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* अनेकान्तवादनियतारम्भवादासाकार: निर्गमयोरप्रतिघातः, (३) पूर्व पश्चाच्चावयवानुपलब्धिः, (४) सूक्ष्ममुन्तिराऽप्रेरकत्वं, (१) गगनगणत्वं चेति पचहेतवो ये जरीयायिकरुपन्यस्तास्ते हेत्वाभासा एव । तथाहि-प्रथम- | स्वावन्न सिदिसौधमध्यास्ते, भाषावणादेस्तदाश्रयस्य स्पर्शवत्वात्, पुलस्य स्पर्शवत्वनियमात्, अन्यथा तत्युदगलेषु कदापि स्पर्शानुभवप्रसङ्गात् । न चैतदशिमतमनियतारम्भवाद इत्यन्यत्र विस्तरः ।
- जयत*प्राचामाशयः । द्वितीयहतमाह अतिनिविप्रदेशप्रवेशनिर्गमयोपनियात इति । प्रयोगमवयम्हनीयः । घनादः पौगलिकन्य सतोनतिनिबिटादशाद् गमनागमनयाः प्रतिघाती दृष्टः । ततिक्रमा छन्दस्या गरोद्गलिकत्वगिति प्राचीननैयायिकारयः । तृतीयस्तु हेतुः पूर्व पश्चाचावयवानुपलब्धिः । बटादः पीद्गलिकस्योत्पादपूर्व चिनाशादनु वावयवा उपलभ्यन्त इनि दृष्टम् । शब्दांत्पादादाक नद्ध्वंसानन्तरच तदवयवानुपलब्यस्तस्यापोद्गलिकन्नमित्यभिप्रायः । चतुः सूक्ष्ममूर्तान्तरांप्रेरकत्वमिति ।। लोष्ठादः गौदगलिकस्य गमनागमनाभ्या सूक्ष्मतलादिमूर्तद्रव्यस्य प्रेग्णं दुष्टचरं शब्दगमनागमनाभ्यां न न नथा नत्प्रेरणं दमिर व्यापकानुपलब्ध्या:पि तत्पादगलिस्त्वं प्रतिषिद्धं भवानि भावः . पञ्चमहतुः गगनगुणत्वं अपि नग्य पानालकत्वं अपाकगनि. गगनपरिमाणादी तधोपलब्धरिति पञ्चहतवो ये जरनैयायिकैः उपन्यस्ताः ते हेत्वाभासा एय, म्यरूपासिद्धिव्यभिचारादिसरोष . विषमविषधरविषावगविधुस्तित्वात । तथाहि - प्रथमस्तावन सिद्धिसोधमध्यास्ते, भाषावर्गणाः तदाश्रयस्य = झान्दात्मकपरिणा. माधिकरणम्य स्पर्शवत्वात्, अतः पशून्याश्रयकत्वं स्वरूपासिद्धम् । नदपि कुन: : पुदगलस्य स्पर्शवत्वनियमात् रुपमरस - गन्धवर्णवन्नः पुद्गला:' (६/२३) इति तत्त्वार्थसूत्र बचनातअन्यथा = 'पदलत्यावन्छेदन स्पा दरनुप्रगर्म, तत्पुद्गलेषु - शन्दोगाटानकारणाभूतपुद्गलेषु कदापि स्पर्शानुभवप्रसङ्गादिति । न च एतत् = दादलपु स्पशानुद् भवत्यं. अभिमत अनियतारम्भवादं स्याहादिमने । न च बाब्दस्य पदगलपर्यायवे चक्षपोगलम्भासगी रूपवदिति वाच्यम्, गन्धपरमाणुभिः व्यभिचारात । न च तदद्दयत्वात्र तदर्शनामिनि शयम, शब्दपद्गलानामपि नत च तन्मा भूत । एतेन शब्दस्य पुद्गलरकन्धस्वभावत्वे घटवत् चाचपप्रसङ्ग इत्यपि प्रत्युक्तम्, गन्धपि तदापत्तेस्तुल्यत्वात् इत्यन्यत्र विस्तरः ।
मन्द का गमनागमन होता है । अतपत्र बह नौगलिक नहीं हो सकता ॥२॥ तथा दाद की उत्पत्ति के पूर्व और विनाश के बाद उसके अवयव की उपलब्धि नहीं होती है। जो पालिक होता है उसकी उत्पत्ति के पहले और विनाश के बाद उसके अवयव की उपलब्धि होती है, जैसे घट । मगर शब्द में ऐसा नहीं है। अतएव यह पौद्गलिक नहीं है ॥३॥ तथा शब्द अन्य सूक्ष्म मूर्त पदार्थ का प्रेरक भी नहीं होता है । मनला यह है कि पत्थर, निट्टी, घट, पट आदि पौडलिक पार्ध गमनागमन करते हैं तब कपास, बायु आदि अन्य सूक्ष्म मूर्त पदार्थ को गतिमान करते हैं मगर शन्द गमनागमन करने पर भी कपास आदि अन्य सूक्ष्म मुर्त पदार्थ को गतिमान नहीं करता है। अतएव वह पौद्गलिक नहीं है ॥॥ नया गन्द में पीद्गलिकत्व का प्रतिक्षेप करनेवाला पांचवा और अन्तिम हेतु है गगनगुणन | जिसमें गगनगुणत्व रहता है वह गौदुगलिक नहीं होता है, जैसे गगनपरिमाण । गगनपरिमाण में गगनगुणन्य रहता है। अलण्व वह पौद्गलिक नहीं है। इस तरह शन भी गगनगुण होने की वजह पौद्गलिक - पुद्गलपरिणाम नहीं है । इस तरह पाँच हेतु से शब्द में पोद्गलिकत्व का प्रतिपंच होता है।
ने १. । मगर प्रकरणकार श्रीमद्जी इसके खिलाफ यह कहते हैं कि प्राचीन नैयायिक से उपन्यत पे पांच हनु संतु नहीं हैं किन्तु असद्धेतु हैं, हेत्वाभार हैं। वह इस तरह - प्रथम हेतु है स्पर्शशून्याभपत्व यानी म्पई से शुन्य में रहना। मगर यह हेतु स्वरूपाऽसिद्धि दोष से दुष्प है, क्योंकि शब्दात्मक परिणाम के आश्रय भापाचर्गणा में स्पर्दा रहने के बाद में स्पर्शशून्याधितत्व = स्पर्शशून्य में रहना-यह हेतु रहता नहीं है । भाषावर्गणा पुद्गल से निप्पन्न है पर्व पुद्गलस्वरूप है और पुदगलमात्र में वर्ण-गन्ध-रस- स्पर्श रहते हैं। यदि ऐमा न माना जाय नर ना भापावगर्णा के पुद्गलों में कभी भी एपर्श का उद्भव ही नहीं होगा । मगर यह तो अनियत आरम्भवाद में अभिमत नहीं है। पुद्गल में ही यदि स्पर्श न होगा नब पुद्गल के समूह से निप्पन भापावर्गणा में भी स्पर्श कैसे आयेगा ? मगर शन्द में स्पर्श तो प्रमाणमिद्ध है । इसन्निए गन्दात्मक परिणाम में स्पर्शशून्याश्रयन्त्र = स्पर्शशून्याश्रितत्व हेतु स्वरूपाःसिद्ध है, जिसकी वजह शब्द में पोद्गलिकत्व का प्रतिपंध नहीं हो सकता । इस चिपय का विस्तार अन्यत्र प्राप्य है।
Hदाश्रय. समातिाज है ..