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* नायिकामतान्नममीक्षा * || सिन्दान्तयन्ति ।
तरेदं चिन्यं - अमितिसामय्या मानसं प्रति प्रतिबन्धकत्वस्य तत्तदिच्छारूपोत्तेजकोहेन विशिष्य विश्रान्त्याऽनुमितेर्मानसत्व एव वह्यादिमानसं प्रत्यप्रतिबन्धकत्वकल्पनया लाघवम् ।
-* नयता *स्वनिरूपितसामानाधिकरण्यकालिकोभवसम्बन्धावच्छिक प्रतियोगिताकसुख दुःखाभावविशिष्टानुमित्यादिसामग्रयाः प्रतिबन्धकसिद्धा - बनुमितनं मानसत्वमपि तु प्रमित्यन्तरत्वमेवाते दार एवं प्रतिज्ञासन्यासी नास्तिकानामिति तात्पर्येण सिद्धान्तयन्ति = नयाचिकराद्धान्तं स्थिगकुर्वन्ति । अन्ये विति प्रागनमतान्येतानि अनुसन्धेयम् ।
सम्बरसं दर्शयित प्रकरणकारः प्राह. तत्र - सम्यादिरिहविशिष्टामित्यादियामाया मानसप्रनिबन्धकत्वपक्ष, इदं निरूपमाणं चिन्यम् । चिन्ताचाजमवावेतनि - अनुमितिमामग्र्याः = मुग्वादिन्यानृमिनिमामग्रयाः, मानसं = मानसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिवन्धकत्वस्य स्वीकार घटज्ञापत्यशेन्टागन्नपि सुख-द खबिरहशिष्टदहा मितिसायमाधानदशायां घटनानगोचरमानसं न स्वत । न च घटज्ञानमानसम्म घटज्ञः नमानसला- सुब-दु:खावाहविशिष्ट मि तयारमा बाध्यतावच्छेदकतया नायं दांप इति वाच्यम्, परज्ञानमानसत्वादन गटज्ञानमानगच्छादिशून्यामिनिनामप्रतिक यतावचंदकन्न. स्वीकारे तत्तदिच्छारूपोनंजकभेदेन तागप्रतिबन्धकता या नंदान् विशिप्य विश्रान्त्या - विशंपण प्रतिबन्धकन्यस्य पर्यवसानात् अनन्नानिध्य - प्रतिबन्धकभार कल्पनापतिः । न च तनदिच्छाविरहकटम्याडम्वण्डवन निझान्न गोग्यानि वक्तव्यम, उदासीनप्रवेशाप्रवंशाभ्यां चिनिगमनाविरहेगा ग्वण्रभवस्य नत्र निबंशा सम्भवात । तदपेश्या अनुमितः मानसत्वे एवं कल्प्यमाने बन्यादिमानम = 'गमदिजन्यानलादिमानगं प्रति दहनादिवानुपादिसामन्याः स्वातन्त्र्येण अप्रतिवन्धकल्लकल्पनया लापन - पृथकप्रतिवध्य प्रतिबन्धक नागकल्पनलायम । मानसमामग्रयाः सर्वती दर्बलचन चाक्षुपादिसाभग़याः मानसत्रावच्छिन्न प्रति प्रतिबन्धकत्वस्या गरामनेवश्यकलमन्न नव प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमान चाक्षुषादियामग्राममवधानदशायां परामादप्यनुमित्यनुदयोपपना अनुमितित्वादस्तटिबध्यन यच्छेदकत्या कल्पनेन लाघवमनुमिनिवस्य मानसत्वन्याप्यत्यपक्ष ।
ननु मया नैयायिकेन नत्तन्मानसत्वावचिदन्न प्रति प्रतिबन्धकी भूतानुमितिसामग्री विज्ञापगनिधया न तनदिच्छा भावनिंदा: क्रियने येन तनदिन्छास्वरूपाजकभेदन प्रतिबन्धकत्वनंदात नादप्रतिवध्य-प्रतिबन्धकमावर विशिष्य विश्वान्त्या अनन्ततत्कल्पनापनिः स्यात् । किन्तु परामशादिसमबधान गि घटज्ञानगीचरमानसच्छादिमन्ये घटज्ञानमानसोदयोपपादनाय ननदिछीपायमानज्ञानभित्रमानस गरामादिग्रतिबध्यतावच्छेदकजानिः स्वीक्रियते नदवन्त्रि व पगमशादिप्रतिबन्धकत्वमिति न नानानिचट . प्रतिबन्धकमावकल्पनगौरवमिति नानुमितिल्यस्य परीक्षज्ञाननित्वं दोषः । अन्दा मतमान्सत्वे स धूमादिलिगकपरामर्शसमधाने उच्छवलोपस्थितघट-पटादिभानवारणाय घट- पटनानसत्वादः परामर्शप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वकल्पनन्नन्तप्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनापत्तमानरस्त्वस्य परामर्यादिटितनामीप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वकल्पनमभितमिति नैयायिकाशङ्कामपनोदयित परुगणकार आह
में मानसप्रत्यक्षा में अनुमितिअन्तगत का अर्थ न । उपदर्शिन नथायिकवक्तव्य के खिलाफ प्रकरणकार श्रीमदजी अपनी मीमांसा का प्रदर्शन करते हैं कि -- 'उक्त नैयायिकमन में यह विचारणीय है कि सुम्बादिविहानगिए अनुमिनिमामग्री का मानसमात्र के प्रति प्रतिबन्धक मानने पर तो पगमर्शकाल में घदज्ञान के मानस की इसा होने पर भी तदनन्तर काल में घटज्ञानगोचर मानम प्रत्यक्ष की उत्पनि न हो सकेगी । यदि उसकी उत्पत्ति की उपपत्ति के लिए ननन ज्ञान के मानस की इच्छा को मानरमात्र के प्रति अनुमितिसामग्री की प्रतिवन्धकता में उनेजा मान कर तत्तदिनानन्तर उपजायमान मानस से मित्र मानस के प्रति नदिच्छाविहविशिष्ट अनुमितिसामग्री को प्रतिबन्धक मानी जाय तब तो तत् नत मानगच्छास्वरूा उनंजक के भेद म अनुमिनिगामग्रीनिष्ठ प्रतिबन्धकता भिन्न बन जाने से ताइश प्रतिस्थ्य-प्रतिबन्धकमाव विशपसा में पर्पयसित = फलित हो जायेगा, जिसके फलस्वरूप अनन्न प्रतिवध्य प्रतिवन्धकभारकल्पना का गौरव नापिक के मा पा आयगा, जो अप्रामाणिक एवं असा है। इसकी अपेक्ष' अनुमति को मानम प्रत्यक्षस्वरूप मानना ही युक्तिसङगन है. क्योंकि तब अग्निचाक्षुपादिसामगीसमवधानकाल में अनिविषयक परामर्शजन्य मानस प्रत्यक्ष (अनुमितिस्वरूप) के प्रनि अम्चिाक्षुपदिसामसी का पृथक् प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकना नहीं रहती है, क्योंकि सर्व अन्यज्ञानसामग्री सं मानससामग्री दर्बल होनी है । अतः अनुमिनि को मान्स साक्षात्काररूप मानने पर नैयायिक को अभिमत अग्निअनुमिनि के प्रति अग्निचाक्षुपादिसामग्री की प्रतिबन्धकता के गौरव को भी अवकाश नहीं रहेगा । यदि