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________________ ६३८८ मध्यमस्वाद्वादरहस्ये खण्ड ३ का. ११ ** शरीरकारणत संवाद* व्यचार्वाकास्तु 1> अवच्छेदकतया ज्ञानादिकं प्रति तादात्म्येन क्लृप्तकारणताकस्य शरीरस्यैव समवायेन ज्ञानादिकं प्रति हेतुत्वकल्पनमुचितम् । तचैवं शरीरात्मपदयोः पर्यायतापत्तिः, इष्टत्वात् । अत एव 'पृथिवीमय' इत्यादिश्रुतिः सङ्गच्छते । न चैवं परात्मन इव तत्समवेतज्ञानादीनामपि चाक्षुष-स्पार्शने स्यातामिति वाच्यम्, रूपादिषु जातिविशेषमभ्युपगम्य रूपान्यतद्वत्त्वेन चाक्षुषं प्रति स्पर्शान्यतद्वत्वेन च स्पार्शनं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पनात् । * जयलता - Referenadi नव्यचावकाणां मतमाह नव्यचार्वाकाः = नैयायिककदेशीयाः तु अवच्छेदकतया ज्ञानादिकमिति । भावितार्धमेव । न च एवं शरीरातिरिक्तात्मा अस्वीकार शरीरात्मपदयोः पर्यायतापत्तिः, एकस्मिन्नवार्थ प्रवृत्तत्वादिति रामपदप्रतिपाद्यत्यात्. 'पृथिवीमय आत्मा' इत्यादिश्रुतिः वाच्यम्, इत्वात् एव = अपि सङ्गच्छते । आदिपदेन 'अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा' इत्यादिश्रुतिग्रहणम् । तदुक्तं शरीरकारणतावा शरीगअतिरिक्तस्य ज्ञानाद्यवच्छेदकते तिप्रसङ्गरन्तवारणायाः चच्छेदकतासम्बन्धेन जन्यज्ञानत्वाच बलिप्रति आत्मसमवेतजन्दगुिणत्वावच्छिन्नं प्रति वा शरीरत्वेन शरीरस्य तादात्म्यत्यासत्या हेतुत्वं कल्प्यते । अत्राप्यनुमित्यादी प्रामादीनां विशिष्टवृद्धी विशेषधिय: सामानाधिकरण्यप्रत्यासत्या 54 समानावच्छेदकत्वप्रत्यागस्यापि हेतुत्वं व्यवस्थापनीयम् । निर्विकल्पस्थान्छेक नियमार्थमंत्र तादृशकल्पनम् । शरीरत्यादिकन्तु न जातिविशेषः पृथिवीत्यादिना सह । नापि ज्ञानावच्छेदकत्वं तस्यंव नियामकत्वं आत्माश्रयप्रसङ्गात् अपि तु चेष्टावदाऽवयवित्यम् । चेष्टात् प्रयत्नाधीनक्रियानिष्टजातिविशेषः । गंगवस्य ज्ञानगपच्छेदकत्वापगमे तु ज्ञानजनकतावच्छेदको अन्त्यायनि निवेशनीयम् । अतएव खण्डात्पनिकाले महा शरीरावयवावच्छेदेन ज्ञानात्पवनं । चैन्यमुपलक्षणतया जनकतावच्छेदकती ज्ञानाव्यवहित्प्राक्काले नियमतः शरीर चेष्टाया असत्येऽपि न क्षतिः । केचित्तु नव्या उपाधिसाङ्कर्यदेव जातिसाङ्कर्यस्यापि निर्दोषत्वात् शरीरत्वादेरपि जानित्वमेव । एतेन पृथिवीत्वाता सादात्तत्वं जातिर्न त्यात शरीरात्मवादिमते इत्यपि प्रत्युक्तमिति वदन्ति । न च एवं = ज्ञानादेः शरीरमसंवतत्वभ्युपगम्यमाने, परात्मन इव परात्मसमवेतरूपस्पशादीनामित्र तत्रमवेतज्ञानादीनामपि परात्मत्वेनाऽभिमते परकीयवशरीर समवेतानां ज्ञानेच्छाकृत्यादीनामपि चाक्षुपस्पार्शन चक्षुः स्पर्शनिन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष = रूपरूपरसगन्धज्ञानः दिपु स्थानां, स्वमंयुक्तसमवेतत्वप्रत्यासन्या चक्षुःस्पर्शनिन्द्रियया तब मन्वादिति वक्तव्यम्, रूपादिषु जातिविशेषं = वैजात्यं अभ्युपगम्य रूपान्यत्तद्रत्वेन = रूपान्यत्वे सति प्रदर्शितवत्यमत्त्वेन विषयतासम्बन्धेन चाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वकल्पनादित्यत्राऽप्यन्वीयते । स्पर्शान्यतद्रत्वेन स्पर्शान्पित्वविशिष्टवान्यमन्येन रूपेण व विषयतया स्पार्शनं प्रति = = और घटादिवच्छेदेन न हो इसकी उपपत्ति के लिए समवाय सम्बन्ध से ज्ञान के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध में आत्मा को कारण मान कर भी अच्छेदकता सम्बन्ध से ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर को कारण मानना जब आवश्यक है। है तब समजाय सम्बन्ध से ही ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर को कारण मानना उचित है। इसमें भित्र आत्मा की कल्पना करना अनावश्यक है । इस पक्ष में उपर्युक्त दो कार्य कारणभाव के स्वीकार का गौरव भी अप्रमत है। यहाँ इस शंका का किसमवाय से ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से शरीर को कारण मानने पर तो आत्मा पदार्थ और शरीपदार्थ एक ही हो जायेगा, क्योंकि समवायअवच्छिन्न ज्ञानादिनिष्ठ कार्यता से निरूपित तादात्म्यसम्बन्धापच्छिन्न कारणता के आश्रय को आस्तिक आत्मा कहते हैं और नास्तिक शरीर कहते हैं। एक ही अर्थ में प्रवृत होने की वजह पट और कुम्भ पद की भाँति आत्माशय और शरीरपद भी पर्यायशब्द बन जायेंगे - समाधान यह है कि यह तो हमें इष्ट ही है । शरीर ही आत्मा है, न कि शरीरातिरिक्त यह तो हमारे लिए इष्टापति है। इसकी सिद्धि के लिए तो हम यह प्रयास करते हैं। शरीर और आत्मा एक ही होने की वजह तो उपनिषदों में भी कहा है कि आत्मा पृथिवीमय है..' इत्यादि । यदि पृथ्वी आदि भूतसमुदायात्मक शरीर से आत्मा भित्र होती तब तो उसके बारे मे पृथिवीमय, अश्रम इत्यादि कहना कैसे संगत होगा ? = न । शरीर को ही आत्मा मानने पर एवं ज्ञान आदि की शरीरगत धर्म मानने पर यह समस्या मुँह कांडे खड़ी रहती है कि जैसे एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति के शरीर का एवं परकीय शरीर में रहनेवाले रूप स्पर्श आदि का चाक्षुप एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष होता है ठीक उसी प्रकार उसमें रहनेवाले ज्ञान, इच्छा आदि का भी चाप एवं स्पार्शन
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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