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________________ *नवार्थवृनिसंबाडेन मञ्जूषाकृन्माननिगसः * अप्रयोजकत्वात् । द्रव्यग्रहप्रयोजकप्रत्यासत्तेरभिहितत्वेन तदसिन्दिरूपविपक्षबाधकतकाभावात्। शब्दः पौगलिक: इन्द्रियार्थत्वास्पादिवत्, शब्दो ताम्बरगुणोऽस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् सपादिवदिति तु प्राय: । * रालता* दाब्दस्य द्रव्यत्वे श्रोत्रस्य शब्दाहकत्वं न स्यादित्याशय आशेपकृतः। तबिरसने हेतुमाह - अप्रयोजकत्वात् = व्यभिचारशकानिवर्तकानुकूलतर्कबिरहान । न च श्रीनेन्द्रियस्य द्रव्यात्मकग़न्दग्रहणे द्रव्यान्तरग्रहणप्रसङ्गस्यैव बाधकत्वमिति वाच्यम्, द्रच्यान्तरस्य श्रोत्रेणान्याम्पत्वादपि नदग्राह्यत्वस्योपपत्रेः।नत्र द्रव्यग्राहकप्रत्यासत्तिविरहादेव श्रीवस्य रसनवत् द्रव्यग्राहकत्वासम्भव इति वक्तव्यम्, द्रव्यग्रह्मयोजकप्रत्यासत्तेः = स्वसंयोगलक्षमाया द्रव्यगोचरज्ञानप्रयोजकाप्नत्यासत्तेः, पूर्व अभिहितत्वेन तदसिद्धिरूपविपक्षबाधकताभावात् = श्रीअनिष्ठत्वेन द्रव्यग्राहकप्रत्यासच्या असिद्भिरूपी यो विपक्षबाधकतर्कन्नस्य चिरहत् । साध्यचिकलश्च दृष्टान्तः, अस्माभिः स्याद्वादिभिः सप्विन्द्रियेषु द्रव्यग्राहकत्वस्य स्वीकृतत्वात. स्वसंयोगलक्षणद्रव्यग्राहकात्यासत्तेरविशेषादिति व्यक्तमेव तत्त्वार्थटीकायाम । अत एव चक्षमनःस्पर्शनेन्द्रियाण्यत्र द्रव्यग्राहकाणीत्येकान्तोऽपि प्रत्याख्यातः, सम्मिश्रीत्रीलचियता मन्द्रियेषु ज्यभिचाराच । एतन नव्यमनानुसारेण शब्दस्य गुणत्वं साधयता मुक्तावलीम पाकता “चाहना योग्यत्यगिन्द्रियातिरिक्त-बहिरिन्द्रियग्राह्यजात्तिमत्वस्य हेतुत्वसम्भवात्' (का.४४ मु. पृ.३६५) इत्युक्तं तदपास्तम् । प्राचां शब्दे दन्यत्वसाधन-गगनगुणत्वबाथपद्धतिमाविष्काति · शब्द इति । रत्नाकरावतारिकायां तु पूचानरमावेनानु. मानद्वयमिदमुपदर्शितं रत्नप्रभाचार्येण । तथाहि - 'न गगनगुणः शब्दः अस्मदादिप्रत्यक्षत्वात् रूपादिवत् । पौगलिकशब्द इन्द्रियार्थत्वात, रूपादिवदेव' (र.अ. 110) त । बलिप्रत्यक्षागनगुण व्यभिचारवारणाय असादादा'त्युक्तम् । प्राश्च इत्यनेना स्वरसोद्भावनं कृतम् । तद्वीजन्चिदम् - नैयायिकादीनां रुपादिषु द्रव्यत्वरूपस्य पौलिकत्वस्याऽनाममतत्वे तान्प्रत्येवं बक्तमशस्थत्वात, तन्मते दृष्टान्तस्य माध्यविकलवं. हेतोयभिचारित्वञ्च । न च द्रव्यत्वे सतीन्द्रियार्धत्वादित्यपि हेतः सम्भवति: अन्योन्याश्रयात्, दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वापनेश्च । गदि च पौगलिकत्वं गुगलपरिणामरूपं