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________________ * निःस्पर्शयदममर्धनम् स्पार्शनं प्रति तु स्पार्शनाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वं न तु स्पर्शाभावस्य त्रुटिसमवेताऽस्पार्शनानुरोधेन संयुक्तसमवायप्रत्यासतिमध्ये प्रकृष्टमहत्वस्य घटकत्वे गौरवात् । एवच ५८३ * जयलवा * | यथा नानारूपवदववयारब्धनरूपघटादिनाविषयतया द्रव्यसमवेतचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन चाक्षुषाभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वं स्वीक्रियतं न तु रूपपराभावस्य तथैव शक्यते मया चतुं नानारूपवारब्धनिःस्पर्शवादिना विषयतासम्बन्धेन | स्पार्शनं प्रति तु स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पार्शनाभावस्यैव = त्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्काराभावस्यैव प्रतिबन्धकत्वं न तु स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पर्शाभावस्य । इयांस्तु विशेष रूपवादिमते उक्तदोषपरम्पराया अनिर्वालनीयत्वं मत्यक्षे तु नास्ति दीपगन्धलेशोऽपि । न च स्वाभावस्य कुतो न तत्प्रतिबन्धकत्वमिति वाच्यम्, तथा सति त्रुटिपस्यानित्वापत्तेः सुरगुरुगाऽपि निराकर्तुमशक्यत्वात् स्वतंयुक्तसमवायेन त्वगिन्द्रियस्य स्वसंयुक्तमुतिसमवेतस्पर्श सच्चात् लुटे स्पर्शवचन तत्पर्श स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पर्शाभावस्य विरहाट अनि कारणकलाएं कार्योत्पादस्य न्याय्यत्वात् । न च प्रकृष्टमहस्वाणि तच सहकारित्वान्नावं दीप इति वक्तव्यम्, नत्र पृथककारणत्वकल्पने गौरवात् । न च चिपयतया समवेतस्पादानत्वावच्छिन्नं प्रति त्वमिन्द्रियस्य विरहादेव न तत्स्थादर्शनप्रसङ्ग इति वाच्यम्, त्रुटिसमवेताऽस्पार्शनानुरोधेन संयुक्तसमवाय| प्रत्यासत्तिमध्ये = त्वगिन्द्रियनिष्ठकारणतावच्छेदकी भूतस्वसंयुक्तसमवायसम्बन्धदारीरक्षी प्रकृष्टमहत्त्वस्य घटकत्वे = निरुतरीत्या गौरवात् = कारणतावच्छेदकस सर्गगीरवापातात् । न च सम्बन्धगौरवस्यादुष्टत्वमिति वाच्यम्, सति ली गुरोः सम्बन्धकल्पनाचा अन्याय्यत्वात्, अन्यथा दत्वस्यापि स्वाश्रयजन्यभ्रमिवत्वसम्बन्धेन घटकारणत्वप्रसङ्गात् । न च त्वन्मते क न बुद्धिसम्वेतरपर्श - परिमाणादिस्पार्शनत्वापत्तिरिति साम्प्रतम्, घुटेरेोभयमले स्पातित्वविरहात् स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन स्पाइनिसाक्षात्काराभावस्य वृदिस्पर्शादी सत्त्वात् सनि प्रतिबन्धक कार्यात्यादयोगात । अनेन लौकिकविपयितावच्छिन्नप्रतियोगिता कस्पार्शनाभावापेक्षया समवायसम्बन्धावप्रतियोगिताकस्पर्शाभिावस्य लघुत्वादिति विपरीतमेव गौरवमिति निरस्तं, त्रुटि तत्समंत्रेतरूपादिरूपार्शनत्वस्य परमते दुवरित्वात् । न च द्वयणुकाद्यस्पार्शनानुरोधेनभयपक्ष महत्त्वस्य प्रत्यासन्निमध्ये चदयं निवेशनीयत्वादिति वाच्यम्, वृदावेवावयविनी विश्रान्तत्वमा प्रकृतं स्पार्शनाभावप्रतिबन्धकत्वप्रतिपादनात । अस्तु वा परमापमेवास्यविनो विश्रान्तिः तथापि सम्म केवल लगिन्द्रियनिष्टकारणताया अवच्छेदकत्वप्रत्यासनी केवलं महत्त्वस्व | निवेश: तु बुद्धिसमताऽस्नानत्वीपपतये नवाऽपि प्रकृष्टत्वदानावस्यकत्वादधिकगौरवमिति व्ययम् । न च तथापि त्वन्मत | त्रायुरान्वेन्स्पर्शाऽस्पार्शनत्वापत्तिर्दुर्निवारा, वायरस्पार्शनत्वेन तत्प स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पार्शनाभावस्य सत्त्वादिनि अवयवों से आरम्भ पदादि में समवेत संयोग परिमाण आदि का चाक्षुप तो अनुभवसिद्ध होने से समवाय सम्बन्ध मे बन एकत्व को या अयोग्यद्रव्यव्यावृत्त धर्मविशेष को द्रव्यचाक्षुप का कारण नहीं माना जा सकता । इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है । का स्पलीवेहीन घर का समर्थन क रुपा, इति । श्रीमद्जी एक नयी दिशा में अपनी कलम को चलाते हुए यह बताते हैं कि जैसे विभिन्नरूपवाले अवयवों . से आरब्ध घटादि को उत्पत्ति के अनन्तर भी नीरूप माननेवाले प्रतिवादी ने कहा था कि स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से चाक्षुपाभाव ही विषयतासम्बन्ध से द्रव्यसमवेतचाक्षुप का प्रतिबन्धक है, न कि रूपाभाव । ठीक वैसे ही हम कह सकते हैं कि स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से स्पार्शनाभाव ही विपयतासम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले द्रव्यसमवेतगोचर स्पार्शन साक्षात्कार का प्रतिबन्धक है, न कि स्पर्शाभाव | इसका कारण यह है कि यदि विपयतासम्बन्ध से rates स्पार्शन साक्षात्कार के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से रपशभाव को प्रतिबन्धक माना जाय तब तो त्रुटित स्पर्श के स्पार्शन प्रत्यक्ष को आपत्ति आयेगी, क्योंकि अणु में स्पर्श होने से स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध में सरेणुसमवेत स्पर्श में स्पर्श ही रहेगा, न कि स्पर्शाभाव। जब कि कार्याधिकरणविश्रया अभिमत में प्रतिबन्धक ही रहता नहीं है तब तो स्वयुक्तसमवायसम्बन्ध से स्वगिन्द्रिय, जो कि रेणु में संयुक्त है त्रुटिस्पर्श में रह जाने की वजह त्रुटस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष होना ही चाहिए। मगर वह होता नहीं है यह तो सर्व दार्शनिकों का एकमत है । यदि उसके निवारणार्थ यह कहा जाय कि > स्पर्शनेन्द्रिय केवल स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध से द्रव्यसमवेतविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष का कारण नहीं है, किन्तु स्वसंयुक्त प्रकृष्टमहत्त्वचद्रव्यसमवायसम्बन्ध से ही उसका कारण है । त्रसरेणु में स्पर्श अवश्य है मगर उसका महत्त्व = महत्परिमाण प्रकृष्ट नहीं होता है, अपकृष्ट होता है । अतएव
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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