Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 335
________________ १६८ मध्यमस्यादाइरहस्य खण्डः ३ . का.१६ * अनुसन्धानप्रारम्भः* त्वात, तेनैव तदभावाभावव्यवहारात, 'घटोऽस्ती'ति प्रतीते: 'घटाभावो नास्तीति प्रतीतो। विशेषणतात्वावच्छिन्नसांसर्गिकविषयतयैव विशेषात् । धाऽव्यवहितत्वांशत्यागेन ततत्कालावच्छेदेनेत्येवोच्यतां इति वाच्यम्, अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन कार्यवति यदभावो ज्ञायते तत्र कारणताबुन्दयनुदयेन तन्निवेशादिति वर्माते ! गोव्यते - यत्तावद 'येन सह' इत्यादिकमुक्तं तदयुक्तम्, येन पृथमन्वयादिमता यस्य तद्रहितस्येत्युक्तौ नियमादिप्रवेशवैफल्यात, -* जयावा *रूपत्वं भवति । न च घटान्वन्ताभावाभारस्य घटस्वरूपत्वं तदवगाहितीन्यो: सर्वथाऽविशेष पवेति वाच्यम्'घटोऽस्ती'ति प्रतीतः 'घटाभावो नास्तीति प्रनीती विशेपणनात्यावच्छिन्नसांसर्गिकविषयतयेव विशेषात् = भंदात् । 'घटोस्तीति प्रनीतिः संयोगवाद्यवछिन्नसांसर्गिकविषयतावगाहिती 'घटाभावी नास्तीति प्रतीतिस्त विशेषणतात्वावन्त्रिसंसर्गतारज्यविषयतावगाहिनातीयस्नियार्विशेषः । ___ एतावत्पर्यन्तमेव महामहोपाध्यायप्रणीतं मध्यमपरिमाणम्याद्रादरहस्यप्रकरणमुपलभ्यने । सम्प्रतं तदनुसन्धानं विद्रियते न च प्रकृतकारणतालक्षण अव्यरहितत्वांशत्यागेन = अव्यवहितत्वभाविनिकिण, तनत्राककालावच्छेदेन = तत्तत्कार्योत्पत्तिपूर्वक्षणावच्छेदन इत्येवोच्यतां अव्यबहितत्वीपादानेनालमिति वाव्यम्, अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन = तत्चत्कार्योत्पादाव्यवहितपूर्नसमये कार्यवति = कार्यतावच्छेदकसम्बन्धन कार्याधिकरणविधयाऽभिमते यदभावः = सद्भमांवच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावः ज्ञायते तत्र - तद्धर्मावच्छिन्ने कारणताबुद्ध्यनुदयन = तनत्कार्यनिरूपितकारणलज्ञानासम्भवेन तनिवेशात् = गव्यवहितत्वप्रवेशात् अव्याहतपूर्वसमयावच्छदेन कार्याधिकरणे वृत्तित्त्वस्यैव व्यतिरेकव्यभिचारपदार्थत्वात्, व्यभिचारज्ञानस्य निरुक्तकारणलचिराधित्वादिति वदन्ति । उत्तरपक्षयति । अत्रोच्यते । यत्तावद् 'येन सह इत्यादिकं = येन सहैव यस्य यं पनि पूर्वन्त्विं गृह्यते तत्र नदाद्यमन्यथासिद्धमिति उक्तं = यथाश्रुतं तदयुक्तम्, दण्डन्यादिना दण्डादः दण्डादिना दण्डसंयोगादेर्वा घटं प्रत्यन्यथासिद्धत्वापत्नः। तन्निवारणार्थं 'येन = पृथगन्वयादिमता यस्य = सद्रहितस्य = पृथगन्वयव्यतिरेकशून्यस्य इत्युक्ती नियमादिप्रवेशवैफल्यात् है। मगर घटनिविशेषणताविशेषस्वरूपसम्बन्ध से तो नीलोत्पत्तिप्राक्क्षणावच्छेदेन घट में नीलाभाव ही रहता है, न कि उपर्युक्तसम्बन्यावच्छिन प्रतियोगिताक नीलाभावामाव । इसलिए नीलाभावत्व तादृशकार्याधिकरणवृत्ति अभाव की प्रतियोगिता का अनयच्छदक ही बनेगा । भतः नाशप्रतियोगितानवच्छेदक धर्नवस्वस्वरूप नीलकारणता नीलरूपप्रतियोगिकात्यन्ताभाव में निरागाध रहती है । अभावीयप्रतियोगिताचच्छेदक सम्बन्ध से ही तदभाव के अभाव का व्यवहार होता है । जैसे घटसंयुक्त भूतल में 'क्या यहाँ स्वरूपसम्बन्ध से घटाभाव है ?' इस प्रश्न के जवाब में यही व्यवहार होता है कि 'यहाँ स्वरूप-सम्बन्ध से घटाभाव नहीं है। यह स्वरूपसम्बन्ध दुसग कुछ न हो का स्वनिमपिनभूतलत्वावचिनविशेषणताविशेष ही है। हाँ इतनी विशेषता जरूर है कि. 'भूतले घटोऽस्ति' इस प्रतीति में मंयोगत्वावचित्र संसर्गनानामक विषयता का उल्लेख होता है जब कि 'भूनले घदो नास्ति' इस प्रतीति में विशंपणनावावचिन्न संसगताख्य विषयता का भान होता है। सर्वथा ऐक्य दोनों में नहीं है। यहाँ यह शंका करने की कोई जरूरत नहीं है कि > 'कारणता के शरीर में अव्यवहिनत्व अंश का प्रवेश किये चिना 'नन तत् कालावच्छेदन' का ही निवेश क्यों न किया ?' -- क्योंकि कार्यतावच्छेडकसम्बन्ध से कार्य के अधिकरण में अव्यवहितपूर्वसमयावच्छेदेन जो अविद्यमान होता है उसमें कारणना का ज्ञान ही नहीं होता है। जिसकी अव्यवहितपूर्वक्षण में उपस्थिति न हो फिर भी कार्य उत्पन्न हो जाय तब उसे उस कार्य का कारण कहने का दामाहस कौन करेगा ? अतः कारणता के शरीर में अव्यवहितन्य अंश का निवेश भी आवश्यक है . यह नैयापिकों का मत है। नैयायिकसंगतकारणता प्रसंगा । स्यादादी 3e भना । मगर इसके प्रतिवाद में स्यादाटी का यह कथन है कि कारणता के शरीर में प्रविष्ट भेद के प्रनियोगी अन्यथासिद्ध ५ इतः परं मूलादर्शपत्रं रिक्तमय । इतोऽग्रे मध्यमस्याहारहस्यानुसन्धानं एकादशकारिकाविवरणपर्यन्नमस्माभिरस्मिन् पुस्नक मुद्रितम् । द्वादशकारिकाविवरणं तु लघुस्याद्वादरहस्यगतमवारमाभिः मुद्रितमिति विज्ञवाचकवर्गेणाऽवधातव्यम् ।

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