृनिवजात्पम् । जन्यत्त्वस्य कार्यतावच्छनकत्वे परस्पराश्रयत्वन कार्यतायाः कार्यतावच्छेदकत्या योगान । इत्यश्च जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजात्याच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयमयोगेना दृष्टस्य कारणत्वादात्मवैभवनिद्धिरिनि गौननीयाभिप्राय: ।।६।। नन्वेवमदृष्टस्य कार्यमात्रजनकत्वनियमानुपसगृहीतः स्यादित्याशड़कायां योग आह - नाशं = सत्वावच्छिन्नं प्रति पृथगेव हि हेतुत्वं - अदृष्टनिष्ठकारणत्त्वम् । ततोऽसङ्ग्रहः = ध्वसनिरूपितकारणत्याभाव: नास्ति अदष्ट । : प्रति स्वसमवायिसंयुक्तसंयोगेनादृष्टस्य कारणत्वस्योपगमान कार्यमा प्रत्यदृष्टस्य साधारणकारणत्वसिद्धान्नाच्यवः । न च विभुना कालेन सहात्मनः संयोगाउसम्भवात्राउदष्टस्य ध्वंसजनकत्वं सम्भवतीति राज्यम, विभुनाऽपि कालद्रव्येण साकं जन्तोः = जीवस्य परम्परया = स्वसंयुक्तसंयोगलक्षण परम्परासम्बन्धन मंयोगः = सम्बन्धः युज्यत एव । स्वेन = आत्नना संयुक्तो यः परमाण्वादिः तत्संयुक्ने काले आत्मनः स्वसंयुक्तसंयोगसम्बन्धना दृष्टस्य च ग्वसमवापिसंयुक्तसंयोगेन नित्वानोक्तकार्यकारणभावो लंदशनोऽपि दष्ट इति आत्मवैभवसिद्भिरिति नैयायिकाभिप्रायः ॥७॥ में निराधारता की आपत्ति आयेगी। संयोग का अर्थ है 'अप्राप्तयोः प्राप्तिः । अतः विभु कालद्रव्य में अदृष्ट स्वाश्रयसंयोगसम्बन्ध से नहीं रहने पर भी घटध्वंस आदि कार्य की उत्पत्ति काल में हो जाने से अदएनिष्ठ स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धावच्छिन्न कारणता का स्वीकार नहीं किया जा सकता' - तो इसका समाधान नैयायिक की ओर से इस तरह बताया जा सकता है कि स्वाश्रयसंयोगसम्बन्धाचच्छिन अदृष्टनिष्ट कारणना से निरूपित कार्यता का अवच्छेदक केवल जन्यत्व नहीं है किन्तु जन्यसत्त्व है। घटध्वंस आदि में जन्यत्व होते हुए भी सत्त्व = सत्ता जाति नहीं होने से वह कार्यतावच्छेदक धर्म से शून्य है । अन एच स्वाश्रयसंयोगसम्बन्य से अदृष्ट के अनधिकरण काल द्रव्य में पदश्चम की उत्परि हो तो भी व्यतिरेक व्यभिसर दोप को अवकाश नहीं है ॥६॥ यहाँ यह शंका हो कि -> "जन्यसत्व को अदृष्ट कार्यतावच्छेदक मानने पर तो कार्यमात्र के प्रति अदृष्टकारणता का नैयायिकसिद्धान्त धराशायी हो जायगा - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि हम नैयायिक नाश के प्रति अदृष्ट में पृथक कारणता का स्वीकार करते हैं। मतलब कि जन्यमत्त्व अदृष्टनिरूपितकार्यता का उचच्छेदक नहीं है किन्तु स्वाश्रयसंयांगसम्बन्धावन्छिन अदृष्टनिष्ठ कारणता से निरूपित कार्यता का अवच्छेदक है। अन्य = स्वाश्रयसंयोग से भित्र सम्बन्ध से अवच्छिन्न = नियन्त्रित अदृष्टनिष्ठ कारणता से निरूपित कार्यता का अरच्छेदक नो चमत्त्व भी बन सकता है। कारणतावच्छेदकसम्बन्ध का कारणताशरीर में प्रवेश होने से कारणतावच्छेदकसम्बन्ध पृथग बनने पर उससे घटित कारणता भी पृथक बन जाती है । अत: यहाँ नादा के प्रति पृथक कारणता के स्वीकार का प्रतिपादन किया गया है । मगर सनिष्ट कार्यता से निरूपित कारणना अदृष्ट में रहनी नो है ही। यहाँ इस शंका का वि --> ध्वंस के प्रनि अदर में अन्य सम्बन्ध से पृथककारणता का स्वीकार करने पर भी कालद्रव्य विभु होने से आत्मा को विभु मानने पर काल के साथ आत्मा का सम्बन्ध कसं हो सकेगा?' - समाधान यह है कि विभु कालद्रव्य के साथ भी जीव का परम्परा से सम्बन्ध माना जा सकता है। यह सम्बन्ध होगा संयुक्तसंयोग। स्व = आत्मा से संयुक्त परमाणुआदि से संयुक्त काल होने से वसंयुक्तसयोगनामक परम्परासम्बन्ध से जीच कालसम्बद्ध हो सकता है । तब ध्वंसनिष्ठ कार्यता से निरूपित अदृष्टनिष्ठ कारपता का अवच्छंदक सम्बन्ध बनेगा स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग। स्व = अदृष्ट के आश्रय = आत्मा से संयुक्त परमाणु आदि से संयुक्त = काल में स्वाश्रयसंयुक्तसंयोग सम्बन्ध से अदृष्ट रहने से काल में यदलंस आदि की उत्पति हो सकती है। कारण की उपस्थिति में ही कार्य की उत्पत्ति होने से व्यतिरक व्यभिचार को भी अपकाश नहीं है। अतः आत्मा का विभ परिमाण मानना ही मुनासिब है . यह फलित होता है |
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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