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________________ - मान्यपणानविन नान्यसिद्धिः * सिन्दिप्रतिबध्यत्वासायं दोष इति वानराम्, 'सुस्वव्याध्यज्ञानवालि'त्यादिपरामर्शजन्यायां 'सुस्वचानात्मे'त्याधजुमितो विनातीयात्ममत:संयोगजन्यतावच्छेदिकया सार्यान्मानसत्वव्याम्याऽनुमितित्वजात्यसिन्देः । सतु - उपदर्शितामितौ सन्निकर्षनियम्यलौकिकविषयतायाः सम्भवेन 'साक्षात्करोमी'तिप्रतीत्यापत्तिरिति - लक्षा, सन्निकर्षजन्यसंशयसाधारण्येन लौकिकान्यविषयताया: 'साक्षात्क *गयत त्वात = स्वरिषयविषयकज्ञानान्तरनिरूपित प्रतिबव्यत मन्तव्यपगमात्, न अयं = एकानलानुमितिकृतोपि द्वितीयतदापनिलक्षणा दोपः इति नयनास्तिकः वाच्यम्, सिद्धितिबध्यतावच्छंटकस्य मानसत्वयाप्यान्द्रमितित्वस्य खच्या यज्ञानवानित्यादिपरामशं. जन्यायां 'सखवानात्मा' इत्यायमिती विजातीयात्ममन:संयोगजन्यतावच्छेदिकया जात्या माइयांन मानसत्वच्याप्यानुमिनिवजात्यसिद्धेः = मानसत्वव्यायानुमितित्वस्य जानित्वा सम्भवात् । परान जन्य अहं सुखी त्यादिमानसाक्षात्कार विजातीयस्यात्ममन:संयोगम्य जन्यतावच्छदिका जाति स्ति परं भानसत्वच्याप्यामितित्वं न स्ति, परामर्शजयां 'पर्यताविभानि' त्यादिप्रतीनी मानसत्वन्यायान्नुमिनित्वमस्ति परं विजातीयात्ममनःसंयोगकार्यतावच्छेदिका जातिनास्ति, अग्नरान्मा समवेतन तत्यानीनर्विजानीयात्ममनः संयोगाजन्यत्वात् । परामर्शजन्यायां 'मुम्बवानात्मा' इत्यनुमिती दुमपमस्तेि. सुखम्यान्मममंचतवन तातांतर्विजानीयान्ममन:संयोगजन्यत्वात् । इत्यञ्च मानसत्वन्यायामिनित्वस्य विजानीयात्ममन:संयोगकार्यतावदकमात्या साकार जातिवं सम्भवनि | अन एव सिद्धिप्रनिबध्यतावच्छंद्रकलातिनं मानमत्तल्या यानुमिनियन सम्भवतीति कदहनानमितिकृतः-गि द्वितीयतदापनिवारंवानुभितमानसत्वपश्न इति प्रकरणकुटाशयः । यन . उपदर्शितानुमिती = परामोत्तरकालीनायां 'गुरुगनारमा' इत्यनुमिला, मनिकपंनियम्पल किकविषयताया = ननाभिधानेन्द्रियसंपत्तात्मयतत्वलक्षान्निकर्पनियन्त्रितलामिकाविषयतानिरूपितवियितायाः. सम्भवन तादशानितिरक्षण. व्यवसायनानोत्पादा व्यवहितानरकालावच्छेदेन 'साक्षात्करामी तिप्रतीत्यापतिः = आत्मनि मुखं, सबित्वना::न्मान. मुबविशिष्टमात्मानं वा साक्षात्कगमि' इत्याकारकानुन्यवयायबुद्ध: प्रसङ्गः । यथा 'अयं घट' इतिगनानी वचः संयोगलक्षणानकर्प - नियम्यलोकिकाविषयनानिरूपिनविषयितायाः सत्वेन तदनन्तरं अहं घट साक्षात्करामी नि प्रतानि प्रति लोकिक विषयनानिरूपित - विषयिताया नियामकत्वादिनि प्रकृतापादनतालायंम् ।। प्रचणकारस्तदपहस्तयनि - नति । मनिकर्पजन्यसंशयसाधारण्येन = इन्द्रियनिकजन-सन्देह-मलौकिकान्यरिपयतायाः = अलौकिकविषयतानि पिचिपयितायाः. 'साक्षात्करीमी' निर्धाप्रतिबन्धकताकल्पनेन तहापानवकाशात् | यह कहा जाय कि -> 'अन्य प्रत्यक्ष मिद्धि से अप्रनिबध्य होने पर भी अनुमिनिस्वरूप नानस प्रत्यक्ष नो सिद्धि से प्रतिवन्य ही है . ऐसी कल्पना की जाती है, क्योंकि दूसरा कोई उपाय नहीं है । अनुमितिभिन्नप्रत्यक्ष में सिद्धिप्रनियध्यत्वाभाव की कल्पना करने में पुनः अनुमिति के उदय की आपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि वह सिद्धिप्रतिवध्यताकोटिप्रविष्ट है - तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तो भी अनुमितिन्त्र सांकर्य दोप की बजह जातिस्वरूप नहीं हो सकता है । आशय यह है कि नन्य नयायिक अनुमितित्व को मानसत्वव्याप्य जातिविशेषरूप मानते हैं । जय किसीको 'मुखच्याप्यज्ञानवानई' ऐसा पगमर्ग होता है तब उसके अनन्तर 'अहं सुखचान्' ऐसा मुख का अनुमितिरूप मानस प्रत्यक्ष होता है । 'अहं गरवी' इत्याकारक, पिना परामर्श के होनेवाले, मानस प्रत्यक्ष में विजातीय आत्ममनःसंयोग की जन्यतावच्छदक जाति रहती है मगर अनुमितिल्ल नहीं रहता है। 'अग्निमान् पर्वतः' इस पगमशोनर उत्रि में अनुमिनिन्य रहता है मगर विजातीय आत्मानःतयांग की कार्यनारच्छेदक जानि नहीं रहती है, क्योंकि तादृश आन्ममनःसंयोग में वह जन्य नहीं है। जब कि परामर्शवनरकालीन 'सुरबहान अहं' इस बुद्धि में अनुमितित्व भी रहता है और विजानीय आत्ममनःमयोग की जन्यनारच्छदक जाति भी रहती है । इस तरह संकर दोष की वजह अनुमिनित्व मानसत्वव्याप्यजातिविशेगात्मक नहीं है तब सिद्धि के प्रतिबध्यतावच टकविधया अनुमितित्व जानि का स्वीकार करना कैसं उचित होगा ? अत: अमितिप्रत्यक्ष को सिद्धि मे प्रतिक्थ्य मानना भी अमङ्गन है । ' मे' प्राति का आपादन] Ciबिल चन, । अन्य मनीषियों का यहाँ यह आक्षेप है कि → "आत्मा में 'मुम्बच्या यज्ञानवान अहं' इत्याकारक पगम के | बाद 'अहं, मुसी' इत्याकारक नो अनुमिति होनी है उगम मनावरूप इन्द्रिय के स्वसंयुक्तममवतत्वलक्षण मानकर्प सं नियम्य
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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