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________________ ६७६ मध्यमस्थावादरहस्यं स्वण्डः ३ - का. १९ * निजकत्वनिरुक्तिः कथं भवेदिति वाच्यम्, भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया समानीतजातिविशेषवतां सुखदुःखानामुत्तेजकत्वात् । न च तादृशसुख-दुःखकालेऽप्यनुमितिसामग्रीभूतपरामर्शादौ समवायेन तदभावादनुमित्यापत्तिः; सामानाधिकरण्य- कालिकोभयसम्बन्धावच्छिनतदभावस्य निवेशादिति ॐ जयलता है मानसान्यसामग्रीप्रतिबभ्यत्यात्, तंत्र मतनुमितः परीत्यादिति वाच्यम्, सुख-दुःखांदयं तन्मानसमीपजायते न त्वन्यदिति | सर्वैरपि स्वीकारात् भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया सुख-दुःखसाधारणवैजात्यस्याऽवश्यंकल्पनीयत्वे तु समानीतजातिउत्तेजकत्वं कल्पयित्वा विशेषवतां = निरुक्तरीत्या वैजात्याश्रयाणां तादृशजानिविशेषरूपेणैव सुख-दुःखानां उतेजकत्वात् विजातीयसुख-दुःखाभावविशिष्टमानलेतरसामग्रयाः मानसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमान्नानुमितिसामग्रीसचेऽपि सुखादिसमाने भोगानुपपत्तिः, उत्तेजकाभावविशिष्टप्रतिबन्धकस्याज्सन्वात् । उत्तेजकत्वञ्च प्रतिबन्धकस्य प्रतिबन्धकत्वमित्येके । प्रतिबन्धक- कोटिप्रविप्राभावप्रतियोगित्वं तदित्यपरे । प्रतिवन्धकसमवधानकालीनकार्यजनकत्वं तदित्यन्ये । कारणाभावातिरिक्तलायांभावप्रयोजका भावनिरूपितप्रतियोगित्वं तदिति केचित् । वाक्यनुकूलत्वमुतं त्वमितीतरं वदन्ति । - ननु सुखाद्यभावविशिष्टानुमित्यादिसामग्रया मानसत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतिचन्धकत्वकल्पने तु सुखादिकालेऽपि परामर्शादितो:|सुमित्यापत्तिर्दुवारेच तदानी परामर्शादिः समवायेन सुखादिविशिष्टत्वाभावात् । न हि समासेन परामशादी सुखादिकमुपजायते किन्त्वात्मन्येवेति मुखनास्तिकाशक मपाकर्तुमुपक्षिपन्ति न चेति । तादृशसुख-दुःखकाले = भागान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदसमवायसम्बन्धावच्छि वैजान्यविशिष्टसुख-दुःखसमवधानं अपि अनुमितिसामग्रीभुतपरामर्शादी समवायेन तदभावात् = प्रतियोगितासुख-दुःखाभावसत्त्वान् उत्तेजकानावविशिष्टप्रतिबन्धकसत्येन अनुमित्यापत्तिः = अनुमित्युदयापत्तिः, उपलक्षणात सुखादुःखमानससाक्षात्कारानुपपत्तिश्च तत्र सुख - दुःखाभाव-विशिष्टानुमित्यादिसामग्री प्रतिवध्यतावच्छेदकीभूतस्य मानसत्त्वस्य सत्त्वादिति शङ्कनीयम् सामानाधिकरण्य- कालिको भयसम्बन्धावन्चिन्नतदभावस्य स्वसामानाधिकरण्य- कालिको भयसम्बन्धाबच्छिन्नप्रतियोगिताकस्य सुख-दुःखाभावस्य मानसत्वावच्छिन्नप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकताविशिष्टानुमित्य दिसामग्रीविशेषणकुक्षी निवेशात्। सुखादिजन्मकाले परामर्शादिः समवायन सुय्यादिविशिष्टत्वनिरहेऽपि स्वसामानाधिकरण्य-स्वसमानकालिकन्याभ्यसम्बन्धेन सुखादिविशिष्टत्वेन