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________________ ७४६ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः : - का.११ * दीधितिसंवादः * वर्तिभिमभेदादिना व्यापकत्तलाभग्रसङ्गः गुरोरनवच्छेदकत्वादिति चेत् ? न, एवं सति प्रकृते | बाधात, तत्र समव्यापकताया द्रव्यत्वाद्यतिरिक्तावसिन्नत्वात्। 'सत् द्रव्यं संयोगी'त्यादी -* जरालवा *बहिलसमव्यापकन चह्निभिन्नभेदादिना आदिपदन बभिंदाभावादिना बल: व्यापकत्वलाभप्रहः = धूमबव्यापकत्वभानापातः, गुरोः धर्मस्य अनवच्छेदकत्वात् 'सम्भवति लधौ मुरी तदभावात्' इति दीधित्युक्तेः । सम्भवदविधेयतावच्छेदकताक्रवाहित्यरूपलधुधर्मसत्त्वे वह्निभिन्नभेदादिरूपे गुरौ स्वरूपसम्बन्धरूपनवच्छेदकत्वं न स्वी.क्रयते । एतन बहित्वस्मनियत्त्वेन वहिमित्रभेदस्य ननोऽनतिरिक्तत्वेन हित्वाच्छिन्नविधेयताया वह्निभिन्न भेदायवच्छिन्नल्यस्य न्याय्यत्वादिति निरस्तम् इत्यञ्च बहित्यसमा नियनस्य वह्निभिन्नभेदस्य न वहिनिष्ठाया धूमबदव्यापकनाया अवच्छंदकत्वमिति न विभिन्नभेदावच्छिन्नन्यापकतामा विधयान्वयितावच्छेद - कसम्बन्धत्व, निरुक्तरीत्या तस्या एवाप्रसिद्धरित्यधाशयः । प्रकरणकार: तन्निगचष्टे - नेति । एवं सति = विधयतावच्छेदकातिरिक्तधर्मानवच्छिन्नाया विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकानच्छिाया व्यापकताया विधयान्वदितावच्छेदकसंसर्गत्व स्वीक्रियमाणे मति, प्रकृते = 'धूमवान बल्लिमान उत्यादौ रथले. बाधात् = विधेयान्वयितावच्छेदकसंसर्गस्य बाधिनत्यात् । नदेवाह तत्र = वहौ. समच्यापकतायाः = विधयतावत्समव्यापकतायाः द्रव्यत्वाद्यतिरिक्तावच्छिन्नत्वात् = वहिवलक्षणविधयतावच्छेदकातिरिक्तद्रव्यत्वाद्यवछिन्नत्वात् । न च द्रव्यत्वस्य बहीतरवृत्तित्वेन विधेयतावत्समव्यापकतानवच्छेदकलं, द्रव्यविशिष्टबल्लित्वस्य विधेयतावत्तमन्यापकतावच्छेदकत्वं तु न सम्भवनि, रहित्यापेक्षमा नस्य गुरुत्वनानवच्छेदकत्वादिति वाच्यम्, वहन्यनुयोगिन्समवायन द्रव्यत्वस्य लघुत्वेन बहित्वापेक्षया द्रव्यत्वस्य गुरुत्वम् । समनियतानां सर्वे पाभवा गुरूणामवच्छेदकता त न्यायसिद्धान्तसिदैव । ननु विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकता विधेयतावच्छंदकतावच्छेदकरसम्बन्धेन ग्राह्या । द्रव्यत्त्वनिष्ठा बहिनष्ठविधयतावत्समव्यापकतावच्छेदकना तु यहिमात्रानुयोगिकसमवायसम्बन्धावच्छिन्ना न त समवायाबच्छिन्ना । न च समवायस्पैक्यात्मा समवायावच्छिन्नति वाच्यम्, सम्बन्धिताइन्छेदकभेदात्समवयस्य नानात्वाभ्युपगमादित्याशङ्कायां प्रकरणकारो दोषान्तरमाविष्कराते - 'सत् द्रव्यं संयोगी' त्याद्राविति । जमवायन्यैर पूर्वमपास्तस्यादनुपदमुकामपि निरस्तमच तथापि स्फुटल्यानदुःपेक्ष्य पीढिवादेन दोषान्तरापादनमपि युक्तमेव । 