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________________ * स्वावाद संवाद सम्यकृताऽप्युपाधिभेदेव राचसा चादिसमावेशाभिधानात् । अत्र हि 'उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारा' (स्या. मं. का. २४. पु. ३५१ ) इति व्याख्यातम् । न चैवं ऋजुमतं कथमनुमतमिति वाच्यम्, परमतमनभ्युपगम्य समाधानमात्रेणैव ऋजुत्वमित्यभिप्रायात् । कार्यद्वारा उभयरूपवस्त्वप्रतीतेस्तदसिद्धिः, एकस्य करणाकरणविरोधादित्यपि गम्, * यता सदर्थेष्वसत्त्वं न विरुद्धम् । वाच्यतयोश्च वचनभेदं कृत्वा योजनीयम् । उपाधिपहिले त साच्य अपि न रुि । अवमत्राभिप्रायः परस्परपरिहारेण से वर्तते तयो: शीतोष्णव सहानवस्थानलक्षणां विरोध: न वार्यत्रम्, सत्तासञ्चयोरितरेतरमविष्वरभावन वर्तनात् । न हि घटादीन् परित्य वर्तन पररुपेणापि सन्त नथा व तद्व्यतिरिक्तार्थान्तराणां नैरर्थक्यम तेनैव त्रिभुवनार्थसाध्यार्थक्रियाणां सिद्धेः न चासवं सत्वं परित्य वर्तते, स्वरूपेणाऽप्यसत्ताप्राप्तः । तथा व निरुपाख्यत्वात्सर्वन्नति । नदा हि विरोधः स्वात् पयेोपाधिकं सत्तमन्वयात् । न चैवम् यतो न हि नैवांशेन सत्वं तेनैवाऽसच्वनपि किन्त्वन्योपाधिकं सत्त्वम्, अन्योपथिक पुनरसत्वम् स्वरूप हि सत्त्वं पररूपेण चासत्त्वम् । दृष्टं कस्मिन्नेव चित्रपटावयविनि अन्योपाधिकं तु गीलत्वं अन्योपाधिकातर वर्णाः । नीलवं | हि नीलरागाद्युपाधिकं चान्तिराणि च तनद्रञ्जनद्रव्योगाधिकानि । एवं करले तत्तदवगोपाधिकं वैचिव्यवसेयम् । 'न चैभि: द्रष्टान्तेः सत्त्वासत्त्वयोर्मिनदेशत्वप्रामि चित्रपटाद्यवयविन एकत्वात् नवाऽपि भिन्नदेशत्वासिद्धेः । कथञ्चित्यक्षस्तु दृष्टान्तं दार्शन्ति न स्याद्धादिनां न दुर्लभः । एवमयपरिषदासनः तर्हि एकस्यैव पुंसस्तदुपाधिभेदात् पितृत्व-पुत्रव मातुलत्व भागिनेयत्व पितृव्यत्य भ्रातृव्यत्वादिधर्माणां परस्परविरुद्धानामपि प्रसिद्धदर्शनात कायम एवमवकल्पन्वादयोऽपि बान्या इति (स्या. मं. २४.३.१) इति । न चेति । वाच्यमित्यनेनान्यवः । एवं = अवक मेटेने विरुद्ध धर्मगलरवीकारे जवस्तु सार्वजनीन प्रतीतिस्वारस्यादेव भेदाभेदयोदकभेदे विनापि न विरोधः (त प्रथमः खण्डः पू. १६४) इति पूर्वक ऋजुमतं कथं अनुमतं १ इति वाच्यम् परमतं = एकान्नवादं अनभ्युपगम्य, समाधानमात्रेणैव न तु स्वसिद्धान्ताविष्करणेनापि तेषां ऋजुत्वमित्यभिप्रायात् । कार्यद्वारा उभयरूपवरत्वप्रतीतेः करणकरणां भवस्वरूपवस्त्वननुभवात् तदसिद्धिः भेदाभेदो भयात्मकवस्त्वसिद्धिः एकस्य एवं वस्तुन एकदा करणाकरणविरोधादिति कस्यचिद दृपणभावनं अपि मन्दम् । ननु कारणं पर्यायतया कार्य करोति न तु द्रव्यत्वेन इति करणाकरणविपरिहारः सुकर एवेति चेन ? न अत्रापि रुप्याचतागत् ܕ ܟ © 2012 VRY reglaarbach (+ व्याख्या करते हुए कहा है कि > उपाधियाँ यानी अवच्छेदक अथवा अंदा प्रकार <- । यहाँ यह शङ्का नहीं करनी चाहिए कि यदि स्याद्वाद में अच्छे से ही एकत्र भेट, अव भादि का समावेश संमत है तब पूर्व में (देखि प्रथम खण्ड पृष्ठ- १०४) प्रदर्शित जुमत कैसे स्याद्वादी को अभिमत होगा ? क्योंकि वहाँ तो बिना अवच्छेदकभेद के सार्वजनीन प्रतीति के स्वरस के बल पर ही भेद और अमेज का समावेश प्रतिपादित है" - यह शंका इसलिए असंगत है कि वहाँ जो कहा गया था वह स्वाद के सिद्धान्त का प्रदर्शन नहीं है, केवल एकान्तवाद का स्वीकार किये बिना समाधान मात्र को बताने का प्रयास है कि प्रतीति के बाद से ही भेदाभेद एकत्र समाविष्ट हो सकते हैं । इसलिए तो उस मत के प्रदर्शकों का 'ऋजु ऐसा कह कर उल्लेख किया गया था । इति । यहाँ कुछ विद्वानों का स्यावाद के खिलाफ यह तय है कि = कार्य के द्वारा वस्तु के करण चकरण उभयस्वभाव की प्रतीति नहीं होती है, केवल करणस्वभाव की ही प्रतीत होती है। बिना अनुभव के करण- अकरण स्वभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है क्योंकि एक ही नर्मी में कारण और करण का एक काल में समावेश करने में विरोध भी जागृत है । अतः करणाकरण- उभयस्व की एक में सिद्ध करने का मनोरथ केवल मनोरथ ही रहेगा <- मगर यह कथन आगे बताये जानेवाली युक्ति से निग्रत हो जाने से भन्द तत्यहीन है । अन्य विद्वानों की इसके समाधान में यह उक्ति है कि कारण पर्यायात्मनः कार्य को उत्पन्न करता है और उत्यात्मना कार्य को उत्पन्न करना
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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