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________________ 1 अनुमितिकारणताविचारविमर्शः * परामर्शविशिष्ट स्मृति - संशयादिषु व्यभिचारवारणाय ततदप्रामाण्यग्रहाभाव- ततदाहार्यभेदादीनां जन्यतावच्छेदके निवेशे गौरवात् । ता वाप्रामाण्यप्रकारतानिरूपित सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन ज्ञानाभावत्वेनाऽप्रामाण्यग्रहाभावानामाहार्य भेदस्य चानुगतस्यैव निवेॐ जयलता 3 रामर्शविशिष्टस्मरणसंशयविपर्ययेषु आहार्यपरामर्शविशिष्टस्मरण संशय-विपर्ययेषु च निम्क्तकार्यतावच्छेदकावच्छिन्नेषु अप्रामाण्यग्रहशून्यतादृशनिश्रयमृत उत्पन्नेषु व्यतिरेकव्यभिचारस्य परिग । तत्र व्यभिचारवारणाय व्यतिरेकव्यभिचारा राकरणकृते ततदप्रामाण्यग्रहाभावतनदाहार्यभेदादीनां जन्यतावच्छेदके अप्रामाण्यग्रह-शून्यतादृशानि सकार्यतावच्छेदककोटी निवेशे गौरवात् : महागीवात् । तदानिवेशेऽयमादन्यालोकपरामर्शादपि गृहांना प्रामाण्यक धूमरामसत्वं दहनानुमित्यनापत्तिः । अतः तत्तत्पदनिवंशस्यावश्यकत्वम् । तदपेक्षयैतदव्यवहितो नरदनानुमितित्वस्यैव तत्कार्यतावच्छेदकत्वे लावयमिति प्रकरणकृदाशयः । ६५० - नव्यनास्तिकशङ्कामपाकर्तुं दर्शयति न चेति वाच्यमित्यनेनान्त्रयोऽस्य । अप्रग्नापग्रहा भावानानाहार्य सदस्य चानुगतत्वमुपपादयन्ति नन्यनास्तिका: अप्रामाण्यप्रकारतानिरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्ट विशेष्यतासम्बन्धेनेति । 'अयं परामर्शोप्रामाण्यवानिति ज्ञाने परामर्श विशेष्योऽप्रामाण्यञ्च प्रकारः । अतोऽप्रामाण्यनिष्टकारता निरूपितविशेष्यतासम्बन्धेनाप्रामाण्यविज्ञानविशिष्ट: परामर्शनिश्वयः । एवं बाधकालीनच्छा मन्यज्ञानलक्षणाहार्थं परामर्शोऽपि स्वनिरूपितानाम्यनिष्ठ कारतानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेनाप्रामाण्यज्ञानवान् । यस्मिन्त्रात्मानं समायेन तादृशपरामर्जी विद्यते तस्मिन्नेव सजवायनाः प्रामाण्यग्रहोऽपि वर्तत इत्यतः स्वप्रकारीभूता गाण्यनिष्ठप्रकारता निरूपितमानानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेनामाण्यग्रही गृहीता प्रामाण्यकपरामर्श आहार्यपरामर्श वा वर्तन । स्वनिरूपितानानाम्यनिष्ठ प्रकारतानिरूपित सामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन परस्मदर्शनिष्ठानां तदप्रामाण्यग्रहाभावानां तत्तवाहार्यमेदानां च तत्कार्यतावच्छेदककोटयनिवेशनीयत्वं तेषां ज्ञानाभावत्वेनैव स्वीकार करने पर अतिरिक्त प्रमा की सिद्धि नहीं होगी। अतएव अतिरिक्त अनुमान प्रमाण की भी सिद्धि अप्रसक्त रहेगी' ← असंगत है। इसका कारण यह है कि जिसमें अप्रामाण्य का ज्ञान हो गया है ऐसे परामर्श या आहार्य वाकालीनेच्छाजन्य) परामर्श की उत्पत्ति के अव्यवहितोत्तर क्षण में दहन की स्मृति, संशय आदि हो सकते हैं, जो गृहीताप्रामाण्यक परामर्श या आहार्यपरामर्श से विशिष्ट