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________________ ७१४ मध्यमस्याद्वादाहरु खण्ड: * पदार्थमालाकार मीमांसकानामतिगौरवं, नैयायिकानां पुनरवच्छेदकतया चैत्रादिककारादी विजातीयवायुसंयोगो हेतुः तत्पुरुषीयनिखिल शब्दप्रत्यक्षे च तत्पुरुषीयकर्णावच्छिन्नसमवाय इति लाघवमिति प्रदार्थ ॐ जयलता * विजातीयवायुसंयोगा हतवी वाच्या हति मीमांसकानामतिगौरवम् । न च ककारादियगत्वमंत्र विज्ञातीयवायुसंभोगकार्यतावच्छेदकमिति न गौरवमिति वाच्यम् चैत्रकर्णे चैत्रायादिककारादिव्यञ्जकविजातीयया संयोगसच्चे दूरस्थानां यज्ञदत्तादीनां तादृशककारादिश्रावणापत्तिवारणाय कार्यतावच्छेदकधर्मकुक्षीयत्वादिनिशान गौरवण्या निराकार्यत्वात् । एवं कारणतावच्छेदकधर्मकोटी चैत्रादिकर्णाप्रवेशे तु पुरुपान्तरकर्णावनिस्स कारादिव्यअकस्य विजानीयवायुसंयोगस्य सत्त्वेऽपि वादः ककारादिप्रत्यक्षापत्तिः । अतः तत्राऽपि अनन्तनादिनिवेदी महागांवम् । संयोगाभिव्यक्तककारादीनां नित्यत्वादेकत्वाच्च विभिन्नन्यमिव्यञ्जित ककारादिप्रत्यक्षवैलक्षण्यमनुपपन्नमिति तदन्यथानुपपत्त्या चैत्रीयादिककारादिश्रावणात्यावच्छिन्नकारणतावच्छेदककोट जात्यनिवेशस्याउ प्यावश्यकत्वमिति गौरवम् । एवं गत चैत्रीयककार - मैत्रीयककारशुकीयककारप्रत्यक्षेऽपि नानाविजातीयवायुसंयोगानां कारणले तत्र चैत्र-मैत्रादिनिवेद्यावन्त कार्यकारणभावकल्पनागौरवा पत्तिमीमांसकानामिति पदार्थमालाकारभिप्रायः । シン = नम नैयायिकानां मते पुनः ककारादीनामनित्यत्वेन नानात्वेन च तथा तदुत्पादकानां वायुसंयोगानामपि विनाशित्वेन विजातीयत्वेन च कार्यता- कारणतावच्छेदकधर्म को टावनन्तपुरुषानिवेशन लाघवं यतः तन्मतेऽवच्छेदकतया चैत्रादिककारादी विजातीयककारत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति अवच्छेदकतासम्बन्धेन विज्ञातीयवायुसंयोगों हेतुः । न च शब्दानित्यत्वं चैत्रादेः चैत्रीयमैत्रीय-शुकीयककारादिश्रावणत्वावच्छिन्नं किं कारणं ? इति शङ्कनीयम, शब्दाऽनित्य तत्पुरुषीयनिखिलशब्दप्रत्यक्षे = शब्दनिलौकिकविषयतासम्बन्धेन तत्युरुपसमवेत श्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति च स्वनिरूपितप्रतियोगित्वसम्बन्धन तत्पुरुषीयकर्णावच्छिन्नसमवायः = तत्पुरुषवकर्णशष्कुल्पवच्छिनाकाशावच्छिन्नसमवायः हेतुरिति स्वीकारात् । मीमांसकलते चैवादाः स्वीय-मैत्रीयशुकीयादिककारश्रावणे चैत्रादिकयवच्छेद्यविजातीयवायुसंयोगस्य कारणत्वं नेत्राः स्वीय-मैत्रयादिखवर्णसाक्षात्कारच नद्भिरूप चैत्रादिकर्णावच्छिन्नविज्ञातीयवायुसंयोगस्य कारणत्वमित्येवं गुरुतरकार्यकारणभावः । नैयायिकमते तु चैत्रस्य निखिलशब्दसाक्षात्कार एकस्यैव चैत्रकर्णावन्धसमवायस्य हेतुतति स्पष्टमेव नैयायिकमते लाघवमिति पदार्थमालायां प्रत्यादि । सर्वदा एवं सर्वत्र सब के लिये एक ही है और उसकी अभिव्यक्ति चैत्र आदि किसी भी होने पर उसमें कोई विलक्षणता नहीं होती है, क्योंकि नित्य और एक होने से उसमें वैजात्न्य नामुनकिन है । किन्तु विभिन्न व्यक्तियों से अभिव्यञ्जित एक ही वर्ण का श्रोताओं को विलक्षण श्रावण प्रत्यक्ष होता है । इसकी उपपत्ति के लिये मंत्र के अपने कार के साक्षात्कार में त्रीयांवय विजातीयवायुसंयोग, मैत्रीय ककार के प्रत्यक्ष में दूसरा विजातीयवायुसंयोग और शुक्र आदि के कार के प्रत्यक्ष में अन्य चिजातीयवायुसंयोग को कारण मानना होगा। इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों से अभिव्यञ्जिन एक ही ककार आदि के प्रत्यक्ष में विभिन्न विजानीयात्रायुसंयांगों को कारण मानना होगा । एवं एक श्रोता में जो ककारादि का प्रत्यक्षात्मक कार्य उत्पन्न होता है उसमें विभिन्न उच्चारणकर्ताओं का सनिवेश करना होगा। जैसे चैत्रगत वेत्रीयककारप्रत्यक्ष, चैत्रगत मंत्रीयकवणं. साक्षात्कार आदि में विभिन्न विजानीयवायुसंयांगों को कारण मानना होगा । इस प्रकार कार्यदल में ककारादि में विभिन्न उच्चारणकर्ताओं का निवेश करने से प्रत्येक श्रोता को होनेवाले कर्ण के प्रत्यक्ष को लेकर अनन्त गुरुतर कार्यकारणभाव की कल्पना होने से अपार गौरव है । किन्तु शब्दाऽनित्यत्वपक्ष में विभिन्न उच्चारणकर्ताओं के ककारादि में सहज वेन्दक्षण्य होता है । अनः उनके मतानुसार अवच्छेदकतासम्बन्ध में विजातीय ककारादि कार्य के प्रति अवच्छेदकतासम्बन्ध से विज्ञातीयवायुसंयोग कारण होता है । इस कार्यकारणभाव की कुक्षि में उच्चारणकर्ता का विशेषरूप से निवेश नहीं होता है । अतएव इस कार्यकारणमात्र में उत्पाद और उत्पादक के वैजात्पभेद से ही भेद होता है, उच्चारणकर्ता के भेद से भेद नहीं होता है। श्रोता को कव आदि का विलक्षण साक्षात्कार होता है वह पियभूत ककारादि के वैजात्य से ही सम्पन्न हो जाता है । अतएव तदर्थ विजातीय कारण की कल्पना की आवश्यकता नहीं होती है, किन्तु सामान्यतः शब्दनिष्ठविपयतासम्बन्ध तत्पुरुषीय श्रावण साक्षात्कार के प्रति तत्पुरुषीयकर्णाच्छे समदाय को प्रतियोगित्वसम्बन्ध से कारण मान लेने से सब सङ्गत हो जाता है, क्योंकि जो भी शब्द तत्पुरुषीय कर्णावच्छेदन उत्पन्न होगा उसमें तत्पुरुष समवाय प्रतियोगित्वसम्बन्ध से रहेगा और उस शब्द में उत्पादकाधीन जो बैजात्य होगा उस वैजात्य रूप से उस शब्द का तत्पुरुष को साक्षात्कार हो जायेगा । अतः शब्द अनित्यत्वपक्ष में उच्चारणकर्ता के भेद से और विजातीयवायुसंयोग आदि के भेद से न तो शब्द और वायुसंयोग के कार्यकारणभाव में गांव
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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