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________________ ६.४४. न यमस्याद्वादरहस्य ग्वणः ३ - का.११ * कारमात्रवृत्ति बात: कार्यतावचं टकलांनयमानहाकारः * तत्तदिच्छोपजायमानभिने प्रतिबध्यतावच्छेदकजातिस्वीकारस्तु परामर्शजन्याभोऽपि भजमान इति ल वढ्याद्यनुमितिसामग्रीकाले उच हवलोपस्थितघटादिमानवारणाय मानसत्वस्य तत्प्रतिबायतावच्छेदकत्वकल्पनौचित्येनानुमितेरप्रत्यक्षत्वाभिधानं युक्तमिति । न च ताजात्यच्छेिनं प्रत्यनुगतकारणकल्पनापत्ति:, कार्यमाभवृत्तिजाते: कार्यतावच्छेदकत्वनियमे मानाभावात् । - जयतता - तनदिच्छापजायमानभिन्ने प्रतिवध्यतावच्छेदकजातिस्वीकारः = परमशांदिनिपिनतिबध्यतावच्छेदकरय बजान्यस्य नैयायिकन क्रियमाणोऽभ्युपगमः तु अनुमिनेमान्सत्वपक्षेपि परामर्शकाल -मृङ्खला म्धिन-घटादिमानसवारणाय परामर्शजन्यभिन्नज्ञाने = भांग-परामर्शजनानंतरज्ञान अपि मथा परामदादिप्रतिबध्यनारदकरजात्ययकार: भजमानः = क्रियमाणः तुल्ययांगक्षेम इति इना: न वठ्याद्यनुमित्तिसामग्रीकाले उसलोपस्थितघटादिभानवारणाय – ग्यत-त्रापस्थितानां घटापटादीमामालादिमानसामिती भाननिवारणकृते, मानसत्वस्य ततिवध्यतावच्छेदकत्वकल्पनीचित्यन - परामदांदिघटित्यामग्रगानिस्पिनप्रतिरभ्यतानिस पिनायनंदकत्वस्वीकारण्य युक्तत्वन, नयायिकन क्रियमाणं अनुमितेरप्रत्यक्षत्वाभिधानं यक्तिमिति । प मित्यत्रान्वेनि । उच्छलोपस्थितघटादिगोचरस्य मानसन्य भोग-पतमजिनाजानत्वन परामर्शप्रिनिन यतावच्छदक -बजात्याकान्तत्वान्न परामर्शोत्तरमानसानुभिनिकाले उदयः । तनशानुमितमानमपि न प्रानुक्तानन्तप्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाबकल्पनापतिः । मन परामर्शजन्यभिन्नज्ञाने नुमित्यादिसामीप्रतिवध्यनारच्छदकजानिम्वीकार नाशवनात्यायच्छिन्नं प्रनि अनुगनका राणताबन्छ कजानिम्वीकारे तादृशत्रै जान्यावच्छिन्नं प्रति अनुगत कारणतालेटकायचिवकल्पनाप्रमशा दुवा: । न च निबन्धकाभावविधया परामशादिसामनयभारकूटस्था खण्डत्वन करणत्यमिनि शनीयम उदार्मानप्रवेशाप्रशाभ्या विनिगमकामांनाःग्वा भावतेन कारणत्वाय गाद्विनि प्रागुक्तत्वात् । न च परमशांदिप्रतिबध्यतावच्छंदवनात्याशिष्टममितियामालाले उदहलोपस्थितघटादिमानसाना काणचनुगना जानिगरपाण्यापाधिर्वा सम्भवति, यन लदवच्छिन्नकारणता निम्पनकायनाचच्छेदकत्व गमशादिप्रतिबध्यतावच्छेदकजानः स्यादेति नायिकामामाकर्दनुपक्षिाति न चेति । तज्जात्यवच्छिन्नं = 'परामर्शादिशनिबध्यतावच्छेदकवजात्यायन्टिन प्रति अनगतकारणकल्पनापत्तिः = अनुगतानतिग्रसकनकारगत बदकावच्छिन्नकलपना पनि:, तत्कारणम्वनुगतकारणतावच्छेदकस्वीकारापनि रित्यत्रापादनतात्पर्यम् । नकिरा हेतुमाह - कार्यमात्रवृत्तिजातेः - नित्यायनिसकलकार्यवृनिजातित्वावन्दन, कार्यतावच्छेदकत्वनियम