सामानाधिकरण्य- कालिको नयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकसुखाद्य भाव विशिष्टपरा मलिक्षणस्य मानसप्रतिबन्धकसत्त्वान्नानुमित्यापत्तिनं वा भांगानापतिः । न च सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक - मुख्याद्यभावस्यैव प्रतिबन्धककुक्षावृतंज का भावविधयाऽस्तु किंकालिकसमावेशेनेति साम्प्रतम्, सामानाधिकरण्येन विनष्टसुखादिकमादाय सुखादिजन्मविरहकालेऽपि परामर्शादिसमवधानादनुमित्यनुदात्तेः । न च तर्हि कालिकावच्छिन्नतदभावस्याने जका भावत्वमस्त्वित्या कणीयम्, सुखमादाय सुखादिशून्यर्भवेऽपि धूमादिपरामर्शदशायामनलानुमित्यनापत्तेः । इत्यच समवायेन मानसत्यावच्छिन्नं प्रति वैजात्यविशिष्टसुखाद्यभावविशिष्ट अनुमितिसामग्री को प्रतिबन्धक मानने से अनुमिनिसामग्री के समय सुख-दु:खोदय होने पर उनके भांग की अनुपपत्ति नहीं हो सकती है । यदि यहाँ वापस यह शङ्का हो कि 'भांगान्यज्ञानप्रतिबन्धकता अव जाति के आश्रय सुख या दुःख के उदयकाल में भी अनुमितिसामग्रीस्वरूप परानी आदि में तो समवाय सम्बन्ध से सुख या दु:ख नहीं ही रहते हैं । अतः परामर्श तो सुख-दुख के अभाव से विशिष्ट होने से तब अनुमिति के उदय की आपत्ति आयेगी और तब समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक सुखाद्यभावात्मक उत्तेजकाभाव से विशिष्ट परामर्शादिस्वरूप प्रतिबन्धक के होने में भांग की अनुपपति हो जायेगी तो इसका समाधान यह है कि प्रतिबन्धक की कोटि में जिस सुखाथभाव का उत्तेजकाभाववा निवेश किया गया है वह समवायसम्बन्धावच्चिन्नप्रतियोगिताक नहीं किन्तु सामानाधिकरण्यकालिकोभयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभिमत है । जिस आत्मा में सुख-दु:ख रहते हैं, उसी आत्मा में परामर्शदि रहने पर यह सामानाधिकरण्य और कालिक उभय सम्बन्ध में उत्तेजकीभूत सुखादि से विशिष्ट हो जाने से सामानाधिकरण्य- कालिकोभयसम्बन्धावच्छिन्न सुखाग्रभाव में विशिष्ट परामशांतिस्वरूप प्रतिबन्धक न होने से तादृश गुरुख-दुःखकाल में परामगोष्टि होने पर भी भोग की अनुपपत्ति नहीं है । जब चैत्र में समवाय में सुख-दुःख नहीं रहेंगे नव चैत्रसमवेत अनुमितिसामग्री कालिकसम्बन्ध से सुखादिविशिष्ट बनने पर भी | सामानाधिकरण्य- कालिको भयसम्बन्धेन सुखादिविशिष्ट नहीं होने से तादृशोभयसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका सुखाद्यभाव से विशिष्ट हो जाती है। इस तरह नय उत्तेजकाभावविशिष्ट प्रतिबन्धक की उपस्थिति होने से तब सुखादि के भांग की आपत्ति या अनुमिति के उदय की अनुपपत्ति नामुमकिन बन जायेगी। हमारी इस रामकहानी का सारांश यह है कि अनुमिति मानसप्रत्यक्षात्मक नहीं किन्तु प्रत्यक्षविलक्षण प्रमान्तरस्वरूप ही है । 2
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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