Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 314
________________ * गदायरमनप्रकाशनम * पूर्ववृत्तित्वग्रहसम्भवाझाल्यथासिन्दिः । अप्रेद चितत्यम् → शब्दपूर्ववृतित्वग्रहं विनाऽपि (शब्दादेः) आकाशस्य घटादिपूर्ववृत्तित्वग्रहःसाभवी, अष्टद्रव्याऽन्यद्रव्यत्वादिनाऽप्याऽऽकाशपदशतिग्रहसम्मवात् । कथमन्यथा राम शब्दसमवारिकारणताग्रहः ? नयलता न हि शन्दममयायिकारणत्वेनवाकादास्य संयोगादिपूर्ववनिनग्रहमा धक किश्चिदस्तीति गगनस्य संयोगादी नान्यथामिद्धिः = न द्वितीयान्यथासिद्धत्वप्रमङ्गः । अन गवाधारबन कालदिशः कार्यसामान्यहेतुत्वं निणत्युहम. बिनापि कालिकददिकापरत्वादिपूर्वचर्तिलग्रहमाधारत्वेन कालिकंदशिकपरत्वापरत्वादी पूर्व जिल्वग्रहसम्भवात । न चैवं विभुत्वनाकारास्यापि कार्यसामान्यहतलं स्यादिति बान्यम, आन्मयन्यापकबिभत्वनान्यधसिद्धल्याटिति दिक । गदाधरस्तु कारणतावादे - 'अन्य प्रति पूर्ववर्नित्वं ज्ञात न यदगावच्छिन्नस्य प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववर्तिताग्रहातपावच्छिन्नं नतकार्य प्रत्यन्यधामिद्धम, यथा ज्ञानादिकं प्रत्याकाशत्गच्छिन्नम् । तत्र हि झान्दादिसमवाचिकारणतयाऽकाशादिसिद्धाय सम्य ज्ञानादिगाननिय गहीनामिति नत्र मान्दादिपूर्ववर्तिनाग्रहांपेक्षा । यथा वः धादिकं प्रति कुलालपितृत्वावच्छिन्नं, कुत्रालपितृत्वादेः कलालादिपूर्ववर्निनाघटितवानदन्छिन्नस्य पदादिपूर्वक निवग्रह कुलालादिपूर्ववर्तित्वग्रहस्यागतवान् । अपूर्यादिगुर्ववर्तित्वमगृहीत्वापिसागत्वावधि स्वादिपूर्ववर्तित्वग्रहसम्भवादपूर्यद्वारा न यागत्वाद्यबचित्ररय स्वादिकार्य प्रन्यन्यामिद्धत्वम् । एतादृशस्थान १५ च्या पारेण व्यापारिणा नान्यथासिद्धिः । कुलालादिपितृत्वाद्यवन्छिन्नस्य कुलालादिल्यापारकत्वनम्भोऽपि अन्यथामिदिरव' (वा.वा.का.बा. पृ.२०) इत्युक्तवान् ।। अत्रेदं चिन्न्यम् - शब्दपूर्ववृत्तित्वग्रहं बिनापि आकाशस्य घटादिपूर्ववृन्नित्वग्रहः सम्भवी । अत्र भूलादर्श 'विनापी त्यनन्तरं शान्दारिरीन अधिकः पाठः सम्पानायात इति प्रतिभानि । आकाशन्य शब्दपूर्ववृत्नित्वसहमृत बटादि नित्वग्रहमुपपादयति - अपद्रव्यान्यद्रव्यत्वादिनापि आकाशपदशक्तिग्रहमम्भवादिति । कथं अन्यथा - अश्रयान्पद्रव्यत्यादिनाकाटाभानानाकार तत्र शब्दसमवापिकारणताग्रहः स्यात् ' धर्मितारन्छेदकानिये तत्र काग्णताग्रहागावात. निरनिरन्तकारणताया असम्भवात । न च कवचस्यैव शब्दसमराम्पिकारपनानच्छदकत्वमिनि चाच्यम बहनो कर्णानां विनिगमकामविन कारणतावच्छेदका गौरवात्. कर्णानामसार्वकालिकत्वाचन विशेषपदार्थस्य तथामिति वाच्यम्, नदसिद्धः पूर्वम कत्याल । न च हान्दममवाधिकारणत्ययंत्र में घटाकावासंयोग आदि के प्रति पूर्वनिता= कारणना का भान हो सकता है। ऐसी स्थिति में आकाश को घटाकाशमयोग आदि के प्रति अन्यधासिद्ध नहीं माना जा सकता है, क्योंकि घट आकाशसंयोग आदि की अपेक्षा द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण की प्रवृति ही आकाश में हो सकती नहीं है। द्वितीय अन्यथासिर के लक्षण में अन्याय एवं अतिप्याति अंबंन । द्वितीय अन्यथामिद्ध के उपर्युक्त लक्षण में यह बात मांचने योग्य है कि घट के प्रति पूर्ववृत्तिता का भाकाश में शब्दसमवायिकारणत्व का भान नान का ही भान हो . यह कोई नियम नहीं है । आकाश में झन्दसमवायिकारणता का भान माने बिना भी घटादि के प्रति पूर्वनिता का गगन में ज्ञान मुमकिन है। यहाँ यह शंका करने की कोई जरूरत नहीं है कि -> 'आकाश को आका वात्वेन घटपूर्ववृत्ति मानने पर तो द्वितीय अन्यथासिद्ध के लक्षण की प्रवृनि मुमकिन ही है, क्योंकि आकाशत्व शब्दसमनायिकारणत्वस्वरूप है। आकाशपद की शक्ति का ज्ञान शनसमाधिकारणत्वेन ही हो सकता है, क्योंकि वह आकाशपद का शक्यतावच्छेदक है' - इसका कारण यह है कि आकारपट की शक्ति का ज्ञान अदगमचायिकारणत्वेन न मान कर अपद्रव्यान्यद्रव्यत्वेन भी माना जा सकता है। यहाँ यह शंका कि ---> 'आकाशपद के शस्यनावटकविधया अष्टद्रव्यातिरिक्तद्रव्यय का स्वीकार न कर के शब्दममवायिकारणव को मान्य किया जाय तो क्या दाप है?' -भी निगधार है, क्योंकि नब तो आकाश में पालसम्बायिकाग्णता का ज्ञान ही न हो गकेगा । देखिय, शब्द का कारणता आकाश में रहती है, उस कारणता का अवच्छेदक ( भेददर्शक = भेटक) कार्ड धर्म तो मानना ही होगा । वह कीन मा धर्म हांगा ? यह जिज्ञासा होने पर 'बह धर्म आकाशत्व = गन्दसमवापिकारणता है', यह कहें तब वादसमचायिकाग्णतास्वरूप आकागत्व और उममें अवय आकामानिम शब्दसमवापिकारणता एक ही बन जायेंगे। ऐसी स्थिति में दोनों का भंट नहीं समझा जा सकेगा। नच ता गगन में शब्दकारणता का ज्ञान ही नामुमकिन बन जायेगा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363