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________________ २४१ चमयादादरहस्ये घण्टुः 2 . का. *गम पागगनप्रतानिपरीक्षणम जातिचाक्षर्ष प्रति हेतुत्वेऽपि विनश्यवस्थसन्निकर्षण घटादिवानुषोत्तरं परमाणों पृथिवीत्वादिप्रत्यक्षापत्तिरित्यपासतम । लनु 'मम शरीरमि'त्यादिपतीत्याऽऽत्मनोऽतिरेक: सेत्स्यतीति चेत् ? न, उक्तलाघवबलेनेटशप्रतीत मत्वकल्पनात्, 'श्यामोऽहं गौरोऽहमि'त्यादिसामानाधिकरण्यानुभवाच्च । -* जराला= जातिसमवायनाक्षपस्य लौकिकविषयतका जातिचाक्षुपं प्रति हेतुल्वे ग्वीक्रियमाणे घटत्वममवापिघटगोचरचक्षुषम्य स्वविश्यसमवेतत्वसम्बन्धन घटले सन्चन तत्र लौतिकविषयनया घटत्वचाक्षुषोत्पादस्योपपादने अपि विनश्यदवस्थसन्निकर्पण = चिनश्यदयम्धो या घटादिः नदिपर कयाःसन्निकण, घटादिचाक्षुपोत्तरं = घटादिगंदरच क्षुपान्यादान्यचहितात्तरक्षगावच्चंदन, परमाणी पृथिवीवादिप्रत्यक्षापत्ति: वांग, घटस्य परमाणक महात्मकत्वन घटनाक्षपम्प स्यविषयसमश्नत्वमानधन परमागगनप्रथिचीत्वादापि सन्चान इत्यपास्तम, स्यविशिष्टस्वविषयसमायित्वसम्बन्धनब जातिचाक्षपं प्रति विषयतया जात्याश्रयचाक्षपस्य हेनुत्वम् कारण प्रकृनापनरयोगात, तदधन कार्यतावशंदकप्रत्यासनी 'स्यचिशिष्ट त्युक्तम् ।। ननु मम शरीर' इत्यादिप्रतीत्या आन्मनः शरीरात अतिरकः सेत्स्यति देहात्मनारभेद तु 'अहं शरीरमित्या प्रततिः म्यान्न त ममेदं झार्गम'ति । यथा मम पस्नक' इत मृतात्या शात्मनः पुस्तकादतिरकः तथैव 'ममदं शरीर मित्याकारकवनात्या शरीरादतिरकः। यद्यपि पाट्या; सम्बन्धमात्रमर्थः नापि तस्य भेनियनत्वेन शारिहन्त्ववदर्भदस्य शाब्दयोधंत्तरमाक्षेपलभ्यत्व- ॥ मन्याहमिति न-बाशयः । नव्यनाम्निकारतन्निगन्ति - नति । उक्तलापरवलेन = मंगांनस्य पुथकप्रत्यक्षकारणातावळेदकात्यायनिवारकल्पनलाघरानगंधन, इदशनीतः = 'मगारमि'न्यादिपनीत : भ्रमत्वकल्पनात वस्तुतस्तु प्रष्टया न भेदनियतत्वं, महो: शिर' इत्यादावभेदपि तहानात्। एनेन भवशिष्टः सम्बन्ध एव पट्यर्थ' इत्यपि प्रत्युतम् । कि तस्या भेटनयन्ये 'ममाध्यमात्मा' इत्याद: का गतिः ? तत्रादीपगम प्रकृतं ममदं शरीरनित्य कि बदिछन्नं ? 'श्यामोऽहं' 'गोरोऽहं' इत्यादिसामानाधिकरण्यानुभवाच । यथा नीलो घट' इत्यादी समान-विभजिकचलक्षणम्य भिन्नप्रतिनिमित्नशब्दानामकार्थबोधकत्वस्वरूपस्य या मामानाधिकरण्यम्य वामान मात्र पावभन्न घटः' इत्यङगीक्रियते तददेव 'व्यामोह' इत्यादी 'श्याम. है उसके विषय का समवायी पदादि धर्मी । विषयता सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप घटादि में रहने से स्वविशिशस्त्रविपयसमायित्व सम्बन्ध से घटत्वादिचाक्षुप भी वहीं उत्पत्र होता है। परमाणु का तो चानुप ही नहीं होने से विपयना सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुष परमाणु में नहीं रहने से परमाणुसमवेत पृथ्वीवादि का चाक्षुप यहाँ स्वविशिष्टस्वविषयममवायित्वमन्वन्ध में उत्पन्न हो सकता नहीं है। अतएव यहाँ यह वाका भी कि --> विषयता सम्बन्ध से जातिचाप के प्रति स्वविपयसमचतत्व सम्बन्ध में आश्रयचाभुप को कारण माननं पर चाशुपविपयभूत घद में ममबन घटत्वादि में स्वविपयसमवतत्व सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप को कारण मानने पर चाक्षुपविषयीभून घट में ममयट घटत्वादि में स्वविषयसमवेतत्व सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुप के रहने से विपयता सम्बन्ध से घटत्वादिचाक्षुष की उत्पत्ति नो हो सकती है मगर बिनम्यवस्थावाले घट के चक्षुमत्रिवर्ष से पटचाक्षुप होने के बाद परमाणु में पृथिवीनादि के चाक्षुप की आपत्ति आयगी, क्योंकि परमाणसमूहात्मक घट प्रत्यक परमाणु से अतिरिक्त न होन में घटचाक्षुपविपयीभून परमाणु में ममत्रत पृथिवीत्वादि में स्वविषयसमवेतत्व सम्बन्ध से आश्रयवाक्षुप रहना है' «- निरस्त हो जाती है, क्योंकि नव घट ही विनष्ट होने से परमाणनिधियादिप्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं है । अतएव नर स्वविशिष्ट स्वरिपयसमवायित्व का आश्रय न रहने की वजह उस सम्बन्ध में परमाणुसमवेत पृधिनीत्वाटि के चाक्षुप की उत्पनि की कोई संभावना नहीं है। यह आपत्ति तब आती यदि विपथना सम्बन्ध मे जातिचाक्षम के प्रति स्वविषयसमवतन्य सम्बन्ध से आश्रयचाक्षुग का कारण माना नाय । मगर हम तो पूर्वोक विशिष्टस्वविषयसमवायिय सम्बन्ध गे जानिचाक्षुप के प्रति स्वविषयता सम्बन्ध में आश्रयचाक्षुष को कारण मानते हैं जिससे अनुपदक पद्धति से परमाणुसमयन पृधिनीत्यादि के चाक्षुप का परिहार हो सकता है। नन् मम.। यहाँ यह शंका हो कि > "आत्मा को शरीर में अनिरिक न मानने पर 'मम शगर' = 'या, मंग शरीर है, इत्यादि प्रतीनि कसं हा गगी ? शरीर पचं भान्मा परस्पर अभिन्न होने पर ता - मैं शरीर है । गमी प्रतीनि होनी चाहिए। जमे पुस्तक. अपन से भिन्न होने की वजह 'मैं पुस्तक है रोगी प्रतीति न होकर 'यह मंग पुस्तक है' इत्याकारक प्रतीति होती है ठीक वैसे ही मैं वार्गर है, मी प्रतीति न होकर 'यह मंग झर्गर है' मी प्रनीति होने में शरीर से अतिरिन आत्मा की सिद्धि होती है - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वह प्रतीनि भ्रमात्मक होनी है। इसका कारण
SR No.090488
Book TitleSyadvadarahasya Part 3
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
Author
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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