गृह्यत तदा न कश्चिदंष इति तु ध्येयम् । न चात्म-ज्ञानादर्मनोलक्षणेन्द्रियार्थवादयभिचार इति वाचम, स्वनय मनसो नाइन्द्रियत्वात् यद्रा गहिगिन्द्रियार्थत्वं हेतुरस्नु । अन्ये ऽपि प्राश्चो जैनाचार्याः 'शब्दो द्रव्यं गणयचात बाणादिवत् । न च गुणवत्त्वमस्या सिद्धम्, तथाहि - गुणरान शब्दः स्पर्शाद्याश्रयत्वात्, बदगमलकादिवत । न तावत्स्पर्शाश्रयत्वमसिद्धम् । तथाहि शब्द: स्पर्दावान् स्वसम्बद्भार्धान्तराभिघातहतुत्वात ओर से ऐसा कहा जाय कि → 'श्रोत्रेन्द्रिय में द्रव्यग्राहक प्रत्यासत्ति नहीं है, किन्तु गुणादिग्राहक प्रत्यासत्ति है। इव्यविषपक लौकिक साक्षात्कार में प्रयोजक प्रत्यासत्ति न होने पर भी यदि श्रोत्र में द्रव्यग्राहकता मानी जाय तब तो द्रव्यग्रहप्रयोजकशुन्य रसनेन्द्रिय से भी द्रव्य का प्रत्यक्ष होने लगेगा। अतः श्रोत्रेन्द्रिय की द्रव्यग्राहकता में दव्यप्रत्यक्षप्रयोजकप्रत्यासति की असिद्धिस्वरूप विपक्षबाधक तर्क की उपस्थिति होने से रूपस्पर्शान्यतराऽग्राहकबाहिरिन्द्रयत्व हेतु से श्रोत्रंद्रिय में द्रव्याऽग्राहकता की सिद्धि निगराध है' -तो यह भी असहन है, क्योंकि द्रव्यात्मक शब्द के लौकिक साक्षात्कार में प्रयोजक संयोगनामक प्रत्यासत्ति का श्रोत्रन्द्रिय में हम पहले ही लाघवसहकार से निर्देवा कर चुके हैं । अतः श्रोत्र में द्रयग्राहकप्रत्यासत्ति की असिद्धिस्वरूप विपक्षबायक सर्क की सिद्धि ही नामुमकिन है। इसलिए प्रदर्शित अनुमान में अप्रयोजकत्व दोप तदयस्थ रहने से वह श्रीन्द्रिय में द्रव्यग्राहकता का बाधक नहीं हो सकता है। अतएव बाद में दन्यत्व की सिद्धि भी निगराध है . वह फलित होता है । मह प्राचीन जैनाचार्यों का सम्पदव्यत्वादिसाधक अनुमान पान्दः पी. । शब्दस्थल में रत्नप्रभसूनिभति प्राचीन जैनाचार्यों का यह वक्तव्य है कि . शन्न पाङ्गलिक है, क्योंकि वह इन्द्रिय का विषय है। जो इन्द्रिय का विषय होता है वह पौगलिक = पुदगलपरिणामस्वरूप होता है, जैसे रूपादि । मन्द भी ओत्रात्मक इन्द्रिय का विषय होने से पुद्गलपरिणाम है । एवं शब्द आकाश का गुण नहीं है, क्योंकि उसका हमें प्रत्यक्ष होना है। जो हमारे प्रत्यक्ष का विषय होता है बह आकाश का गुण नहीं होता है, जैसे कि रूपारि । गन्द्र भी हमारे प्रत्यक्ष का विषय है। अतः वह आकार का गुण नहीं हो सकता । इस तरह शब्द में पोद्गलिकता का विधानसमर्थन एवं गगनगुणत्व का निषेध पूर्वाचार्यों ने किया है।
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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