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* मुवतारीमानगकरणम * संयुक्तसमवायात्तग्रह इति न समवायादेः पत्यासत्तित्वम् । ___मनोऽपि चाऽसमवेतं भूतम् । न च पृथिवीत्वाही विलिामकाभावादतिरेको युक्तः, पार्थिवादित्वेऽपि तत्तदात्माकृष्टत्वेन विशेषसम्भवादिति निम् ।
इत्थच शरीराद्यतिरिक्तस्यात्मनः एवाऽसिन्दौ कस्य नाम परलोक: ? कस्य वा मोक्ष: ? इत्याहुः ।
- जयलता शब्दसमवायिकारणत्वात् कर्णसंयुक्तममवायात् एव तद्ग्रहः = इन्दगाक्षात्कार इति हेगः न समवायादेः = ग्चममवायस्वरूपचनसमवायादेः प्रत्यानित्वं = छान्द-शब्दत्वादि-प्रत्यक्षकारणतावदकसन्निकर्षवन । रूपा - रूपयादिमाभात्कारानरोधन क्लप्तसंगुनसमवायसंयुक्तसमवेतसमयाय भ्यमेव शब्द-मन्दत्यादिसाक्षत्कारांदरसम्भवन स्वसमवायम्वरमयतसमवायाः पृथक प्रत्यासनित्वा कल्पनलायबमार शब्दस्य गयुसमवतत्वपक्षे । एतेन शब्दा न स्पर्शद्विशरगुण: अग्निसंयोगासमवाधिकारणकत्याभात्र सत्यक रणनणपूर्वकप्रत्यक्षत्वात सुखयत् । राकज पादा व्यभिचारवारणाय सत्यन्तम्। पटरूपादी व्यभिचारबारणायाकारणग 'गपूर्वकेनि | जलपरमाणुमपादौ व्यभिचारवरणाप प्रत्यक्षति (क.४४.मु.पृ.३६७) मुक्तावलीकारदचन प्रत्यक्ता वाययत्र मुनिशन्दक्रमेण वाया कारणगुणपूर्वकट ब्दोत्पन्न : सम्भवाच । बामुविदायगुणस्य याबद्रव्यभाविनियमात या तर्कबिरहादनुपादेय पर । अता न भूतचतुष्कमावतन्त्रत निजाच्यातिरिति नूतननास्तिकादायः ।
नधागि मनसा भूतवतम्कातिरिकपन तदयस्थ प्रतिज्ञामान्यास इत्याशयामामाह: मनोऽपि चाऽसमयत भूतं । नत तदतिरिक्तन । भौतिका एक परमावो मनांसि अनन्नधर्मिणामतिरिक्तायाश्च जातः कल्पनामपेक्ष्य कलप्तानामेव धगिंगा क्लुमनः सपण ज्ञानादिहेतुनाया न्याय्यत्वात् । न च पृथिवीत्वादी विनिगमकाभावात् = मनसी भौनिकत्वं पृथिवयं जलवाटिक वा ? इत्यत्राधिनिगमात. उभयकल्पन व नानिसाइ कर्यात तस्य अतिरेक एक युक्त इति वाच्यम्, पार्थिवादित्वेऽपि तत्तदास्माकृष्टत्वेन = तनन्द रचरूपात्मसम्बद्भवेन तत्र विशेषसम्भवात् । वस्तुतस्तु पृथिर्य - जल-तजो-वाञ्चन्यतमल्न मनम्त्वनिर्णयानुनविनिगमकांचन्तानाचित्यमित्यादिसूचनार्य दिगित्युक्तम् । शिष्टं स्पष्टम । यह है कि शब्दआदिप्रत्यक्षकारणतावच्छेदक प्रत्यासत्तिवेधा स्वसमवाय-स्वसमवेतसमशय नामक अतिरिक्त सम्बन्ध की कल्पना भी अनावश्यक बन जाती है, क्योंकि स्वसंयुक्तममवाय सम्बन्ध में ही शब्द का थावण साक्षात्कार हो सकता है। स्व * कर्ण से मंयुक एवन में शन्न का समवाय होने में कर्णेन्द्रिय स्वसंयुक्तसमत्राय = स्वसंयुक्तसमवेनत्तमम्बन्ध से बाद में रह का दिपयता मम्बन्ध से यहां शब्द का श्रावण प्रत्यक्ष उत्पन्न कर सकती है । एवं वाग्दत्व का प्रत्यक्ष स्वमंयुक्तसमवेतममवाय सम्बन्ध से हो सकता है। स्वसंयुक्तममाय एवं स्वसंयुकममवेतसमवाय सम्बन्ध का तो रूप एवं रूपत्व आदि के प्रत्यक्षकारणतावनंदक सनिकपविधया स्वीकार उभयमन में अवश्य क्लुप्त ही है। अतः वाद को परनसमवेत मानन में प्रत्यारानि का लापर है, जब कि आकाशसमत्रत मानने में प्रत्यासनि का गौरव है। अतः आकाशनामक पचम भून का स्वीकार नहीं किया जा सकता । अन; भूतचतुष्कसिद्धान्न की सुरक्षा मुकर है।
। मान मागता भूत है - जतीन जास्तिक भनी । इस तरह मन भी अतिरिक्त नहीं है, क्योंकि मन अणुस्वरूप होने में पार्थिबादि परमाणु की भाँनि वह असमवेत भतस्वरूप माना जा सकता है । यहाँ यह शशा हो कि -> 'मन को असमवन भूतात्मक मानने पर भी उस पार्थिव मानना या जदीय या तेजसीय या वायवीय ! इसमें कोई चिनिगमक नहीं होने से उसको पृथ्वी आदि चार भूतों से अतिरिक्त पत्रम भुत मानना ही युक्त है - तो इसके ममाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि मन पार्थिव आदि स्वरूप होने पर भी नन् नन् शरीरस्वरूप आत्मा से आकृष्ट = सम्बन होने की वजह मन में विशेपना सम्भविन है। अत: मन को अतिरिक भुन मानने की जरूरत नहीं है । पृधिरी आदि चार्ग में ही उसका यथासम्भव ममावेश हो सकता है । इस नरह कायाकारपग्णिन भूतरामूदाय में अतिरिक्त आत्मा की ही जब सिजि नहीं होती है तब किमका परलोक होगा ? पर्च किमका मोक्ष होगा? काया तो यहाँ ही जल कर खाक हो जाती है। फिर कायस्वरूप आत्मा का परलोक गमन नामुमकिन है । एवं काया का नाश ही भात्मा की मुक्ति है, न कि उसम भिन्न अनन्त मुखस्वरूप । इसलिए यहाँ खाओ, पिओ और मौज करी । परलोकादि में मुम्बी उनने के पत्रं मोक्षप्राप्ति के उदेश में दीक्षा, नप आदि कष्टानुष्ठान की कोई आवश्यकता नहीं है। - यह नीन नास्तिकों का मत है ।