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________________ परिष्कृतगिकन्यनिरुक्ति: * क्षणचतुष्टयावस्थायितेवोपपत्तिमती । न चैवं क्षणिकत्वसिन्दान्तहानिः, अपेक्षाबुन्दिसहाय || तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तिविभाजकोपाधिमत्वस्य तत्वादियाहुः ।। - अयलता है क्षणचतुष्टयावस्थायित्वोपपत्तिमतीति : उत्सर्गतो बिजातीयपवनसंयोगस्य क्षण चतुष्टयावस्थायितया शब्दोत्पनिचतुर्धक्षणे निमिन| पवनसंयोगनाशात् पञ्चमक्षणे शब्दनाश इति शब्दस्य चतु:श्रणस्थायित्वमित्यर्थः । अयमभिप्राय: प्रतियोगितया शब्दमाशं प्रति स्वप्रतियोगिजन्यतासम्बन्धन विजातीयनिमिसपचनसंयोगनाशस्य कारगल्वम । कारणतावच्छेदकं कार्यतावच्छेदकञ्च नाशवमन लाघ्रयात, तु विजातीयपत्र-सयोगनाशवं शनात वा, गौरवात् । प्रधमक्षणे विजातीवनिमित्तपवनसंयंग उत्पद्यत. द्वितीयक्षणे शब्दोत्यादः विजातीयपवनसंयोगजनकपवनकर्मनादाश्च, तृतीयक्षण नूतनपवनकरियत्तिः, चतुर्थक्षण पूर्वदेशपवनविभागो जायते, पञ्चमक्षण पूर्वविजातीयपवनसंयोगनाशः पटक्षणं च शब्दनाश: । इत्थञ्च शब्दम्य क्षणचतुष्कस्थितिसिद्धिः प्रतियोगित्तया शब्दनाश: शब्द जायते तत्र च शब्दजनकविजातीयपवनसंयोगनाशोऽपि स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्बन्धन वर्तत उति कार्यकारणसामानाधिकरण्योपपत्तिः । न च विजातीयनिमित्नपचनसंयोगनाशक्षणोत्पन्नशद द्विनीयक्षणानिध्यसप्रतियोगितलक्षणक्षणिकन्या . पत्तिरिति वाच्यम्, निमिनपवनसंयोगस्योतात्तिसम्बन्धन कार्यसहभाबेन या शब्दहेतृत्वात् । अवच्छेदकतया नार शकीयककागदी बा तादृशभावस्य हेतुत्वाद् वा । अत एव नैकावच्छेदेन सदृशनानाशब्दोरणत्तिरपि । इत्थश कत्वविशिष्टलौकिकसाक्षात्कारोऽप्यपपद्यते । शब्दोत्पादद्वितीयक्षणोत्पन्नक-कत्वनिर्विकल्पकज्ञानानन्तरं तृतीयक्षणे:पि शाब्दस्य सत्त्वात् । ततश्च न तनीयक्षणवृनिध्वंसप्रतियोगित्वं श्वणिकत्वम् । बौद्धमतप्रवेशप्रसङ्गस्तु दूरापास्त:, द्वितीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणग्य सूक्ष्मश्नगिकत्वस्यान भ्युपगमात् । न व एवं = शब्दस्य पञ्चमक्षणवृतिध्वंसप्रतियोगित्वस्वीकारे क्षणिकत्वसिद्धान्तहानिः = शब्दनिष्ठतृतीयक्षणवृनिकध्वंसप्रतियोगितलक्षणक्षणिकत्वप्रतिपादकगीनमीयराद्धान्तप्रव्युनिः इति शकनीयम, अपेक्षा बुद्धः क्षणत्रयावस्थायितया आकाशात्मनारच्याप्य - वृत्तिक्षणिकविशेषगुणत्वलक्षणसाधम्र्यवादियौगमले पेशाबु रसग्रहप्रसङ्गात, अपेक्षाबुद्धिसङ्ग्रहाय = अपेक्षाबुद्धा क्षणिकत्वापपादनाय, तृतीयक्षणवृत्तिश्वंसप्रतियोगिवृत्ति-विभाजकोपाधिमत्त्वस्य तत्त्वात् = क्षणिकत्वपदवाच्यत्वात । तृतीयक्षणानिध्वंसप्रतियोगिशाब्दबोधादिवृत्तिः यो ज्ञानत्वेच्छात्वादिचतुर्विशत्यन्यतमत्वलक्षणो गुणविभाजकोपाधिः तण्या पक्षाची सच्चाक्षागसमन्वयार ऐश्नाबुद्धी । अपेक्षाचुद्भित्वञ्च एकत्वन्यसंख्याधुपधायकत्वमिनि पट्टाभिरामः (मु. मयूषा.) । में पवन में दूसरा कर्म उत्पन्न होगा, चीधे क्षण में पूर्वदेश से पवन का विभाग होगा । पाँचवे क्षण में पूर्वविजातीयपवनमयोग का नाश होगा । छठ्ठी क्षण में पानी शब्द के पाँच क्षण में शन्न का नाश होगा । इस कार्यकारणभाव के अभ्युपगम पक्ष में विजातीय पवनसंयोग से उसके द्वितीय क्षण में उत्पन्न होनेवाला शन्न उक्त क्रम से अपने पाँचचे क्षण में नष्ट होने से चार क्षण तक स्थायी हो भकता है। इसलिए तृतीयक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगित्त्व को क्षणिकत्व नहीं माना जा मकता । इस विषय में यह शंका हो कि -> 'इस तरह शब्द को पञ्चमक्षणवृत्तिध्वंस का प्रतियोगी मानने पर शन्न में क्षणिकत्व का जो नैयायिकसिद्धान्त है वह भग्न हो जायग, क्योंकि न्यायसिद्धान्त के अनुसार नी शन्न क्षणिक है तो इसका समाधान | यह है कि प्राचीन नैयायिकों को भी तृतीयक्षणनिध्वंसप्रतियोगित्वस्वरूप क्षणिकत्व का स्वीकार करने पर अपेक्षाबुद्धि, में, | जिसको प्राचीन नैयायिक भी क्षणिक मानते हैं, क्षणिकत्व की उपपनि न हो सकेगी, क्योंकि अपेक्षाबुद्धि तीन क्षण तक स्पायी होन से चतुर्थक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगी है । अतः अपेक्षाबुद्धि में क्षणिकत्व का सङ्ग्रड करने के लिये पानी अपेक्षाबुद्धि में क्षणिकत्व के समर्थनार्थ क्षणिकत्व का लक्षण ऐसा मानना होगा कि तृतीपक्षणवृत्तिध्वंसप्रतियोगिवृत्तिगुणविभाजकोपाधिमत्व ही क्षणिकत्व है। अपेक्षावृद्धि में तृतीयक्षणनिध्वंस की प्रतियोगिता न होने पर भी तृतीयलणवृत्तिध्वंसप्रतियोगी घटप्रत्यक्ष आदि में रहनेवाली ज्ञानत्व-इच्छात्वआदिअन्यतमत्वस्वरूप गुणविभाजक उपाधि तो रहती ही है। जब क्षणिकत्व का उपयुक्त निर्वचन प्राचीन नैयायिक के मतानुसार भी अंगीकर्तव्य है नव तो उसके अनुसार शब्द में भी क्षणिकत्व संगत हो जायेगा, क्योंकि विजातीय पवनसंयोग से उसके चतुर्थ क्षण में जो शन्द उत्पन्न होगा वह स्वोत्पादानन्तर होनेवाले विजातीयपवनसंयांगना के अनन्तर क्षण में यानी शब्द के तृतीय क्षण में ही यह पान्द ना हो जाने से तृतीयक्षणवृत्तिसप्रतियोगी बनेगा, जिसमें रहनेवाली गुणविभाजक उपाधि (ज्ञानव-वन्दन्यआदि अन्यतमत्व) तो चार क्षण तक स्थायी शन्द में भी रहती ही है । अत: वान्द को, जो विजातीय पवनसंयोग के द्वितीय श्रण में उत्पन्न होता है, चारक्षणपर्यन्त स्थायी मानने पर भो दाब्द में स्थूल
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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