मानाभावात, विपक्षबाधकनकविरहान । नती न पसनदशादिजन्यभित्रज्ञान नयायिक की और से पचाव के लिए पह कहा जाय कि -> 'हम नत तन् ज्ञान की मानमंत्रछा के अनन्तर जायमान ज्ञान से भिन्न ज्ञान में चाक्षपादिप्रतिबध्यताअवच्छरक जातिविशेप का स्वीकार करते है और नदवच्छिन्न के प्रति चाक्षुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक मान कर ही अग्निचानुपादिसामग्रीकाल में अग्नि की अनुमिति की अनुत्पत्ति और घटज्ञानाचर मानम की उत्पत्ति की सहति कर सकते हैं 1 अतः अनन्न प्रतिवथ्यानिबन्धकभाव की कल्पना का गौरव निम्बकाश है' -सब ना अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप माननेवाले भी परामर्शजन्य ज्ञान से भिन्न ज्ञान में चाक्षुषादिनामग्री की प्रतिवायनावदक जानिविशेप का स्वीकार करते हुए परामशोंत्तरकालीन दहनज्ञान में पग़मर्शकाल में स्वतन्त्रापस्थित पदादि के अनगाहन की उपपनि कर सकते हैं, क्योंकि तादृया घटमानस परामर्शजन्यज्ञान से भिन्न है। अतपन अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक माननेवाले विद्वानों के प्रति नैयायिक का यह वक्तव्य भी कि → 'पगमर्शजन्य ज्ञान को मानम साक्षात्कारुप मानने पर ता अग्रिआदि की अनुमिति की सामग्री उपस्थित होने पर स्वतन्त्र उपस्थित घटादि का परामर्शजन्यज्ञान में अवगाहन मानने की आपनि आयंगी, जिसके निवारणार्थ घटपटादिमानसत्य को परामर्शादिप्रतिवध्यतावच्छेदक मानने पर प्रागक्त अनन्त प्रतिवध्य-प्रतिवन्धकभार के स्वीकार का गौरव आयेगा, जो अप्रामाणिक एवं असह्य है। अत: लाघवसहकार से मानसत्व को ही परामशादिप्रनिवभ्यतावच्छंदव मानना युक्त है, जिसके फल में अनुमिति प्रत्यक्षभिन्न प्रमा हो जायेगी, अनुमित्तित्व परोक्षवृति बनेगा' - अगदत है, क्योंकि अनुमिति को मानम साक्षात्काररूप माननेवालों ने परामर्शजन्यभिन्न ज्ञान में परामर्शाप्रिनिबध्यतावच्चंदक जाति का स्वीकार किया है, जो नादमा घटादिमानस में भी रहने की वजह अग्रिपरामर्शोत्तरकालीन अग्रिअनुमिति के काल में नावापदातिमानस की अनुत्पत्ति की उपपनि हो सकती है, तब क्यों अनुमिति को परोक्ष रद्धि मानी नाय ? अतः अनुमिति को मानम प्रत्यक्षम्प मानने में कोई दोष नहीं है। यहाँ नैयायिक का यह बस्तन्य कि → 'परामर्शजन्यज्ञान में भिन्न मकल ज्ञान में पगमादिप्रतिवध्यनावच्छेदक जानि का स्वीकार करने पर तादृश जाति से अवछिन्न = विशिष्ट के प्रति अनुगन कारण की कल्पना की आपति आयेगी । प्रतिवन्धकाभावविधया धर्मालाकपगमादिअभार का नावावजात्यअवञ्छित्र के प्रति कारण नहीं माना जा सकता,
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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