SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६८ मध्यमाद्वादरहस्य खण्ट: ३ . का. * भित्रविषयकामिनः चक्षुमनायोगविग्मात्तरन्यम समानविषयत्वाऽत्तर्भावनानुमितित्वावच्छिनं प्रति पृथक्प्रतिबन्धकत्वकल्पलमेवावश्यकमिति चेत् ? ता, भिनविषयकानुमितेरपि चक्षुर्मनोयोगादिवेिगमोतरमभ्युपगमात् ।। -* जायता . *ननु अनुमिननिसत्वा गपगम पटं पश्यतो बनर्जितन मेघानुमितिर्न भत्, मानससामग्र्याः सर्वतो दुर्बलत्वात् पर नत्र 'परि दशा मेघवान अरच्छेदकनासम्बन्धन विजातीयदादचन्ता न नमानादनुमितिः सञ्जायत एव । अतः समानविषयकान मिनिं प्रति समानविषयकचाक्षुषादिमामनया एवं स्वातन्त्र्यण कल्पनमावश्यकंगवल्याशयन अतिरिक्तानुमानप्रमाणवादी शकते अधेति । दहनगोचरचाक्षुषसामग्रीसत्चे दहनविषयिण्या एवानुम्तेिरनुदयात् समानविषयत्वान्तविनानुमितित्वावच्छिन्नं प्रति समानविषयकचाक्षुषादिसामग्रयाः पृथक्प्रतिवन्धकत्वकल्पनमेवावश्यकं, न तु समाना:समाना-ग्यानुमिति प्रनि, नधा मति विभिन्न विषयकानुमित्य - नुदयप्रसङ्गात् । अनुमितमनिसचे नु न सम्भवति । न हि सगानविषयकमानसं प्रति समानविषयकचाक्षुषादिसामग्रमा प्रतिबन्धकत्वं पुज्यने, घट्यक्षुःसन्निकर्षे सति कृत्यादिमानसापनः । ततश्रातिरिक्तप्रमात्वना नुमितेः स्वीकारो न्याय्य इत्यथाशयः । नर्वाननास्तिकास्तमपाकुर्वन्ति - नेति । निन्नविषयकानुमितिचाक्षुषादिसामग्रीसत्त्वदशायां प्रथमं भिन्नगोचरचाक्षुषादिस्वीकारे कि भिन्नविपयकानुमितरपि चक्षुर्मनायांगादिविगमोत्तरं = चक्षुमन:निकर्षादिनाशानन्तरक्षण, अभ्युपगमान् घटं पदयत: घट्या:मन्त्रिकर्षसऽपि मेघवनिश्रवणे मेघसाध्यकपगमसिन्दशायां चक्षुमनायोगन्य नाशान तदुनरं मानुमिनेनिरगायत्वात्र समानविषयकानुमिनिं प्रति चाक्षुषादिसामना: पृथतिबन्धकत्वकल्पनमावश्यकमिति नानुमिनेः प्रमित्यन्तरत्वप्रसङ्गो येन | प्रतिज्ञासन्न्यामः सावकाशः स्यादिति नन्यचार्याकाकूनम । पुनर्लब्धायकाशी नयायिकः शङ्कतं . तथापि = मानसचावच्छिन्नं नि मानसेतरसामग्रोप्रतिबन्धकत्वाव्यपोहेन निरुक्तरीत्या भिन्नविषयकामितरुपपादनः, अनमित्सायनेजक दन = अनमिन्सो पमित्साशाब्दबांधेिच्छालक्षाणाजकदिभेदन विभिन्नरूपेण प्रतिबश्यप्रतिबन्धकभाव आवश्यकः । अनुमित्युएमित्यादीनां मानमत्वपक्ष मानसत्वावच्छिन्न प्रति चाक्षुषादिसामग्री| प्रतिबन्धकत्वकल्पने दहनानुमिन्सासन धूनपरामर्शात् चाशुषसामग्रीसत्वददाण्यामनलानुमितिनं स्यात् । अनी मानमत्वादच्चित्रं प्रनि अनुमित्साचिरहविशिष्टमानसेनम्मामग्रयाः प्रतिबन्धकचम्पयन । परन्त्वेवं सति अनुमित्साविरहविशिष्टघटचक्षुः सन्त्रिकर्षसच्चे | उपमित्सासमधाने सादृश्यज्ञानादपि मानसोपमितिर्न स्यात् । ततश्चानुमिनि प्रति अनुमित्साबिरहविशिष्टचाक्षुधादिसामग्रयाः, उपमिति प्रत्युपमित्सान्यचाक्षुपादिसाम्ग्रया: शाब्दबाथं प्रनि च शान्दवधिम्याबिरहविशिष्ट-चाक्षुषादिसामग्रयाः प्रतिबन्धकत्वमङ्गीकतंत्रमंत्र । नतश्च विलक्षागनमासिद्धिप्रयुक्तप्रमाणान्तपातेन प्रतिज्ञामन्न्यासस्य दुरित्यमिति नयायिकापोऽभिनवनास्तिकान्प्रति । के अनन्नर होनेवाली साध्यबुद्धिस्वरूप अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक मानना ही उचित है। अथ स.। अनुमिति का विजातीय प्रमा माननेवाले नैयायिक आदि की ओर से यह आक्षेप किया जाय कि > 'अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानने पर तो मानस मात्र की मामग्री चाशुपादिसामग्री से दुर्बल होने की वजह से अमि के साथ चासनिकर्ष होने पर अग्नि की अनुमिति धूमपगमर्श होने पर भी नहीं होती है ठीक वैसे ही घरचक्षसनिक होने पर भी धूमलिङ्गक पगमा से अग्रि की अनुमति भी नहीं हो सकेगी। मगर वस्तुस्थिनि यह है कि नब अग्नि की अनुमिति होती है, न कि घटवाक्षुप । इमक अनुरोध से नव्य नारिनकों को समानविपयक अनुमिनि के प्रति चाक्षुपाटिमामग्री को प्रतिबन्धक भानना होगा, जिसकी वजह घटवासनिक होने पर भी धूमपरामर्श मे अग्नि की उत्पनि निरावाध हो सके । मगर पमा मानने पर आपनि यह आयगी कि अनुमिति नय मानसप्रत्यक्षरून न हो कर प्रत्यक्षविनातीय प्रमास्वरूप हो जायेगी जिसके फलस्वरूप प्रमाणान्तर की सिद्धि हो जाने से प्रतिज्ञासंन्याम निग्रहस्थान की पुनः प्राप्ति होगी' - न.भि.। तो इसके परिहारार्थ नव्य नास्तिक की ओर से सिर्फ इतना कहना उचित हो जायेगा कि विभिन्नविषयक अनुमिति एवं चाप आदि की सामग्री उपस्थिति होने पर चक्षु और नन का सन्निकर्ष ही नष्ट हो जायेगा जो चाक्षुर की सामग्री का घटक है। अतएव उसके अनन्तर घटचाक्षुप आदि की उत्पत्ति न हो कर अग्निगांवर अनुमिति की ही उत्पत्ति होगः । अतः ममानविषयक अनुमिति के प्रति चानुपादिमामग्री को प्रतिश्यक मानन, आवश्यक बनने से चिजातीय प्रमा की मिद्धि को अवकादा नहीं होने स तद 'प्रत्यक्षमेच प्रमाणं' इस प्रतिज्ञा के मन्यास = त्याग का अवकाश कैसे ? यदि यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → 'समान . अममान उभयविषयक अमिनि स्वरूप मानसबुद्धि के प्रति चाक्षुपमामग्री की | उपर्युक गति में प्रतिबन्धक मानने पर भी अनुमिन्सा = अनुर्माितविषयक इच्छा, उपमितिविषयक इच्छा, शाब्दबोचविषयक इच्छा
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy