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________________ ६.२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः ३ . का... * नीलकपटमलावदनम् कल्पने गौरवमिति । अव्याप्यवृत्तिरूपस्वीकारे नीलपीतवति अस्जिसंयोगाझीलताशात्तदवच्छेदेन रक्तं न स्यात्, रूपं प्रति रूपस्य प्रतिबन्धकत्वादित्याहुः । परे तु तत्र व्याप्यवृत्तीत्येव नील-पीतादीन्युत्पद्यन्ते, नीलादिकं प्रति नीलेतरादिप्रति * जयलता - देव न पीनकपालाबन्छेदन तदापनिः । एतेन बिनतादृशानियध्य-प्रतिबन्धकभावं तवास्वाभायाः नयांहादिनि प्रत्युकम्, अवच्छेदकतायाः कारणा नियम्यत्वाऽभ्युपगमादिनि विभाव्यत तदा तु चित्रं प्रत्यव प्रतत्प्रकरणप्रदर्शितरीत्या नानाकारणकल्पने चित्ररूपवादिमतं गौरवमिनि । अत्र अतिरिक्तचित्ररूपादिनस्त अव्याप्यवृत्तिरूपस्वीकार = नानाम्पवदययवारब्धघंटच्याप्यनिनीलपांनादिनानारूपस्वीकारे नीलपीतवति घंटे नीलकपालावच्छेदन सारूपजनकात् अनिसंयोगात् नीलनाशात् = कपालनालरूपनशानन्तरं तदवच्छंदेन = पाकनाशितनीलकपालावच्छेदन घटे समवापन रतं मां न स्यात् = जायेत, समवायन रूपं = रूपत्वावच्छिन्नं प्रति समवायन रूपस्य प्रतिवन्धकत्वात् । बटे पीतकपालायच्छेदेन सभवाचन पातरूपस्य सत्चात् समवायन रक्तरूपं नोलानमहनीति भावः । न च तदवच्छिन्नरूपे तदवच्छिन्नरूपस्य प्रतिबन्धकत्वान्नायं दोष इति वाज्यम, प्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावावशेदककक्षावच्छंदकविशेषतो तद्दे प्रतिनध्यप्रतिबन्धकभावनदान्महागौरवात् इत्याहः । अधावच्छिन्ननालादी नीलानारादिषट्कमवयवगतमययविगतश्च हेतु : रत्तनीलारब्ध घट रक्तनादाकपांकन व्याप्यवृनिनी. लोत्पत्तिदशायां चावयविनि न नीलाभाव इति न तनावच्छिन्ननीलोत्पनिः, नीलमाधारब्ध पाकन क्वचिद्रकांपना च प्राकनालनाशादेवावच्छिन्ननालोपनिरिति चेत् ? न, नील-पील-श्वेताद्यारब्धं वेताद्यवच्छेदन नीलजनकपाक सनि प्रजननालनाशन तत्तदन्छिननानानीलकल्पनापक्षया एकचित्रकल्पनाया पद लघुत्वात् । नीलकण्ठोऽपि गाककचित्रास्थलेल्नकम्पाणामकैकतत्यागभावादिस्यले चाऽनेकपागभावादीनां कल्पनेन, अनेकम्प 'चित्र' इल्याकारकप्रतीनिविषयत्वकल्पनन गवमिति' (तर्कसंग्रहनीलकण्ठीयवृत्ति - T. २०८) बदन चित्ररूपं प्रस्थापयति । अपरे इति । तु: पूर्वोकपक्षया विषयोधनाधम् । नाहि । तत्र = नीलपीनादिलपालारधन्वंटे, समवायन ज्याप्यवृत्तीनि = स्वाभावा:समानाधिकरणानि पय, न लल्याप्यवृतीनि, नीलपीतादीनि कपाणि उत्पद्यन्ने, समवायन नालादा स्वसमवापिसगवतत्यसम्बन्धन नीलादे: हेतुत्वकलानयत्र दनुपपनी नीलादिकं प्रति नीलतरादिप्रतिबन्धकत्व-नीलाभावादिकार अत्याप्यतृत्तिपमत में दोषोद्भातन * न्या. इनि । मगर यहाँ अतिरिक चित्ररूप वादी का भव्याप्यवृत्तिरूपबादी के खिलाफ. यह आप है कि --> 'नीलपीतकपाल से आरब्ध घट में यदि अतिरिक्त चित्ररूप का स्वीकार न कर के अन्यायपनि नील और पीत रूप का स्वीकार करने पर उम घट में रकरूपजनक विजातीय अग्रिसंयोग से नील रूप का नाश होने पर तत्कपालाबञ्जेदन घट में समवाय से एक रूप की उत्पनि न हो सकेगी, क्योंकि ममवाय मे रूप के प्रति समवाय मम्बन्ध से रूप प्रतिवन्धक होता है। उक्त घट में समवाय से पीतकपालाबच्छेदेन पीन रूप रहने से उस घट में ममत्राय से रक रूप की उत्पनि नामुमकिन हो जायेगी । अतः अवयवी में अध्याप्यवृत्ति अनेक रूप का स्वीकार करना असंगत है। प्यारातिी जी पीतादिरूपवादी-अपरात अपरे. इति । यहाँ अपर विद्वानों का इस सम्बन्ध में कुछ अलग ही मत है, वह या कि नीलपीतानि कपालो र उत्पन्न घट में व्याप्यवृत्ति ही नील, पीत आदि रूप समवाय सम्बन्ध में उत्पन्न होते है। इसका कारण यह है कि चित्ररूपादिवाटी के मतानुसार नीलपीनकपालादिआरय यद में नील आदि रूप की उत्पत्ति के परिहारार्थ नीलादि के प्रति नीलेनरादि को प्रतिबन्धक मानना होगा और नीलपीतकपालाग्न्ध घट में अव्याप्यवृत्ति नीलादि की उत्पनि माननेवाले विद्वानों के मतानुसार अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति नीलाभावादि को कारण मानना होगा । इमकी अपेक्षा नीलपीतादिकपालारब्ध घट में व्याप्यवृनि नील, पीत आदि की उत्पत्ति की कल्पना करना ही लाघव से उचित है । यहाँ यह गाना हो कि -> 'नील. पीतादिकपालारब्ध घट में न्यायवृत्ति नील-पीतादि रूप की उत्पत्ति मानने पर ना नीलादिकपालावच्छेदन घट में चक्षुसनिकर्प
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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