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________________ *वचित्कदाचित्कस्याश्चि जागभिव्यक्तिः | तारत्वादिजातिः शब्दमात्रवृत्तिरेत, विजातीयपवनवशातु कचित् कदाचिदभिव्यक्तिरिति । ___ या चैत्रादेः ककारादिप्रत्यक्षे चैप्रादिकर्णावछिनविजातीयवायुसंयोगस्य हेतुतेति --ॐ मयलाता - वान्दमात्रवृत्तिरेवेति । तर्हि पश्चादिव पूर्वमपि नत्र मन्दत्वं ज्ञायत पूर्वमिव वा यश्चादपि तारत्वं तत्रांपलभ्येन, जातेः बंद सर्बान प्रत्यविशेषादित्याशङ्कायामाहुः - विजातीयपवनवशानु शब्दमात्रनिष्ठनारत्वादिजातः क्वचित् कदाचिदभिन्यतिरिनि यथा जलान्तःस्थायां गवि गोत्व- पशुत्व-पृथ्वी त्व- द्रव्यत्वादिजानिसन्चापि यत्किञ्चिनदवयःस्पी द्रव्यत्वजातिप्राकट्य प्राणादन तद्गन्धोपलब्धी सत्याञ्च पृथिवीत्वजात्यभिव्यक्तिः, तत्पुङ्गादिदर्शने 'पशुत्वापासब्धिः. साम्नादिमन्वज्ञानं च गोत्वजानियनिरिति व्यञ्जवचित्र्यवशात् सम्भवति तथैव एकत्रा.शिरे तारत्यादिनानिसन्देही कितनीजापपदाकचित्कदाचिनदभिव्यक्त्युपपनिरपि सुघटा काष्ठयेन वायुना देगमभिसर्पजा शब्दगता तारत्व-जानियंज्यते मन्दमभिरूपता च मन्दवजातिरिति-मीमांयकाशयः। इटचाऽभ्युपगमबादेनोक्तम । वस्तुतस्तु तारत्व मन्दत्वादिजातिः व्यञ्जकवायवीयचनिधर्म एव शब्द आरोग्यने न तु वान्दम्य स्वाभाविकं स्वरूपं मीमांसकमते । अत एव गोत्वाश्चत्वादिजातिवत् तारल्व मन्दत्वादिविरुद्ध जातीनामेका शब्द कवं समावेदाः सम्भवतीत्युनावपि न क्षतिः, अनभ्युपगमायति तु ध्येयं मामांसामांसलमतिभिः । एतेन दाब्दस्य नित्यत्वे मवंदा सर्वेषां मन सर्वशन्दीपलब्धिप्रसङ्ग इणि परास्तम्, पषां शब्दात्यादकानाम। विजातीयवायुसंयोगादीनामस्माभिः मीमांसकैः शब्दव्यञ्जकत्वेनाभ्युपगमात् । यत्तु इनि नचिन्त्यमित्यनेमान्यति । शब्दस्य नित्यन्द चैत्रादेः ककारादिप्रत्यक्षे = लौकिकविषयतासम्बन्धन दायमैत्रीयशुकीयककारादिश्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति, चैत्रादिकर्णावच्छिन्नविजातीयवायुसंयोगस्य हेतुति = चैत्रादिकविच्छेद्या करती है अर्थात पूर्व में इमाम और वर्तमान में रक घट के अभेद को विषय करनेवाली उक्त प्रत्यभिज्ञा व्यक्तिअभेदविपयनपा प्रमा हो सकती है ठीक वैसे ही गकार में लारत्व और मन्दत्व की प्रतीनि के अभावकाल में 'स पचायं गकारः' यह प्रत्यभिज्ञा होती है उससे पूर्व श्रुत एवं साम्रत यमाण गकार में ऐक्य के सिद्ध होने में कोई बाधक न होने से एक ही घट में श्याम-रक्त रूप के विनाश-उत्पाद की भाँति एक ही गकार में नारत्व और मन्दम धर्म के विनाश-उत्पाद को विषय माना जा सकता है। अतः नित्य वान्द में तारत्व-मन्दत्वादि के विनाश और उत्पाद को विपय मानना संगत होने से 'म पचायं गकारः' इस प्रत्यभिज्ञा को न्यनिअभेदविपयकत्वेन भी प्रमा कहने में कोई दोप नहीं है । अथवा यह भी कहा जा सकत है कि तारत्व-मन्दत्व आदि केचल नित्य शब्द में रहनेवाली जानि हैं। मगर विजानीय पचन के सबब पहले शन्द में तारत्व नाति की अभिव्यनि हुई थी और माम्प्रतकाल में विजातीय वायु मन्दत्य जाति की अभिव्यक्ति की वजह कभी कहाँ पर अमुक जाति का ही प्राकट्य होता है, सर जाति का नहीं । जैसे गाय दूर होने पर उसमें द्रव्यन्व जाति की अभिव्यक्ति होती है, नजदीक आने पर उसमें पशुत्व व्यक्त होता है और अत्यन्त समीप उपस्थित होने पर उसमें गोत्व प्रकट होता है, न कि सर्वदा और सर्वत्र सब के लिए गांव की अभिव्यक्ति होती है। ठीक उसी तरह नित्य गकार आदि शब्द में भी नारत्व, मन्दत्व अटि जाति की कदाचित् विजातीय वायु के द्वारा अभिव्यक्ति सुसंगत हो सकती है । ख नैयायिकत में लापत् की प्रकाश यनु. । यहाँ पदार्थगाट नामक ग्रन्थ के कर्ता बा, जो वादानित्यताबादी नैयायिक है, गन्दनित्यतावादी मीमांसक के प्रनि यह आक्षेप है कि -> "शब्द नित्यत्वपक्ष में चैत्र आदि के ककार आदि वर्गों के प्रत्यक्ष मं चैत्र आदि के कर्ण में विजातीयरायुसंयोग को हेतु मानना हेगा, अन्यथा = यदि कार्यदल में चैत्र आदि का निवेश न करेंगे तो चैत्र आदि के कर्ण में चैत्र-क-सारिका आदि के ककार आदि के व्यञ्जक विजातीयवायुमंयोग के होने पर चैत्रादि से अन्य दर मनुष्यों को भी उक्त ककारादि के श्रावण साक्षात्कार की आपनि आयगी । एवं कारणदल में चैत्रादिकर्ण का निवेश न करने पर पुरुषान्तर के कर्ण में ककारादि के व्यञ्जक विजातीयवासंयोग के होने पर त्रादि को ककागदि के श्रावण प्रत्यक्ष की आपनि होगी । अतः शन्दनित्यत्वपक्ष में शन और रिजातीयवापुसंयोग आदि में व्यङ्ग्य व्यञ्जकमात्र की कल्पना करन में अत्यन्न गौरव है । जब कि शब्दाऽनित्यताबादी नैयापिकों के मत में इस प्रकार के गौरव को अवकाश नहीं है, क्योंकि नदायिकमत में अवच्छंदकतासमन्ध से विजातीय ककार आदि में विजानीयवापुसंयोग अवच्छेदकतामम्बन्ध से कारण होना है। एवं नत्युरुपीय निखिल शब्द के श्रावण प्रत्यक्ष में तत्पुरुषीय कर्णावच्छिन्न समवाय हेतु होता है । इसलिये लाघव है" -। पदार्थमालाकार का आशय यह प्रतीत होता है कि शन्दनित्यत्ववादी मीमांसकों के मतानुसार क, ख, ग आदि वर्ण
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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