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________________ ०८ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ का ५ * समनियताभावादर्शनम् चाक्षुषलौकिकविषयत्वावचिन्नप्रत्यक्षाभावादेरपि तथात्वे विनिगमकाभावोक्तिस्तु कस्यचिन शोभते, समनियताभावाऽभेदात् । * गा रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वं कल्पले त्वया तु संरशुद्रन्यान्यत्वस्य प्रतिबध्यतावच्छेदककोटी देयत्वन प्रतिबन्धकाभावनिरूपितकार्यताबच्छेदक गौरवमधिकम् । श्राञ्चाक्षुषत्वेनैवकायचाक्षुत्पादनेऽपि गगनादेरचाक्षुषत्वोपपादनं न कथनपि परस्य सङ्गगच्छते तत्र स्वाश्रयसमवायेन चाक्षुषाभावस्यैव विरहात् । न च द्रव्पपदं न बुटिल्यपरमिति न तदनुपपतिरिति वाच्यम्, तथा सति शुकादेरपि प्रतिबध्यताकुक्षिवहिभांवापातेन महत्त्वस्य प्रत्यासत्यघटकल्याभिधानाऽसङ्गत्वापत्तेः । ततश्च सच्चा प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन समाचावच्छिन्नरूपाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वमर्हति । ततश्च नानावयवारयदस्य नीरूपत्वे तलनसंयोग - परिमाणादीनां चाक्षुपं नैव स्यादिति प्रकरणकृतस्तात्पर्यम् । = उत्यान्यसचाक्षुष नीरूपपटवादिमनप्रतिक्षेपिणः कस्यचिन्मतं खण्डयितुमुपदर्शयति -> > चाक्षुपलौकिकविपयत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षाभावांदेरपि चाक्षुषसाक्षात्कारनिष्ठलौकिकविषयितानिरूपितविषयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रत्यक्षात्यन्ताभावादेरपि तथाचे प्रतिबन्धकत्वं विनिगमकाभावातिरिति । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यान्यसचाक्षुषं प्रति प्रतिबन्धकत्वं स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन लौकिकविपयितानिरूपितविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकचाक्षुषाभावस्य यदुत चाक्षुपनिलौकिक विषयितानिरूपितविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकप्रत्यक्षा भावस्य । इत्यत्र विनिगमनाविरहात् न लोविकविषयतावच्छिन्नचाक्षुषा भावस्य प्रतिबन्धकत्वाम्युपगम: श्रेयानिति उक्तिः तु कस्यचिन्न शोभते । = तदशोभनत्वे प्रकरणकारी हेतुमाह--> समनियताभावाभेदात् समव्याप्यव्यापकाभावानामैक्पादिति । निरुक्तचाक्षुषाभावप्रत्यक्षाभावयोः समत्र्यासत्वेनाऽतिरित्वकल्पने गौरवान् निरुक्तप्रत्यक्षाभावाधिकरण लौकिकविपयतया चाक्षुषस्याऽनुपलब्धः, निरुक्तचाक्षुषाभावाभिकरणं निरुप्रत्यक्षाभावव्यवहाराच तक्यमेवेति । एतेन प्रदर्शितविनिगमनाविरहः प्रत्युक्तः, शब्दभेद का चाक्षुप होता है । अतः लीकिकविपयतात्राले चाक्षुपाभान को ही स्वाश्रयममत्रेतत्य सम्बन्ध से चाक्षुप का प्रतिबन्धक मानना होगा । अतः प्रतिबन्धकता अवच्छेदक धर्म का शरीर लौकिकविपयिताविशिष्टचाक्षुपप्रतिद्योगिकाभावत्व होगा। मगर रूपाभाव को चाक्षुष का प्रतिबन्धक मानने में रूप का कोई विशेषण आवश्यक नहीं है । केवल समवायसम्बन्धावच्चिप्रतियोगिताक रूपाभाव ही प्रतिबन्धक बन सकता है । अतः प्रतिबन्धकतावच्छेदकगीरव दोष हमारे पक्ष में अप्रसक्त है। अथवा यह भी कहा जा सकता है नीरूपबादी को लोककवियितानिरूपितविपयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक चानुपाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानना होगा जब कि हमारे पक्ष में समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक रूपाभाव को ही स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रतिक मानना होगा। स्पष्ट ही है कि नीरूपवादी के मन में प्रतिबन्धकतावच्छेदकताघटक सम्बन्ध में हमारे मत की अपेक्षा गौरव है । जब लघुसम्बन्ध सम्भव हो तब गुरुभूत सम्बन्ध की कल्पना करना एवं उसे मान्य करना अन्याय हैं । अतः रूपाभाव को ही प्रतिबन्धक मानना होगा, जिसके फलस्वरूप नीरूपसमवेत संयोग परिमाण आदि के अच्चाक्षुष की आपत्तिः पुनः मुँह फांड खडी रहेगी । अतः नानारूपवदवयवाच्य घटादि को नीरूप नहीं माना जा सकता • यह फलित होता है । = 13 चाप इति । नीरूपघटवादी के प्रतिवाद में अन्य विद्वानों का यह वक्तव्य है कि 'ferent सम्बन्ध से द्रव्यान्यसद्विपकचाक्षुप के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकविपवितानिरूपितरियतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक चाक्षुप्राभाव का प्रतिवन्धक मानना या चाक्षुपली किकविपयितानिरूपित विपयता सम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रत्यक्षाभाव का प्रतिबन्धक मानना ? इस विषय में किसी भी पक्ष की साधक युक्ति नहीं है । विनिगमनाविरह से दोनों को प्रतिबन्धक मानना होगा | अतः निरुक्त चाक्षुपाभाव की प्रतिबन्धक नहीं कहा जा सकता < मगर प्रकरणकार श्रीमदजी इसके खिलाफ में यह कहते हैं कि नीरूपघटवाडी के प्रति विनिगमनाविरह दोष का उद्भावन करना ठीक नहीं है, क्योंकि समनियताभाव परस्पर अभित्र होते हैं । जहाँ जहाँ निरुक्त चाक्षुपाभाव स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रहता है वहाँ वहाँ निरुक्त प्रत्यक्षाभाव भी अवश्य रहता है और जहाँ जहाँ निरुक्त प्रत्यक्षाभाव उसी संबन्ध से रहता है वहाँ वहाँ निरुक्त चाक्षुषाभाव भी अवश्य रहता है । दोनों परस्पर समनियत = समत्र्याप्य-व्यापक होने से दोनों को परस्परभिन्न मानने में गौरव है । अतः समनियताभाव को परस्पर अभिन्न मानना ही संगत है । इस विषय का निरूपण पूर्व व्यवहारनय से ध्वंसनिरूपणा में किया गया है । जिज्ञासु जब कि समनियताभाव परस्पर अभिन ही है वहाँ अपनी निपुण निगाह डाले यह विज्ञप्ति (देखिये प्रथम खंड पृष्ठ १० )
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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