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________________ * अदम्याजाःबदनम ४.१ 'अन्यतमत्व एव लक्षणा, धर्मादीनां तु तदेकदेशे भेदे प्रतियोगितयाऽन्वय इति । वस्तुतो भेद एवास्तु लक्षणा, लाघवात् । तस्य च धर्मादिभिः समं स्वयश्च त्रियान्वयो | व्युत्पत्तिवैचिभ्यादिति न्याटयः पन्थाः ।। *वायल नन थमादीनां सर्वेषामेव नावदन्यतमल्यावच्छिन्ने लक्षमाया अगीकार गौरवमिति लाश्वात् अन्यतमत्त्व एव लक्षणा अस्तु । अन्यतमत्तन अनेकभंदावच्छिन्नप्रतियोगिताकदस्वरूपम् । धर्मादीनां = धर्मादिपदशक्वार्धानां तु तदेकदेशे अन्यतमत्वपदार्थभूतभेटप्रतियोगिताबन्छेदकलक्षण भेदे = अन्योन्याभावे प्रतियोगिनया = स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वसम्बन्धेन अन्वयः - योगी नवनि । इत्पश्च स्वनिष्टप्रतियागितानिरूपकानसम्बन्धेन धादिषन्ट्रकविशिष्टभेदावच्छिन्नप्रतियोगिताकदवचन विधेयस्योंद्रश्यनावच्छेदकारचिन्ननिरूपितज्यापकत्वलाभ: 'नादाल्यसम्बन्धन द्रव्याणि निरुतधर्माद्यन्यनमवविंशष्टबन्तीत्यन्यधस्वीकारा. निहाति तात्पर्यम् । अन्ये इत्यनेन प्रकरणकृता स्वास्वरसः प्रदर्शितः । ताजश्चंदम् नानाभेदावनिप्रतियोगिताकभेदत्वेन ननाभेदारच्छिन्ननियागिताकद नलगायाः नकार पि गौरवानपायात, पृथिदी द्विविधा नित्यानित्या' इत्यत्रान्चयबोधानुपपत्तश्च न हात्र पृथिव्यामन्यतमत्वं प्रायते किन्तु नित्यानित्यान्यनरत्वमेव | न चान्यतमत्वान्यतरत्वयोरन्यतरनन्छध्यमस्त्विति वाच्यम्, मा मलि महागौरवादिति हदि निधायाह - वस्तूत इति । भंद एव, न त धर्माद्यन्यतमत्वावच्छिन्ने धर्मत्वाद्यन्यतमति अन्तमत्वादी या. अस्तु सर्वत्र विभागाक्यस्थले लक्षण, लाययात् = लतापदकालापात् । प्र दत्वस्य लक्ष्यतावच्छेदकत्वम, तपय धनांद्यन्यत्मन्याद्यपक्षया लधुत्वं मटमेव । अन्वयबोधोपपादनायाह तस्य - भंदम्य च स्वप्रतियोगिभिः धर्मादिभिः समं स्वयं = स्वाटतान्यतमत्वघटकविशेष्यात्मकदन सके, उद्देश्यतावच्छेदकारच्छित्रन सार्द्ध च त्रिधा = त्रिप्रकारण अन्चयः = यंगः व्युत्पत्तिदैचित्र्यात = दान्दस्यार्थबोधकशक्तिविशेषमहिम्ना नवति । भेदस्य प्रतियोगितासम्बन्धन धर्माश्रमांकाशजीवकालपुद्गलः सहा-बन्यो भवति । तस्य अन्यतमत्वएटकी भूतविशेध्यात्मकभेदेन समं स्वावच्छिन्न प्रतियोगितानिरूपकत्वसम्बन्धनान्बया भनि । उद्देश्यतावच्छेदकान्छिन्नं च तस्य स्वावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकभेदबत्त्वसम्बन्धनान्वयः कार्यः, निग्रह-पदाधंस्मरणशाब्दबोधानां समानप्रकारकत्यप्रत्यासन्या कार्यकारणभावनियमात् । एतेन प्रतियोगितावच्छेदकीभूतभेद रक्षणाङ्गीकार पि तदन्छिन्नप्रतियोगिताकदवत्ववादश्य भानं भवत इति मग्धप्रलापः परास्तः, पदार्थः पदार्थेनान्वेति न त तदेकदर्शनात अन्यतमत्त में लक्षणा - अज्य विन्दान १० अन्यतमत्व. । यहाँ उद्देश्यविधयभावस्थल में अन्य विद्वानों का यह मन्तव्य है कि "चरमपद की लक्षणा नाचदन्यतमत्व में न मान कर केवल अन्यतमत्व में ही माननी चाहिए, क्योंकि उसमें लाघच है । अतः 'द्रव्याणि धर्माधर्माचाशनीवकालपुद्रलाः' यहाँ चरम पद की लक्षणा केवल अन्यतमत्व में ही होगी, जो नजिनचे सनि तानिनचे सति नभिभिन्नत्वस्वरूप है अधरा अनेकभेदावच्छित्रप्रतियोगिताकभेदावस्वस्वरूप है। अन्यतमत्व का घटक = एकटेश है अनेकमेट । उस भेद के प्रतियोगी धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, आकाशास्निकाय आदि हैं । अनः धर्मास्तिकाय आदि का अन्यतमत्व के एकटेश भेट में प्रतियोगितामम्बन्ध - स्वनिष्टप्रतियोगितानिरूपकत्व सम्बन्ध में अन्वय होगा। अतः स्वनिष्ठप्रतियोगितानिरूपकत्वसम्बन्ध से धर्माधर्माकाशात्मकालपुद्रल. विशिष्टभदावभिन्नप्रतियोगिताक भेद, जो धमांस्तिकाय अथर्मास्तिकाय आदि छ में रहेगा, में लक्षणा मान कर तादृशाभेदावचित्रप्रतियोगिताकभंदावजिन उद्देश्यव्यापकत्ल का विधेय में भान माना जा सकता है। इस मान्यता के अनुसार तादृशच्यापकत्वविशिष्टतादात्म्य सम्बन्ध में उश्यतावच्छेदकद्रव्यत्वावच्छित्र में धर्मातिपदइन्य का अन्नय प्राप्त होता है या नादाम्यसम्बन्ध से द्रव्यत्वान्छिन में धर्मारिभन्यतम का भान होता है। मेदमें हो लक्षण प्रामाणिक वस्तु. । वास्तविकता को लक्ष्य में लिया जाय तब तो सर्वत्र विभागवाक्यस्थल में भेद में ही लक्षणा होती है, क्योंकि नापदन्यतमत्वादछिन्त्र, अन्यतमत्व आदि में लक्षणा मानने की अपेक्षा भेट में लक्षणा का स्वीकार करने पर लक्ष्यतावच्छेदकधर्म शरीर में लाघव होता है । इस पक्ष में लक्ष्यार्थ भेद का प्रतियोगितासम्बन्ध से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के साथ अन्वय होता है तथा अन्यनमन्व के घटक विशेप्यान्मक भेद में बाबच्चिद्रनप्रतियोगिताकत्वसम्बन्ध से अन्वय होता है और उद्देश्यतारच्छेदक
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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