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________________ 2.६ मध्यमरपादादरहस्ये खण्डः . का.११ * तृतीयान्यधारिद्धः परिष्कृतारक्षणम * | च कारणाल्पत्वलाघवेन व्यापकधर्मावच्छिन्नस्य स्वस्यैव व्याप्यधर्मावच्छिन कथमन्यथा सिन्तिरिति चेत् ? ल, 'स्वाबहिविनाऽपि अवश्यक्लुप्सनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदकावच्छिन्नसहभावनिरूपकतावच्छेदकरूपेणान्यथासिद्धिरित्यत्र तात्पर्ये दोषानवकाशात् । - जयता * प्रामः । करणाल्पत्वलाघवेनति मूलाई हाउः नत्र छ. 'कारणालाललायन सिद्धः पाठः प्रतिभाति, अन्यत्रापि सदैव नपलम्भात् । लभानकाशः ननुवादी सम्प्रतं दोषमाविर्भावयति - व्यापकधर्माचचिन्नस्य = तत्कारणनातिरिक्तवृत्तिधर्मावच्छिन्नस्य, स्वस्यैव व्याप्यधर्मारच्छिन्नेन = तत्कारगतासमनिपत धर्मावच्छिन्न कथं अन्यथासिद्धिः = तृतीयान्पधासिद्धत्वम् । अयं भावः दाइत्ववत इत्यत्वादिकमपि जातिरूपतया स्वरूपता लघु पनियतपूर्वस्तिावच्छेदकमेव किन्तु दम्पत्वस्य पदनियतपूर्ववृत्तिता. बच्छेदकत्वनानन्तपु दण्डघटादिषु द्रव्यः घटकाराणन्वकल्पनापन्या कारणबाहुल्यम । दण्डत्यस्प घनियनपूर्ववृत्तिनावच्छेदकले च कारणत्वकल्पनापल्या कारणबाइल्पभ् । दण्डत्वस्य घनियनपूर्वनिनावचंदकन्ये च कागणापत्वलाघचम । अनो व्यापकधर्मग दमदनावच्छिन्नस्य दरस्य घटं प्रति दण्डवलक्षणच्याप्यधर्मावजिनेनान्यथासिद्भिरिति सर्वसम्मत न्यायवालमर्यादा । परन्तु ज्युनियनपूर्ववृत्तिभिन्नस्य तृतीयान्यथासिद्धत्वस्वीकार द्रश्यत्वावच्छिन्स्य दण्डस्य दण्डत्वावचिन्नेनान्यधामिद्भिर्न स्यात् लयुनियनपूर्वबर्तितावादकदण्डल्लाबन्निभिन्नत्वस्य द्रव्यत्वावछिन्न दण्डे विग्हान । ननः घटं प्रति व्यत्वेन दण्डस्यान्यवासिद्धिः दण्डवेन वामन्यथासिद्धिरिति प्रसिद्धप्रामाणिकव्यवहारोपपर्निन स्वान यदि सहभावः स्वबहिबिन स्वीक्रियत स्वाध्यहिभविन सहभावविवक्षणे व स्वयंच स्रेनान्यथासिद्धत्व प्रसज्यतेत्युभयतः पाशारजुरिति नन्चाशनः । ____नैयायिक: ननिराकरोति -नेति । स्वावहिवन = अवयवटुप्तनियतपूर्ववृत्तिव्यतिरेकअन्यत्वेन पहभावविवक्षायां अपि अवश्यक्लप्तनियतपूर्वनितावच्छेदकावचिन्नसहभावनिम्पकतावच्छेदकरूपण - लपनियतपूनित्यावच्छेदकावन्नित्य या महभाव तन्निरूपकताया अवच्छेदकधर्मेण तृतीय अन्यधामिद्धिः इत्पत्र तात्पर्य टोपानवकाशात् = व्यापकधांवभिन्नभ्य न्यायधर्मावच्छिन्नान्यथासिद्धत्वप्रसङ्गापारम्भबान । घर पनि लपनियतपूर्वनिताबच्छेदकेन दण्डवनायन्छिन्त्रस्य यो दण्डनिष्ठः साभारः तन्त्रिरूपकताया अबन्छन्दकत्वं द्रव्यत्यादी न तु दण्डन्च एब, निगका इशादमधानपपनः । नतो बदं प्रति व्यतन करनी आवश्यक