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________________ * मीमांसकमते शब्दत्वस्यैव कार्यतायच्छेदकता ** नानाहेतुताकल्पने तवैव गौरवम् । एतेन तव स्वावच्छेदकेत्यादिसम्बन्धेन हेतुता, मम तु अवच्छेदकतयेति लाघवमपि अपास्तम्, तथापि चैत्रत्वाद्यन्तर्भावेनाऽनन्तकारणता कल्पनागौरवाच्च । ॐ जयलता है = विजातीयत्रायुसंयोगकार्यतावच्छेदकमिति । चैत्रादिगतचेत्रीय मैत्रीयशुकीया। दिककार-स्वकारण भृतिप्रत्यक्ष विषयभूतवर्णानां विलक्षणले प्रतीतापि अभिन्नत्वात् व्यञ्जकभेद एवाऽभिन्ने शब्दे आरोप्यते नीलपीतरक्तकाचशकलपरावर्तितप्रकाशाभिव्यक्ते एकस्मिन्नेव शुक्ले पटे क्रमश: नीलत्व- पीतत्वादिप्रत्ययवत् । तनश्च मीमांसकमते शब्दत्वमेव निरुक्तसम्बन्धेन तत्कार्यतावच्छेदकं, किन्तु कत्वायवच्छिन्नं प्रति कत्ल - खत्व-गत्वाद्यवच्छेि नानाहेतुताकल्पने विज्ञानीयवायुसंयांग चीणा विष्णुमुदङ्गाकाशाद्यशब्दप्रभूत्यनेकविश्वकारणताकल्पनावश्यकत्वं तव = terrer एवं गीवम् गीतमीयदर्शने ककार खकार गकारादीनां विजातीयत्वात कार्यतावच्छेदकभेदे कारणभेदस्य न्यायप्राप्तत्वात् । = एतेन = शब्दजन्यत्वपक्षे कत्रखत्वाद्यवच्छिन्ननानाहेतुना कल्पनागी स्वप्रतिपादनेन, अनास्तमित्यनेनाख्यान्वयः । तत्र मीमांसकर स्वावच्छेदकेत्यादिसम्बन्धेन = स्वावच्छेदकश्रेयसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धन, विज्ञातीयवायुसंयो गाय हेतुता या विजातीयवायुसंयोगस्य हेतुता इति लाघवं इति गीतमाचवचनं अपि अपास्तम्, तथापि = मीमांसकमते विजातीयवायुसंयोगकारणतावच्छेदकसम्बन्धगौरवेऽपि ककारादिनानाशब्दजन्यत्वपक्षे विजातीयवायुसंयोगकार्यतावच्छेदककोटी चैत्रत्वतायन्तर्भावेन अनन्तकारणताकल्पनागौरवाच चैत्रीपककारे यो विजातीयवायुसंयांगां हेतुस्तद्भिस्यैव विजातीयवायुसंयोगस्य मैत्रीयककारहेतुत्वं ततोऽतिरिक्तस्यैव विज्ञातीयवायुसंयोगस्य शुक्रककारकारणत्वमित्येवं कार्यकोटिप्रविष्टानां चैत्रादिव्यक्तीनामानन्त्येनाऽनन्तकारणताकल्पनमप्यतिरिच्यते राजन्यत्वनये । एवं चैत्रीय- मैत्रायादिखकारगकारादावप्यनन्तहेतुहेतुमद्भावकल्पनमपि द्रष्टव्यम् । वाच्दव्यस्यत्वनये तु स्वाश्रयल किलविषयितासम्बन्धेन त्वानिं प्रति स्वावच्छेदकश्रीचसंयुक्तमनः प्रतियोगिकविजातीयसंयोगसम्बन्धन विजातीयवायुसंयोगस्य हेतुतेनि एक एवं कार्यकारणभाव: स्वीक्रियत इति अतिलाघवं मीमांसकानां कार्यताकोटी कत्व खत्वादीनां चैत्र-मैत्रादीनाञ्च प्रवेशात् । ५१.५ A ननु समानविषयकककाराद्यनुमितेः श्रावणसामग्रीप्रतिबध्यत्वं सर्वसम्मतमेव किन्तु सीमांसकसतं शब्दस्य नित्यन विजातीयवायुसंयोगस्य ककारादिश्रावणसामग्रीघटकत्वकल्पन नैयायिकमते तु शब्दस्य जन्यत्वेन विजातीयवायुसंयोगस्य न ककारादिश्रावणसामग्रीघटकत्वं किन्तु ककारादिसामग्रीघटकत्वमिति समानविषयकककाराद्यनुमिनित्वावच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धसम्बन्ध से केवल शब्दत्व ही विजातीय वायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म होता है, क्योंकि हम मीमांसकों की यही मूल मान्यता है कि चैत्रीय विजातीयचायुसंयोग मैत्रीय विजातीयवायुसंयोग आदि से अभिव्यक्त होनेवाले क, ख, ग आदि वर्ण सर्वत्र सर्वदा सब के लिए एक ही है । भिन्न भिन्न व्यंजकों से अभिव्यक्त होने पर भी उसमें कोई विलक्षणता नहीं है। यह ठीक उसी तरह संगत हो सकता है जैसे अन्धकार में रहे हुए एक ही श्वेत पद की चेत, रक्त, मील, पीत आदि भिन्न भिन्न रंगवाले प्रकाश से विलक्षण अभिव्यक्ति होने पर भी अभिव्यक्त पट तो एक ही होता है । इसलिये शब्दव्यस्यत्वरक्ष में उक्त सम्बन्ध से विजातीय वायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक केवल शब्दत्वनामक एक ही धर्म होगा, जब कि नानाशब्दवादी नैयायिक के शब्दजन्यत्वपक्ष में उसका कार्यतावच्छेदक कन्व खत्व, गन्त्र आदि अनेक धर्म बनेंगे । अतः नैयायिक मत में ही अनेक कार्यकारणभाव के स्वीकार का गौरव प्रसक्त होगा । शब्दाऽनित्यत्वपक्ष में कत्व, स्वत्व आदि अनेक कार्यतावच्छेदक धर्म के स्वीकार से नानाविध कार्यकारणभाव की कल्पना का गौरव प्रसक्त होने की वजह यहाँ यह शका कि "मीमांसक को तो स्वावच्छेदकश्रोत्रसंयुक्त. मनः प्रतियांगिकविजातीयसंयोगसम्बन्ध से विजातीय पचनसंयोग की कारण मानना होगा मगर नैयायिक को तो केवल अवच्छेदकतासम्बन्ध से विजातीय वायुसंयोग को कारण मानना होगा। मतलब कि नैयायिकमत में विजातीयसंयोगनिए कारणता के अवक सम्बन्ध में लाघव है और मीमांसक के मत में गांव है" भी निराधार हो जाती है, क्योंकि विजानीयवायुमंयोगकारणतावच्छेदक सम्बन्ध में गौरव मीमांसक मत में अनिवार्य होने पर भी नैयायिकमत में विजातीयवायुसंयोग का कार्यतावच्छेदक धर्म केवल कव खत्व आदि न होकर चैत्रीयकत्व, मैत्रीयकत्व, चैत्रीयस्त्रत्व मंत्री आदि होगा । मतलब कि कार्यतावच्छेदक कोटि में चैत्रादि अनन्त व्यक्तियों का निवेश होगा | मगर तव कार्यता अवच्छेदक धर्म चत्रादि अनन्त व्यक्तियों के भेद से भित्र हो जाने से उनके कारणतावच्छेदक धर्म भी अनन्त बनेंगे, जिसके फलस्वरूप नैयायिकमत में अनन्त कार्यकारणभाव की कल्पना करनी होगी। ऐसा गौरव मीमांसकमत में नहीं है, क्योंकि चैत्र, मंत्र आदि अनन्त व्यक्तियों का एवं कत्व, स्वत्व, गत्व आदि अनेक धर्म का कार्यतावच्छेदकधर्मकुक्षि में प्रवेश आवश्यक नहीं है। मीमांसकमत में तो केवल एक ही कार्यकारणभाव मानना होगा, वह यह कि स्वाश्रयलोकिकविपयितासम्बन्ध से शब्दत्वावच्छिन्न के प्रति स्वावच्छेदकत्रसंयुक्तमन: प्रतियोगिक विजातीयसंयोग सम्बन्ध में विजातीय वायुसंयोग कारण है। अतः मीमांसकमत में अत्यन्त लाघव है यह फलित होता है ।
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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