SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * यश उन्मादानविचार: * इत्यबाधितप्रत्यभिज्ञानात, शब्दोत्पादायितीतर्वायूत्पादादिविषयकत्वात्, उत्पते: स्वत्वगत्वेऽपि खण्डश: तदारोपसम्भवात् । जायलता* गकाराभेदसाधकप्रत्यभिज्ञाया अबाधाच्छब्दस्पैकान्तनित्यमितार्थः । न च ‘गकार उत्पन्नो गकारा विनष्ट' इत्यादिप्रतीनर्गम सद्भारात अभेदविषयिण्या निरुक्तप्नत्यभिज्ञाया बाध इति वाच्यम्, शब्दोत्पादादिप्रतीनेः बापुत्पादादिविषयकवाद न तस्याः प्रत्यभिज्ञानाधकल्चम । शन्दयाका यत्पादविनाशी गमीयादिदोपबशा भन्ने आगप्यने यथा जपाकुसुमगतरतिमा सबिहिन - म्फटिकशकले । अता न पूर्वापरकालीनगकारा भदावगाहित्वं नेकप्रत्यभिन्न या अग्राममिति । एतेन शब्दोन्पाटविनाटा. प्रतीनीनां भ्रमत्वकल्पनामपेश्य प्रत्यभिज्ञामात्रस्य नन्कल्पने लायमिति प्रत्युतम्, विषयबाहुल्यस्य जनचाहल्या प्रयोजकत्वान ननून्यत्तिस्तु स्राधिकरणापत्रमानधिकरणक्षणसम्बन्धरूपैच वाच्या । सम्बन्धपदानुपादान तू पनिप्राकमणाना. मुत्पत्तिम्वरूपतापत्तिः। अन एव तदपादानम् । यद्वा स्वाधिकरणक्षणावृत्तिागभावप्रतियोगिक्षगसम्बन्धस्वरूपा मा वनव्या यद्धा स्वप्रथमक्षणसनासम्बन्धामिका सा किनच्या अन्यम्बन्पा या किन्तु ग्वत्वरितेच मानीकर्नया । प्रकृते वायुगनात्यादस्य शाचे आरोपार्थ स्वपंदन शब्द्धग्रहागं कार्यम् । परन्तु तस्य निन्यन्न निरुतात्पनरामिद्भिः, शब्दाधिकरणमणध्वंसाधिकरणत्यादिम्पत्त्वान सर्वेशमय क्षणानाम । तता न इन्द नादृशा भ्रम आरोपंः वा सम्भवति अन्यत्र प्रसिद्धस्येचा त्यागपगम्भवादिनि चेन ? मैत्रम्, प. = पानिपायस्य स्वयगर्भपि खण्डशः तदागेपसम्भवान = उत्पाद गंगसम्भवान् । यधा स्वगणनाधिकरणाभावा प्रतियोगिमागागाधिकरण्यरूपाया व्याप्तः स्वत्वगर्भवे:पि वाया प्रसिद्धं दहनममानाधिकरणा भावा:पनियांगित्वं धूम समारोग्य वहीं बहिसमानाधिकरणामाचाानियांगिधूनसामानाधिकरण्यस्वरूपाया धमन्यातः भ्रमः सम्भनि, बहिव्यापकधुमम्गमानाधिकरण्यस्याऽस्यण्डस्या प्रसिद्धत्वे:पि यहिच्यापकत्वस्य धूमसामानाधिकरणयग्य च तत्खण्डस्य प्रसिद्धेः नथैव नित्यशब्दाधिकरणध्वंसानधिकरणक्षणसम्बन्धात्मिकाया अखण्डोत्पनेप्रमिद्धतःपि गगनादौ प्रमिदं नित्यशदाधिकरणध्ययाधिकरण क्षण समारोप्य नित्यदाद नित्यशब्दाधिकरणक्षणध्वमानाधिकरणक्षणसम्बन्धात्मिकायाः स्यात्पत्तरारोपो भ्रमो वा मम्भवत्येव, नित्यशदाधिकरणक्षणाधिकरणल्वरूपस्य क्षणसम्बन्धरूपस्य च तत्त्वण्डस्य प्रसिद्धर्शित नामांसकाशयः । है । प्रन्यभिज्ञा पूर्वापरकालीन पदार्थ में अभेद की साधक होनी है। इसलिए पूर्वश्रुत और वर्तमानकाल में श्रूयमाण शन में अभेद की सिद्धि होती है । इस तरह शब्द में चिरस्थायिता की सिद्धि होने पर नित्यत्व की मिद्धि होती है 1 यहाँ यह शंका हो कि > "यदि शब्द नित्य है तब तो 'शब्द उत्पन्नः', 'शब्दो विनष्टः' ऐसी प्रतीति, जो सर्वजनप्रसिद्ध है, कैसे उपपन्न हो सकेगी? क्योंकि नित्य पदार्थ का कभी भी उत्पाद और विनाश हो सकता नहीं है" -तो इसके समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि शन्न में जो उत्पनि और विनाश की प्रतीति होनी है वह वस्तुतः शब्दविपयक नहीं है किन्तु रायुविषयक है । अर्धान नित्य गन के व्याक वायु का उत्पाद और विनाश होने में पामर लोग पकनगांचर उत्पनि और चिनाश का शन्न में उपचार करते हैं, जैसे जपाकुसुमगन रतिमा का स्फटिक में आरोप करते हैं । मगर आगेप करने पर भी जैसे स्फटिक में वस्तुनः रनिभा नहीं होती है ठीक वैसे ही पवनगत उत्पादादि का शन्द में आगेय करने पर भी इन्द्र क वस्तुतः उत्पादादि होते नहीं हैं । MICR में उत्पति की प्रतीति में पतिता की संगति यदि यहाँ यह कहा जाय कि -> 'उत्पनि स्वाधिकरणक्षणध्वंमानधिकरणक्षणसम्बन्धस्वरूप है । जैसे, जो व्यक्ति जिम क्षण में उत्पन्न होती है वह क्षण उस अनि, के अधिकरणीभूत क्षणों के ध्वंस की अनधिकरण होती है, क्योंकि उमके पूर्व उस व्यक्ति का अभाव होने से उनके पूर्व की श्रण उसकी अधिकरण नहीं होती है। नथा जो क्षण उस व्यक्ति की अधिकरण हानी हैं उनमें उसकी उत्पनिक्षण सर्व प्रथम क्षण है, जो उस क्षण में नष्ट न हो कर उसकी अगली क्षण में नए हाती है। अनः उस क्षण के साथ उस व्यक्ति के सम्बन्ध को ही उस लति की उत्पनि कही जाती है। नित्य व्यक्ति सभी क्षणों में रहती है । अतः प्रत्येक क्षण उसकी अधिकरणीभून अपनी पूर्व क्षण के ध्वंम की अधिकरण होती है । इसलिये उत्पत्ति के क लक्षण में स्वशब्द से नित्य व्यक्ति को ग्रहण करने पर उत्पत्ति की अप्रसिद्धि हो जाने से नित्य में उसका भम नहीं हो सकता है, क्योंकि एकत्र प्रसिद्ध का ही अन्यत्र आगंप या भ्रम हो सकता है तो यह इसलिए निगधार हो जाता है कि उत्पत्ति स्वत्वघटित होने पर भी खण्डशः उसका आगेर या भ्रम मुमकिन है। मतलब यह है कि नित्यपदार्थ की अधिकरणीभूत क्षणों के वंस का अनधिकरण क्षण अप्रसिद्ध होने से अस्वण्टरूप में नित्य का उत्पाद अप्रसिद्ध है फिर
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy