SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * किरणावरीक गंदयनमतनिरास: अप व्युत्पत्तिः सदव्युत्पनीयबोधहेतृत्वग्रहः । तत्त्वच पदार्थे धर्माचन्यतमभिमाऽतादातम्यतवृतिभेदाऽग्रतियोगित्वोभयसंसर्गकशाब्दबोधं प्रत्युक्तानुपूर्वीज्ञानत्वेन । तेन विपरीतव्युत्पास्याऽन्यथाबोधेऽपि न क्षतिः ।। अन्यत्र तु 'बाह्मणेभ्यो दधि दातव्यं, कौण्डिन्याय न दातव्यं', 'बाह्मणेभ्यो दधि न -* जयलता *नान्तर्भावयिष्यते, अनन्तभबि वा द्रव्यत्वं तस्य निराकरिष्यत इति तात्पर्यम् । अत्र = विभागवानये, व्युत्पतिः = न्यूनाधिकसंग्ल्यान्यवच्छेदसाधकव्युत्पनिपदप्रतिपानः, सद्व्युत्पन्नीयाधहेतुत्वग्रहः = सम्यग्ज्युतान्त्रपषीयान्वयबोधनिष्ठकार्यत्वनिरूपितकारणत्वोधः, तत्त्वं = समीचीनव्युत्पन्नसमतदाब्दबोधहेतुत्वं च पटार्थे | * उद्देश्यतावच्छेदकावन्लिन्ने धर्माद्यन्यतमभिन्नाऽतादात्म्य - तदनुत्तिभेदाऽप्रतियोगित्वोभयसंसर्गकशाब्दबोधं प्रति उकानपूर्वी ज्ञानत्वेन = 'च्याणि धर्माधर्माकाजीवकालपुद्गलाः' इत्याकारमानुपूर्वी ज्ञानत्वन । परिमन शान्दवांचे अंदपनावच्छेटक द्रव्यत्वावच्छिन्न विधेयस्य धर्माद्यन्पत्तमभिन्ना तादाम्प-नवृत्तिभेदाप्रतियोगितामा सम्बन्ध: संगर्गमर्यादया भासत नादावादीधवावच्छिन्न प्रति निरुजानुपूर्वीझानत्वंन कारणत्वम् । न हि द्रव्यत्वावच्छिन्न धर्माद्यन्यत्मनिम्नमित्रत्वं एमांदिवृनिभेदा:प्रनयोग वा गधितम् । कार्यतावच्छेदकगंसर्गश्च न केवलं ममवायः किन्तु सम्यग्व्युत्पन्नएम्पानुयोगिकसम्यायः, कार्यनम्वछंदकधाकोटी तन्त्रको तु गौरवम् । नत्फलमाह - तेन = सम्यग्युत्पन्नानुयोगिकनमबायस्य आनुपूर्व जानकार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वन, विपरीतव्युत्पन्नस्य = प्रदर्शितविल तिमत. पास', मसोमेडशि - न्यूधिकरल्यान्यवच्छंदानवनाहिशाब्दबोधोत्पाद कपि, न क्षतिः = न व्यभिचारः, प्रदर्शितकार्यकारणभावानाक्रान्तलान. व्युटानी निरुक्तहत्त्वग्रहलस्य बाधितत्वत । इत्या विभागवाक्यस्थले विशेषविधि-निषेधयो: दोपनिषध नुज्ञाचोधजनकत्वन न्यूनाधिकसंग्शययच्छंदवावकामगनपायमेव प्राचीनगीत - मीयदर्शनाभिप्रायानुसारेणेति फलितम् । वस्तुतरन्येवमभ्युपगमे 'द्रयाणि पृधिव्याजावग्याकाहाकालदिंगात्ममनारिस नवव' इतिगातमायद्रव्यविभागवावगे ‘नवर' इनि व्यर्थं स्यात् । पनेन यद्यपि विभागस्य न्यूनाधिकारख्याव्यवच्छेदपरत्वादेव न्यल लयं तथापि स्पष्टार्थ नवग्रहणं, सरकारश्च विप्रनिपनिनिराकरणार्धः' (कि.ग.) इति उदयनवचनमपि प्रत्यारख्यातम. सदव्युतान्नस्य तसिद्धान्तानुसरंण विभागवाश्याय नबत्वलाभात, विप्रतिपत्तिनिराकरणसम्नवाच्च । न हि संसगमर्यादया तत्प्रत्यये किञ्चिद्बाधकमम्नान्यस्वरसं हदि निधाय 'आहुः' इत्युक्नमिति ध्येयम् । अन्यत्र - विभागवाक्यादन्यत्र विशेषविधिनिषेधस्थले । करणाकरणविकल्पप्रसक्त्येति । युगपद विधिनिषेधविकल्पापल्या । सम्पक रीति से व्युत्पन्न पुरुप के बांध की कारणना का ज्ञान, जिससे विभागवाक्य में न्यूनअधिकसंख्याप्रतिषेधकत्व मिद्ध होना है । समीचीनव्युत्पत्रपुरुषसम्बन्धीज्ञानजनक आनुपूर्व ज्ञान है । आनुपूर्वी का मतलब है पदों का पूर्वोत्तरभाव । भानुपूर्व ज्ञान में रहने वाला तत्त्व - सम्यग्व्युत्पत्रपुरुपीयशान्दवोधजनकत्व प्रदर्शित आनुपूर्वी ज्ञानस्वरूप में है। आनुपूर्वी ज्ञान का जो कार्यभूत शाब्दबोध है वह विषयतासम्बन्ध में पदार्थ में उत्पन्न होता है । वह शाब्दबांध पदार्थपत्तिधमांदिअन्यतमभिन्नाऽताटात्म्य और पदार्थवृत्तिभेदाप्रतियोगित्त्व उभयसंसर्गक होता है। 'द्रव्याणि धर्मधर्माका-जीव-काल-पुद्गलाः' यहाँ विवक्षित आनुपूर्वी ज्ञान से उपर्युक दाब्दबोध होने में कोई गध नहीं है, क्योंकि द्रव्यपदार्थ द्रव्य में धर्मादिअन्यतमभिन्न गुणादि का अनादात्म्य = भेट रहना है और द्रव्यपदार्थ में रहनेवाले भेट - गुणभेद आदि की अप्रतियोगिता भी रहती है। इस तरह तादृशाउभयमनगंक शाब्द के प्रति प्रदर्शिन आनुपूज्ञानत्वेन कारगता का ज्ञान ही व्युत्पति है, जिससे विभागवाक्य में न्यून अधिकमयान्यवच्छंदकारणना सिद्ध होती है। ऐसा कहने से जो पुरुप सम्पग्व्युत्पन्न नहीं है किन्तु विपरितव्युत्पत्र है. उसे अन्यथा में प्रदर्शित झान्ट बांध से भिन्न = विलक्षण शाब्दबोध हो तो भी कोई दोर नहीं है, क्योंकि वह चिलवण शाब्दबोध उस व्युत्पनि का कार्य है। नहीं है । यह विभागवाक्यस्थल की रात हुई। मगर जो वाक्य विभागवाक्य नहीं है फिर भी विधि-निपंध करता है वहां करण-अकरण विकल्प सं सामान्यवाचक पद की विशेष अर्थ में लक्षणा होती है। जैस 'ब्राह्मणेभ्यो दधि दातन्यं, कौण्डिन्याय न दातव्यं' इस वाक्य से ब्राह्मणों को दही देने का विधान और कौण्डिन्य को नहीं देने का निषेध होता है । मगर कौण्डिन्य को दधिदान भी प्राप्त होता है, क्योंकि वह ब्राह्मण तो है ही। कौण्डिन्य को जो दधिटान प्राप्त था उसका निषेध करनेवाले, वचन से ब्राह्मण पद की कौण्डिन्यभिन्न ब्राह्मण = ब्राह्मणविशेप में लक्षणा होती है, अन्यथा वाक्य के पूर्वार्ध से करण =
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy