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________________ १८५८ मध्यमस्वाद्वादहरू खण्ड: ३ का. ११ * कारणतावादमंत्राः * यमादायैव यस्यान्वयव्यतिरेको गृह्येते तेन तदन्यथासिद्धमिति चतुर्थम् । यथा दण्डादिना दण्डत्वादि । न चाद्ये एवास्यान्तर्भाव: दण्डादेः दण्डत्वादित: पृथगन्वयाद्यभावात्; यमवच्छेदकीकृत्य यस्यावच्छेद्यस्यान्वयव्यतिरेक गृहस्तेनाऽवच्छेद्येन तस्यावच्छेदकस्यान्यथासिद्धिरित्य * जयलवा * तु दास्यादितोऽपि सम्भवति । न च दास्यादेरपि तदुद्घटादावावश्यकत्वम्, तद्घटजातीयं प्रति क्लृप्तकारणभावदण्डादिभिरेव तद्घटस्यापि सम्भवेन तत्राऽप्यवश्यक्लृप्तत्वाज्ञानात् । तदुक्तं गदाधरेणापि कारणतावादे अवस्यक्लृप्तनियतपूर्ववर्तिन एवं कार्यसम्भवे तत्सहभूतं यदूधर्मावच्छिनं तद्धर्मावच्छिन्नमपि तत्रान्यथासिद्धं यथा पात्रजगन्धादी रूपादिप्रागभावः । तत्र हि सुरभ्यसुरभि - मदवयवारब्धघटादौ पाकजगन्धप्रागभाववति रूपादिप्रागभाववति गन्धोत्पादवारणाय तत्प्रागभावस्य तन्नियतपूर्ववर्तित्वस्य कल्पनादिति (बा.वा.का.वा.उ.२०३) | यं दण्डत्त्वादिकं आदाय = गृहीत्वा एव यस्य दण्डः घटं प्रति अन्वयव्यतिरेकी अन्वयव्यतिरेकातियोगित्वं गृह्येते तेन दण्डादिना तदन्यथासिद्धं = दण्डत्वादि अन्यथासिद्धं चतुर्थम् । यथा दण्डादिना दण्डत्वादि । दण्डादरखण्डीपाविजातिव्यतिरिक्तत्वेन किञ्चित्प्रकारेणैव तस्य बटं प्रति अन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वज्ञानसम्भवः । स च प्रकारीभूतो धर्मो दण्डवादिकः । दण्डत्वादिकं ज्ञात्वैव घटं प्रति दण्डस्यान्वयव्यतिरेकग्रहसम्भवात् घटं प्रति दण्डादिना दण्डत्यादिरन्यथासिद्धः । - = ननु आये अन्यथासिद्धे एव अस्य चतुर्थान्यथासिद्धस्य समावेशः क्रियतां किं तत्पार्थस्य तदुपदेशेन ? दण्डादिना सहैव दण्डत्वस्य घटं प्रति पूर्ववृत्विग्रहात् कुतः ? उच्यते दण्डत्वत्वं हि दण्डेतरावृत्तित्वे सति सकलदण्डवृत्तित्वस्वरूपम् । दण्डत्वत्वेनैव दण्डत्वस्य घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहसम्भवं दण्डादिना सहैव दण्डवान्वयव्यतिरेकयोः सिद्धेः । न हि घटकवहिर्भावन घटितान्वयव्यतिरेकी गृह्येते इति प्रथमातिरेकेणैतत्रिरूपण अर्धमित्याशयमपाकर्तुं नैयायिका उपक्रमन्ते न चेति । तन्निराने हेतुमाहु: दण्डादेः दण्डवादितः पृथगन्वयाद्यभावात् दण्डत्वादिविनिर्मोकणान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वग्रहासम्भवात् । यथा दण्डरूपादिकमविज्ञायापि दण्डादे घटं प्रति अन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वग्रहः सम्भवति तथा दण्डत्वादिकमनवबुध्य दण्डः घटं प्रत्यन्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वज्ञानं नैव सम्भवतीति विशेषान्नास्यादिमान्यधासिद्धे समावेदाः सम्भवति । निरुफलक्षणादिदमवगन्तुं यं अवच्छेदकीकृत्य कारणतावच्छेदकं कृत्वा यस्य = अवच्छेयस्य अन्वयव्यतिरेकग्रहः = न शक्यत इत्यत आहुः अन्वयव्यतिरेकनिरूपित प्रतियोगित्वज्ञानं भवति तत्र तेन अच्छेन तस्य = अवच्छेदकस्य चतुर्थी अन्यथासिद्धिरित्यर्थात् = - = 1 उस घट की अपेक्षा अवश्यवलृप्तत्व का भान नहीं होता है । जैसे दण्ड- चक्रादि के समतियत दण्ड, चक्रत्वादि में, जो घटनियतपूर्ववृत्ति हैं, पट की अपेक्षा अवश्यकतत्व का भान नहीं होता है ठीक वैसे यह भी ज्ञातव्य है । इस तरह तृतीय अन्यथासिद्ध का निरूपण पूर्ण हुआ । अब चतुर्ध अन्यथासिद्ध का निरूपण हो रहा है । ॐ चतुर्थ अन्यथासिद या । अन्य किसीको लेकर ही कार्य के प्रति जिसका अन्वयव्यतिरेक ज्ञात हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्य से चतुर्ध अन्यथासिद्ध होता है । अर्थात् किसी कार्य के प्रति जिसका अन्वय तथा व्यतिरेक स्वतन्त्ररूप से नहीं बन पाता, अपितु अन्य ( = अपने आश्रय प्रकृतकार्यकारण) को लेकर ही जिसके अन्वयव्यतिरेक का निश्रप जिस कार्य के प्रति किया जाय उस कार्य के प्रति वह वस्तु अपने आश्रय से अन्यथासिद्ध है, जैसे घट के प्रति दण्डादि में दत्त्वादि अन्यथासिद्ध | है । यट के प्रति दण्ड का अन्वयव्यतिरेक दण्डत्व को लेकर ही बन पाता है, क्योंकि इण्डत्वेन रूपेण ही cs को कारण माना जा सकता है। इस तरह दण्ड के अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान इण्डत्व को लेकर ही हो सकता है । इसलिए घट के प्रति दण्डत्व ण्ड के द्वारा चतुर्थ अन्यथासिद्ध बनता है । यहाँ इस शंका का कि 'चतुथं अन्यथासिद्ध दण्डादि का प्रथम अन्यथासिद्ध ause आदि में ही अन्तर्भाव क्यों नहीं किया जाता है ? - समाधान यह है कि दण्ड आदि को aण्डत्वादि से कभी भी पृथक कर के घट के प्रति अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान नहीं हो सकता है। अखण्ड उपाधि एवं जाति अतिरिक्त होने की वजह दण्ड का किञ्चिद्धमंत्रकारेण ही भान हो सकता है। इसलिए दण्ड का अन्वयव्यतिरेक दण्डत्वेन ही होगा । जब कि दण्डरूप के बिना भी दण्ड के अन्वयव्यतिरेक का ज्ञान हो सकता है। अतः जिसकी अवच्छेदक बना कर के उससे अवच्छेय का अन्वयव्यतिरेक ज्ञात होता है वहाँ अवच्छेद्य से अवच्छेदक अन्यथासिद्ध बनता है - अपटन करने पर किसी दोष का अवकाश नहीं है। दण्डव दण्ड का अवच्छेदक है और दण्ड उससे अवच्छंग है । अतः ऐसा
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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