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५.६४ मध्यमस्यावादरहस्य खण्डः ३ . का.९ *नीलतर - नीलतमजन्यचित्ररूपममर्थनम *
अत एवाननुगताभिरपि संयोगादिप्रत्यासत्तिभिः चाक्षुषत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुष्दवेन कारणतोक्तिः प्राचां सङ्गच्छते । इत्था नानारूपवदवयवारब्धे नीलादिबाधाच्चिप्ररूपसिन्दिर्निराबाधा । वित्रं प्रत्यपि प्रागुक्तदिशा नीलेतरपीतेतरत्वादिनैव हेतुता । नीलेतरत्व नीलतरतरत्वादिकं बोध्या, तेन नीलतर-नीलतमाभ्यामारब्धेऽपि तदुत्पत्तिनिरयायेत्यादिकं न्यायवादा प्रपचितमस्माभिः ।
* जयलता ताया अभेदः स्वीक्रियत तदेवेदं सुष्ठ सङ्गगच्छेतेत्याशयेनाह . अत एव = सम्बन्धनानात्वेऽपि तावत्सम्बन्धपर्याप्तनिरुक्तावच्छन्दकन्वाऽभेदप्रयुक्तव्याप्त्यभेदप्रयुक्तकारणत्वाभेदाङ्गीकारादेव, अननुगताभिः = साधारणाननिप्रसक्तधर्मशून्याभिः अपि संयोगादिप्रत्यासत्तिभिः विषयतासम्बन्धेन चाक्षुपत्वावच्छिन्नं प्रति चक्षुषः चक्षुष्ट्वेन कारणतोक्तिः प्राचां नैयायिकानां सुष्ठ सङ्गच्छते ।
इत्यञ्च = नीलादी नीलेतररूपादिनानिबन्धकतयैवोपपत्तौ तत्र नीलादिहेतुतायां मानाभावेन च, नानारूपबदचयवारन्धे अवयविनि नीलादिवाधान चित्ररूपमिद्धिः निरावाश = रूपत्वावन्छिन्त्रसामग्याः सन्चात् नीलादिषट्कसामग्रीवाधाच चित्ररूपसिद्धरव प्रामाणिकत्वम, व्याग्यवृत्तेरवछंदकाल्योगात, नीलेतरादौ नीलादेः प्रतिबन्धकत्वे विनिगमनाविरहाचाऽवच्छेदकतया नीलादिकं प्रति समवायन नीलेतरादेः प्रतिबन्धकत्वापेक्षया समवायेन नीलादिकं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया एच न्याय्यत्वात् । न चैवं रूपत्वावच्छिमसामन्या चित्ररूपोत्पादे स्वीक्रियमाणे चित्रत्वं तत्राऽऽकस्मिकं स्यात, ततश्च नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा प्रसज्येतति शकनीयम, नीलेतर-पीनेतरादेः तदेतत्वाभ्युपगमादित्याशयेनाह -> चित्रं प्रति = समवायेन चित्रत्वावन्छिनं प्रति अपि प्रागुक्तदिशा स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतर-पीतेतरवादिनैव हेत्ता, न तु रूपवादिना । अतो न नानारूपवदवयवारब्धेश्वयविनि चित्रत्वस्याकस्मिकत्वप्रसङ्ग इति भावः ।
नन्वेवं सति नीलतर-नीलतमावयवाभ्यामारब्धेश्वयविनि सभवायन चित्ररूपं न स्यात, नदवश्वयोः नीलेतरादेः पीतादिरूपस्य चिरहेगाश्वयविनि स्वसमवायिसमवेतत्त्वसम्बन्धेन नालंतर-पीतेतरादिरूपविरहादित्याशङ्गकामामाह- नीलेतरत्वञ्च नीलतरतरत्वादिकं योध्यमिति। न तु पीतत्वादिस्वरूपमिति गम्यम् । तत्फलमाह -> नेन = नौलतरतरत्वादिस्वरूपनीलेतरत्वादिस्वीकारण, नीलतर-नीलतमाभ्यां अवयवाभ्यां आरब्धे अवयविनि अपि किं पुनः नीलपीतारब्ध इत्यपिशब्दार्थः, तदुत्पत्तिः = समवायेन चित्ररूपजानिः, निरपाया अवयविनि स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलतर-नीलतमरूपस्वरूपनीलेतरादिषट्कसत्त्वात् । न्यायवादार्थ इति । साम्प्रतं नायं ग्रन्थ उपलभ्यत इति चविद्यतेऽस्मन्मनः ।
सम्बन्ध अननुगत होने पर भी यावत् चाक्षुष प्रत्यक्ष के प्रनि चक्षुट्वेन चक्षु की कारणता का प्रतिपादन करनेवाला प्राचीननैयायिकवचन भी संगत हो सकता है । आशय यह है कि विपयता सम्बन्ध से द्रव्यचाक्षुप के प्रति चक्षु संयोगसम्बन्ध से कारण है। रूपादिचाक्षुप के प्रति स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध से एवं रूपत्वादिचाक्षुप के प्रति स्वमंयुक्तसमवेतसमवाय आदि सम्बन्ध से कारण है। स्वसंयोग, स्वसंयुक्तसमवाय आदि सम्बन्ध अननुगत होने पर भी चाक्षुपकारणतावच्छेदकसम्बन्धविधया तभी मान्य हो सकते है, यदि प्रदर्शित रीति से कारणतावच्छेदकसम्बन्ध अननुगत होने पर भी कारणता का भेद न माना जाय । अब हम प्रस्तुत विषय की ओर चलते हैं । प्रदर्शित पद्धति से अवयविरूणसामान्य के प्रति अवयवरूप को असमवायिकारण मानने से एवं नीलादि के प्रति नीलेतरादि रूप को प्रतिबन्धक मानने से अनेकरूपवाले अवयवों से आरब्ध अवयत्री में नीलादि रूप की उत्पनि नहीं हो सकेगी, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नीलादि के अधिकरणविषया अभिमत अवयवी में स्वसमायिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलतगदि रूप रहते हैं। निरुत प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकमान की वजह अनेकरूपवाले अवयवों में समन अवयवी में नीलादि रूप बाधित होने में गवं रूपत्वावच्छिन्न की सामग्री विद्यमान होने से वहाँ समवाय से चित्र रूप की सिद्धि निरापाय होगी। हौं, चित्र रूप की उत्पत्ति रूपत्वावच्छिन्न की सामग्री से नहीं होती है, किन्तु पूर्वदर्शित रीते से नीलेतर, पीतेनर आदि रूप में ही होती है। समवाप से चित्र रूप के प्रति स्वसमवायिसमक्तत्वसम्बन्ध से नीलसर - पीनंतरचाटिरूप से असमवाधिकारणता विवक्षित है। यहाँ कारणतावच्छेदकधर्मघटकीभूत नीलतरत्व नीलतरतरत्वादिस्वरूप अभिमत है, न कि पीतत्वादिस्वरूप । इसका लाभ यह होगा कि एक अक्यर में नीलनर रूप एवं अन्य अवयव में नीलतम रूप होने पर भी अत्रपत्री में समवाय सम्बन्ध से चित्र रूप की सिद्धि निगवाध होगी, क्योंकि नीलनर से अन्य नीलतम एवं नीलतम से इतर नीलतर रूप अवयवी में स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से रहते है। पदि नीदेनररूपपद से पीतादि रूप ही लिया जाय तब नीलतर - नीलतमरूपवाले