'रात द्रव्यमिति उदेश्यनिर्दवाः, संयोगस्य विधेयत्वम् । विधयतावच्छेदकला संयोगत्वं । विधेयतावच्छेदकसम्बन्धलं विश्वेयतावच्छेदकतावच्छेदकसंसर्गत्वं च समवायस्य । उदयतावच्छंदकत्वं सामनाधिकरण्येन गत्वविशिष्टद्रव्यत्वं पयांप्तिसम्बन्धन सन्चद्रव्यत्वयाचा । उदन्यतावच्छेदकसम्बन्धस्तु नादात्म्यमेव । सद्गव्य नेष्ठांदेश्यतानिरूपितसंयोगनिष्ठविधेयतावत्समञ्यापकतायाः समवापसम्बन्धावच्छिन्ना अबच्छेदकता यथा संयोग चनिष्ठा नया द्रव्यत्वादिनिष्ठाः । न हि संयोगाधिकरणनिष्ठम्य । तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकस्या:भावस्य प्रतियोगिताया अबच्छेदकं द्रव्यत्वं भवति । ततश्च यथा 'धूमयान बहिमान' इत्पत्र समन्यापकताया विधयनाच्छेदकातिरिक्तद्रव्यत्वाद्यवच्छिन्नत्येपि वहिवन व्यापकत्वभानं प्रतिवादिनोऽभिमतमस्माभिश्च वविभिन्न भिन्नत्व आदि रूप में भी वहि में धूमरदव्यापकता के भान की भी आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि विधेयतावच्छेदकीभूत चहित्य का वडिभिनभेद समव्यापक होने पर भी बहिन से अभिन्न नहीं है, अनतिरिक्त नहीं है । यहित्व से अनिरिक्त होने की बजह वलिभिन्नभेट आदि धर्म से अवच्छिन्न व्यापकता यहाँ विधेयान्वयिताबकंदकसम्बन्धविधया मान्य नहीं हो सकती । इसलिए 'धुमपान वहिमान्' यहाँ बडि में रह्निभिन्नभेदरूप से धूमव्यापकता के भान की आपत्ति भी निावकाश है" <-- न. यं । नो यह भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि . 'मवान बहिमान' इत्यादि स्थल में विधेयतावच्छेदक है रहित्व और विधेयतावत्समन्यापकतावच्छेदक है बहिनिष्ठसमवाय = वह्निअनुयोगिकसमवाय सम्बन्ध से दव्यत्व, क्योंकि रविअधिकरणवृत्ति अभाव का प्रतियोगिताबछेदक द्रन्यन्य नहीं होना है और वलिअनुयोगिक समचार सम्बन्ध में द्रव्यत्वविशिष्ट के अधिकरण में रहनेवाले अभाव की प्रतियोगिता का भवज्छेदक वहित्व या रहिनिष्ठविधयनायत्त्व नहीं होता है। दव्यत्व विधेयतावच्छेदकीमत बहित्व की अपेक्षा गुरु धर्म नहीं है और विधेयत्तावत्समव्यापकतानक धर्म है। इसलिए विधेयतान्वयितावच्छेदकीभूत व्यापकता. सम्बन्ध, जो प्रतिवादी को सम्मन है, धियताअवच्छेदकीभून घहित्व से अतिरिक्त अन्यत्त्व से अवच्छिन्न होता ही है । अतः वह सम्बन्ध ही बाधित हो जायगा यदि विधेयतान्वयितावच्छंदकीभून विधेयतावत्समव्यापकतावच्छेदकधर्मावत्रिन्यापकतासम्बन्ध को विधेयनारच्छेदकातिरिक्ताधर्मानवच्छिन्न माना जाय। दूसरा टोप यह है कि 'सन द्रव्यं संयोगी' इत्यादि स्थल में संपांगादि में द्रव्यत्वादिरूप से व्यापकता के भान की आपनि आयेगी । आशय यह है कि उपर्युक्त स्थल में सद् द्रव्य को उद्देश्य बना कर समायसम्बन्ध से संयोग का विधान होता है। विषयतावच्छेदक संयोगत्व है। अतः संयोगत्वेन संयोग में उदयच्यापकना
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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