है । नच लक्षण यह प्राप्त होगा कि लघुनियतपूर्ववृत्ति से ही कार्यसम्भव होने पर उनपसे भिन्न नृतीयअन्यधासिद्ध है। अथांत लघुनियतपूर्ववृत्ति और तत्सहभूत में परम्पर भेद होना आवश्यक है। मगर ऐसा कहने पर कारणाल्पत्यलाधर हनु से व्यापकचारदिन की व्याप्यधर्मापनि से अन्यथासिद्धि हानी. जो कि प्रसिद्ध एवं प्रामाणिक है, नामुमकिन हो नायगी । आशय यह है कि घट के प्रति लयूनियनपूवृनि दश्ट को दण्इत्येन कारण माना जाता है न कि दव्यत्वेन, क्योंकि द्रव्यन्वन घटकारणता का स्वीकार करने पर रण्ड की भाँति घट, पट, मठ आदि अनन्त द्रव्यों में घटकारणता के स्वीकार की आपत्ति आयेगी, जिसमें कारणबाहुल्य की कल्पना का गौरव है। इसकी अपेक्षा दण्डवन घटकारणता का स्वीकार करने में कारणापत्यकृत लाधन है, क्योंकि तब दण्ड को छोड़ कर घट, पट, मठ आदि में घटकारणता की कल्पना का गौरव प्रमन नहीं होना है। दण्डत्व की अपेक्षा व्यत्व व्यापक - अधिकदेशनि धर्म है, जब कि द्रव्यय की अपेक्षा दण्डत्व च्याप्य = न्यूनदेशवृनि धर्म है। इसलिए घट के प्रति दण्ड दन्यत्वेन अन्यथासिद्ध कहा जाता है और दण्डवन अनन्यवासिद्ध कहा जाता है । यह वस्तुस्थिति है । मगर लघुनियनपूर्ववृत्ति से भित्र में ही अन्यथामिद्धि का स्वीकार किया जाय तर तो दण्ड में व्यत्वेन अन्यथासिनि नामुमकिन बन जायेगी, क्योंकि लघुनियतपूर्वनि दण्ड से भिन्नत्व द्रव्यत्वावच्छिन्न दण्ड में नहीं है। तर घर के प्रति अभ्यत्वावच्छिन्न में दण्डत्वावचिन ने अन्यधानिद्धि का समर्थन नहीं हो सकेगः' - । सामात IISA से भी मुमpिot ने. न्या. । मगर इसके समाधानार्थ नव्य नैयायिकों की ओर से यह कहा जाता है कि अवश्यम्लुप्तनिपतपूर्ववृनि का बहिर्भाव किये बिना भी सहभाव का तृतीय अन्यथासिद्ध में स्वीकार करने में कोई दीप नहीं है। मगर फिर भी व्यापकधर्मावच्छिन्न की न्यायधर्मावनि से अन्यपासिद्धि होने में कोई असंगति नहीं होगी, क्योंकि तुताय अन्यथासिद्धि का लक्षण यह बनाया जा सकता है कि अवग्यक्लप्सनियतपूर्ववृत्तितावच्छेदक ( = लघुनियतपूर्वनितावच्छंदक) से अवच्छिन्न के महभाव के निरूपकतारच्छेदकधर्मेण नृनीयाऽन्यवासिद्धि होती है । घट की अपेक्षा अवाएक्लृप्तनियतपूर्ववृतितावाछेदक धर्म दण्डव है । दण्डत्वावच्छिन्न का सहभाच यद्यपि दण्ड में भी है नथापि सहभाव की निरूपकता का अवच्छेदक धर्म दण्डन्य नहीं है, किम्न द्रव्यमादि है। स्वावच्छित्रसहभाव की निरूपकता का अवच्छंटक धर्म स्व नहीं होता है, अन्यया निराकांक्ष शन्द बांध होना ही नामुमकिन
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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