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________________ ६६ मध्यमस्वाहादरहस्ये खण्डः - का.११* अप्रामाश्यग्रहामाधानामन मितिहेतवानहाकार:* यत -> अपामाण्यज्ञानाभावस्य पृथकारणत्वादेतदुत्तरज्ञानत्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वे नोक्तो दोष इति «- तला, तत्तव्यक्तित्वेनाऽग्रामाण्यग्रहाभावानां तत्तदपामाण्यग्रहाभावविशिष्टधूमादिलिङ्गकानुमिति प्रति हेतृत्वकल्पनापेक्षया सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यता -* जयला - कार्यतावच्छेदकत्वमभ्युपेयम् । ततश्चानिरिक्तप्रमाजनकत्वेन परामर्शस्य प्रमाणान्तरत्वापानात प्रतिज्ञामन्यामी दुर्वार. "ब नव्यनास्तिकानामित्वत्र प्रकरणकृत नात्पर्यम् । मतान्तरं दुपितमपन्यस्पति - यत्तु इति नन्नेत्यनेनान्यति । समवायसम्बन्धावचिन्नप्रतियोगिताकस्य अप्रामाण्यज्ञानाभावस्य = परामर्शधर्मिकाप्रामाण्यप्रकारकज्ञानाभावस्य, परामर्शजन्यबुद्धिं पनि पृथकारणत्वान् = म्यानपेण हेतुन्या पुषगमान. एतद्नरज्ञानत्वस्य = एतदन्यवहितांतरज्ञानत्वस्य, जन्यतावच्छेदकत्वे = तत्परामर्शकार्यतावच्छेदकत्वस्वीकारपि, न उक्न: व्यभिचारादिलक्षणो दोषः, गृहीताप्रामाण्यकधूमपरमविशिष्टदहनस्मत्यादी आहार्वपरामविशिष्टदहनसंशयादी चा प्रामाण्यज्ञानाभावजन्यत्वविरहात् । प्रकरणकारस्तषति - तमेति । 'दहनन्यायालोकवन पर्वत' इत्याकारकपरामर्शनिकासामाग्यप्रकारकज्ञानाभाचमादाय अगृहाता-प्रामाण्यकधूमलिङ्गकापरामर्शजन्यदहनजाने व्यभिचारवारणाय तत्तव्यक्तित्वेन = यद्यदप्रामाण्यग्रहसत्तं न धूमादिलिङ्गकानमिति: तत्तदप्रामाण्यज्ञानाभाववन अप्रामाण्यग्रहाभावानां = समवापावच्छिन्नप्रतियोगिताकानामाग्यप्रकारकग्रहाभाधानां, तत्तदप्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टधूमादिलिङ्गकानुमिति = धूमादिलिगकपरामर्शविदोप्यकानामाग्यप्रकारकज नाभाववादिष्टक्ष्मादि. लिङ्गकदहनज्ञानं. प्रति हेतुस्वकल्पनापेक्षया = स्वरूपण कारणत्वाभ्युपगमापेक्षया. सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यता. है, का वैशिष्ट्य रहता है। अतः अव्याप्ति का या अन्वय न्यभिचार का अवकाश नहीं रहेगा -मगर फिर भी कार्यतावचंद्रदकीभूत वैशिष्ट्य की प्रतियोगी क्षण में सही हुई शुद्ध अधिकरपाता का निवेश करने पर आलोकलिङ्गकपगमर्शधार्मिक अप्रामाश्यग्रहाभाव से विशिष्ट ऐसी आहार्यधूमपरामदााधिकरण क्षण के शियवाली अनिसाध्यक अनुमिति में अतिप्रसङ्ग आयगा । अनः विशिष्टाधिकरणतात्व रूप से अधिकरणता का निवेश करना होगा । उसमें यदि पडले. बताई हुई गृहीताप्रामाण्यक या आहार्यपरामर्श से विशिष्ट अग्निस्मृति या अग्रिसंशय आदि स्थल