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________________ ८१५ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्ड ३ का १४ * द्वितीयविनयं नादिदुषणम अन्त्यत्वमव्यवस्थितमनवस्थितवृत्तिजीवदेशानां । उपकारण हविमुखे तेन विशेषाग्रहः को वा ? ||७|| ॐ जयलता प्रयोजनस्वीकृतवैवक्षिकपूरणनियमार्थं पूर्वलाङ्गीकृतान्तिमविकल्पाश्रयणेन निशिततरदुर्धर भारोद्धुरारातिचक्रक्रचक्रनिस्फेटित एवान्त्यप्रदेशजीत्ववाद इति गृहाथी । अव प्रदेr rate free ra: इति पूर्विकल्पकक्षीकारे कुतः चरमप्रदेश एवं जीवस्य वृत्तित्वं । इति पर्यनुयोग पूरणातिशयसद्भावादित्युत्तरदानानन्तरं तत्रैव किं पुरणातिशयः ?' इति चालनायां वैवक्षिकपूरणसद्भावादिति प्रत्यवस्थानं कृते तत्रैव किं वक्षिकयूरणातिशयो नान्यत्र प्रदेश इति प्रश्न तत्रैव जीवस्य वृत्तित्वादिति प्रत्युत्तरप्रदानं स्पष्टमेव चक्रकदूषणमिति नान्न्यप्रदेशजीवत्वमतिः मतिमतां रतिदायिनी ॥७०॥ किञ्च जीवानां येनावृतप्रदेशाष्टकभिन्ना: प्रदेशास्ते सर्वे एवानवस्विता इति न केवल विवक्षितप्रदेशस्य चरमत्वं किन्तु सर्वेषामेव प्रदेशाष्टकव्यतिरिक्तानां प्रदेशानामिति विवक्षितप्रदेश इव शेषप्रदेशेष्वपि पूरणत्वप्राप्त बहु विप्लवेन । तथाहि दोष - | प्रदेशानां विवक्षित प्रदेशमानपूरणत्वेऽन्त्यप्रदेशवत् प्रत्येकं जयत्वात् प्रतिजीवं जीवचहुत्वमसीजीवात्मकं प्राप्नोति । अथवा प्रथम प्रदेशस्यापि अजीवत्वं सर्वथा जीवाभाव: प्रसज्यते । किञ्च यद विश्वकैकस्मिन्नवयं सर्वथा नास्ति तत् सर्वेष्ववेषु समुदितेषु न भवति, प्रत्येकमवृत्तिधर्मस्य समुदायावृत्तित्वनियमात्, अन्यथा रेणुकगराशेरपि तैलमुत्येत तथाच प्रथमादिक एकैकस्मिन् प्रदेशे सर्वधा जीवत्वं नास्ति चेतु । तर्हि प्रथमादिदेशेऽसजीवत्वं परिमाणादिना तुल्ये चरमप्रदेश कथमकस्मादेव समायातम् । न च प्रथमादिप्रदेशे देशतो जीवत्वं चरमे च कात्स्वनिति न दोष इति वाच्यम्, तत्राऽपि देशन एव जीवः कल्पयितुमर्हति तस्यापि प्रदेशात्वात् प्रथमादिप्रदेशयत् । अन्त्यप्रदेश सर्वात्मना जीवसद्भाव यो हेतुः स शेषप्रदेशेष्वपि समान एव, तुल्यधर्मकत्वात् । तथा च जीवबहुत्वप्रसङ्गः पूर्वोक्तः तदवस्थ एवेत्याद्याशयेन प्रकरणकारः प्राह- अनवस्थितवृत्तिजीवदेशानां निरन्तरं ऊर्ध्वमधी गतिशीलानां जीवप्रदेशानां अन्त्यत्वं = परमत्वं अपि अनवस्थितं अनिश्चितम् ततश्च सर्वेषामेवान्त्यत्वप्राप्ती जीवलं प्रसज्येत, नवा विचरप्रदेशऽपि जीवः स्यात प्रदेशत्वात् प्रथमादिप्रदेशवत् । न चविवक्षितचरप्रदेशेऽन्यप्रदेशापेक्षया कविचद्विशेषोऽस्ति । दीपप्रदेशासद्भावे तु विवक्षितचरमप्रदेशोऽपि न जीवन्यूनतावर्जन समर्थ इति केवलस्य तस्य उपकारग्रहविमुखे = उपकारोपलब्धिमुख्यं तेन विवक्षितचरमप्रदेशेन को वा विशेषाग्रहः तद श्रद्धा जीवप्रदेशानां संसारिन्दशायामनवस्थितत्वेन चरत्वस्य दुत्व पूरणायुपकारो नैकस्मिन् प्रदेश ज्ञायेतेत्युपकारज्ञानविमुखे त्वपि तेन चरमप्रदेशेन को विशेषाग्रहः तव यदुत चरम एवं प्रदेशः सर्वात्मना जीवी नत्वचरम इति । तती न पुराभिधाना तिशयस्य सर्वेष्वात्मप्रदेशेषु सतः शेषप्रददीभ्यो ऽन्त्यप्रदेशच्यावर्तकत्वं सम्भवतीति न प्रथमः पक्षः ते हिताय ||७१ || = — चक्रक दोपस्वरूप चक्र जोर से घूमने नहीं लगेगा ? हम यह भी कह सकते हैं कि अन्तिम प्रदेश होने पर भी शेष प्रथमादि प्रवेश नहीं होने पर जीव पूर्ण नहीं कहलाता है । इस विवक्षा से पूरण अतिशय केवल अन्य प्रथमादि प्रदेश में ही रह सकता है, न कि चरमप्रदेश में तब आप क्या बोलोगे ? आप कहेंगे कि 'जीव चरमप्रदेशरूप होने से हम विवक्षित पूरण अतिशय की कल्पना अन्तिमप्रदेश में ही करते हैं तब तो चक्रक दोष ही आयेगा । इसका कारण यह है कि 'जीव अन्तिमप्रदेशात्मक क्यों है ? इसका जवाब आपने दिया कि 'जीव चरमप्रदेशवृत्ति होने की वजह चरमप्रदेशात्मक है। फिर 'जीव चरमप्रदेशवृत्ति क्यों है ? इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में आपने 'पूरणनामक अतिशय चरमप्रदेश में होने की वजह जीव चरप्रदेशति 'हे' ऐसा कहा । बाद में ' पुरणातिशय चरमप्रदेश में ही क्यों रहता है ! इस समस्या के समाधान में आपने यह बताया कि "विवक्षित पुरण अतिशय चरमप्रदेश में ही रहता है । इसके पश्चात् विवक्षित पूरण अतिशय केवल चरमप्रदेश म ही क्यों होता है ! इस शंका के निराकरणार्थ आपने 'क्योंकि जीव चरमप्रदेश में ही रहता है' ऐसा कहा । तब तो वापस यही प्रश्न उपस्थित होगा कि 'जीव प्रदेश में ही क्यों रहता है ! इस तरह तो प्रश्नों का चक्र घूमता ही गंगा और उससे आपका चरमप्रदेशजीवन्यवादस्वरूप पट टूट जायेगा । इस बात को क्या आप भूल गये ? शांति से सोचिये ॥ ७० ॥ दूसरी बात यह है कि संसारी अवस्था में जीव के प्रदेश उबलते पानी के अवयव की भाँति सतन घूमते रहते हैं । अतः अंत्यत्व भी किसी एक ही जीवप्रदेश में निश्चितरूप से नहीं रह सकेगा । इस परिस्थिति में चरमप्रदेश किसको कहा जाय ? यह निर्णय करना भी मुश्किल बन जायेगा। तय जीन चरमप्रदेश में ही रहता है - यह कहना भी कैसे आसान होगा ? क्योंकि तब कौन प्रदेश जीव में विशेष उपकार करता है जिसकी वजह से चरम मान लिया जाय ! यह निर्णय करने में आप विमुख बन जायेंगे। फिर क्यों देश में दुराग्रह आप रखते हैं ? यह हमारी समझ में नहीं आता है ।।७१ || .
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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