होते हैं। विवक्षित परामर्शात्मक कारण के बिना भी प्रकृत कार्यतावच्छेदक से विशिष्ट की उत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार प्राप्त होता है। यदि इस व्यभिचार को हटाने के लिए नय नास्तिकों की ओर से यह कहा नाय कि "हमें जो 'पर्वता वह्निव्याप्यधूमवान्' इस परामर्श का कार्यतावच्छेदक अभिमत है यह केवल एतदुत्तरज्ञानत्व नहीं है किन्तु उसमें तत् तत् अप्रामाण्यज्ञानाभाव एवं तत् तत् आहार्य भेंद्र भी निचिष्ट दी है। गृहीनाऽप्रामाण्यकपरामर्शविशिष्टस्मरणसंशयादि या आहार्यपरामर्शविशिष्टस्मरण-संशयादि कार्य में तत्तदप्रामाण्यज्ञान का अभाव या आहार्यभेद नहीं रहता है। अतः विवक्षित कार्यतावच्छेदकावच्छिन्न की उत्पति नहीं होने से व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है" तो यह भी असंगत है, क्योंकि नच कार्यतावच्छेदककोटि में गौरव दोप प्रसक्त होता है । नत्तत अप्रामाण्यग्रहाभाव एवं तत् तत् आहार्यभट का | कार्यतावच्छेदककुक्षि में प्रवेश करने की अपेक्षा एतदव्यवहितांनगनुमितित्व को ही तादृश परामर्श का कार्यतावच्छेदक मानना समत है, जिसके फलरूप में अतिरिक्त प्रमा की सिद्धि होने से प्रमाणान्तर की सिद्धि अनायाग हो जायेगी। ( न चाप्रा । यदि गौरव दीप के परिहासर्व नृत्य नास्तिकों की और से बचाव रूप में यह कहा जाय कि विवक्षित परामर्श के कार्यतावच्छे शरीर में तत् तत् प्रामाण्यज्ञानाभाव का तरामाण्यज्ञानाभाव एवं तन त आहार्यों का आहार्यभेदत्वेन निवेश नहीं किया जायेगा किन्तु ज्ञानाभावत्वेन ही प्रवेश किया जायेगा, जो कि उनमें अनुगत धर्म है । यद्यपि ज्ञानाभावत्य तो अप्रमाण परामर्श की भांति प्रमाण परामर्श में भी रहता है। अतः उसकी व्यावृत्ति के लिए ऐसा कहा जा सकता है कि स्वनिरूपिताप्रामाण्यनिष्प्रकारताविरूपितसामानाधिकरण्यविशिष्टविशेष्यताराम्बन्ध से ज्ञानाभावत्वं एतत्कार्यताव कर्म कोटि में निविष्ट है। इसको सष्टता इस तरह है अयं परामर्शः अप्रामाण्यवान् इस ज्ञान में प्रकार है अप्रमाण्य और विदोष्य है परामर्श । एवं जिस आत्मा में समयाय सम्बन्ध से परामर्श ज्ञान रहता है उसीमें समवाय से उपर्युक्त अप्रामाण्यज्ञान भी समवाय सम्बन्ध में रहता है। मतलब कि दोनों समानाधिकरण है। अतः अप्रामाण्यज्ञान स्वनिरूपित अप्रामाण्यनिष्टप्रकारतानिरूपित सामानाधिकरण्यविशिष्ट विशेष्यतासम्बन्ध में परामर्श में रहेगा । जब परामर्श गृहीताप्रामाण्यक या आहार्य न होगा तब उस राम में स्वनिरूपिताऽप्रामाण्यनिष्ठाकारतानिरूपितमामा नाधिकरण्यविशिविशेयता सम्बन्ध से ज्ञानाभाव रहेगा। अतः निरुक्त सम्बन्ध में ज्ञानाभावत्य का विमर्शकार्यतावच्छेदक कोटि में समावेश हो सकता है । अतः गांव दोष का अवकाश
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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