के गृहीताप्रामाण्यक परामर्श या आहार्य परामर्श से रिशिष्ट अधिकरणना का निवेश करेंगे तब तो व्यतिरेक व्यभिचार दोष तदवस्थ रहेगा और तादृशाधिकरणता से भिनाधिकरणता का निवेश करेंगे तो महा गीग्य दोष प्रमक होगा । दूसरी बात यह है कि अप्रामाण्य तो तदभाववति तत्प्रकारकत्वस्वरूप है। तन का वाच्यार्य बदलने पर उससे घटित अप्रामाण्य भी भित्र होगा । भ्रमात्मक रजतज्ञान में 'ग्जनत्वाभाववति शक्तिपदाधे रजतत्वप्रकारकत्वस्वरूप' अप्रामाण्य है । अप्रमाण सर्पज्ञान में सर्पवाभाववद्रज्जुषिशेप्यक - सर्पत्यप्रकारकन्वरूप अप्रामाण्य है। मतलब सब अप्रमाण ज्ञान में रहने वाला अपामाण्य एक - अनुगत . साधारण नहीं है, किन्तु अननुगत है । अतएव गृहीताप्रामाण्यकपरामप्रतियोगिक एक अभाव (=भेद) का निवेश भी कार्यताअवच्छेदकधर्मशारीरकुक्षि में नाम्मकिन है । अतः तादा अव्यरहितांनरज्ञानन्य या अव्यरहितोत्तरोन्पनिकन्च, जो संस्कार में न रहता हो, का कार्यताअवच्छेदक न मान का पतदुनगनुमित्तिन्त्र को ही पतत्परामर्श का कार्यताअवच्छेदक मानना संगत है, जिसके फलस्वरूप परामर्श प्रत्यक्ष से अतिरिक अनुमान नामक प्रमाण सिद्ध हो जाने मे नन्य नास्तिक के मर पर प्रतिज्ञासन्यास नामक दोष का प्रसत तदवस्थ ही रहगा - यह तात्पर्यार्थ है। प्रामाण्याsarg की स्वतन्त्रकार[ता नामुमकिन ___ यच्च । उपर्युक्त दोष के निवारणार्थ अन्य अभिनव नास्तिक का यह चकन्य है कि -- 'धूमपरामर्श की अव्यवहितोता । में होने वाली अनिविषयक बुद्धि के प्रति अप्रामाण्यग्रहाभाव को भी स्वतन्त्र कारण माननं पर तो गनदनरन्नानन्च को परामर्शकायंताबदक माना जा सकता है, क्योंकि तब पूर्वोत व्यभिचार आदि दोष का अवकाश नहीं है। गृहीताप्रामाण्यक या आहार्य धूमपरामर्श में विशिए अग्रिम्मरण . संशय आदि की अव्यवहित पूर्व क्षण में अप्रामाण्यज्ञानाभाव ही नहीं रहता है। अतएव अप्रामाण्यवोधाभाव, धूमपरामर्श आदि से बह जन्य ही नहीं है, तब व्यभिचार का अवकाश कैस?' - मगर यह भी ठीक नहीं है, क्या कि तब भी अन्यलिङ्गकपरामर्शधार्मिक अप्रामाण्यज्ञानाभाव को लेकर गृहीताप्रामाण्यकभूमगमीय अग्निबुद्धि की उत्पनि की आपत्ति तो दुरि नंगी, क्योंकि नब अप्रामाण्यग्रहाभाव, धूमपरामर्श आदि उपस्थित हैं। अतः इसके निवारणार्य नवीन नास्तिकों का यही मान्य करना होगा कि → 'तन नत् धूमादिपरामर्शविशयक अप्रामाण्यप्रकारक ज्ञान के अभाव में विशिष्ट भूमादिलिङ्गकानुमिति के प्रति नत् नत् व्यक्तित्वेन यानी धूमादिरिषकपसमाविष्प्यक अप्रामाण्यज्ञानप्रतियोगिकत्वन
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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