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*पाञ्चाविभवत्वविद्यातना * घटोत्पत्त्यव्याप्यत्वात्तनिरास: ।
नन्तत्रापि गन्धपागभावमास्य नपाकजगन्धोत्पतिव्याप्यत्वं तस्य रूपमभावाविला. भतत्वात । एतेल पथमन्वयव्यतिरेकसाहित्य सोतं अन्यत्र क्लानियतपर्वर्तिताकसहभूत
-* जयलता - दण्डस्य चक्रादिशून्यरप घटोत्पत्यव्याप्यत्वात् तमिरासः = चक्रादेरन्यथासिद्भत्यनिराकरणम् । यद्यपि 'पञ्चाय अवधिमन्त्रपनि - योगित्व-जन्यत्व -स्वकर्तृकोचारणाधनत्व-निरूपितत्व-ज्ञानज्ञाप्यत्व-तदांपेक्षात्व- पर्यन्ताराभादशोऽस्तिथापि प्रकृत जानकाप्यचमर्थ उपादेयः । यथा 'बहिमान धूमादित्यत्र धूमज्ञानज्ञाप्यवहिनानिति बोधस्तथा घटजातीयं प्रति क्लुप्तनियनपूर्ववृनिदण्डमात्रज्ञानज्ञाप्यघटोत्पनिरित्यर्थः प्राप्तः । स च बाधितः. दण्डमात्रय घटोत्पत्त्यव्या'यत्वेन दण्डमात्रज्ञानज्ञाप्यत्वस्य घटोत्यादेवपयोगात । अत एव दण्डादिना चक्रादः गिधाऽन्यथासिद्धिपकरणमित्यर्धः ।
पाकजगन्धस्थलेऽपि रूपमागभावः कथं न क्लप्तनियतापूर्वनिः ? गन्धादीनां चतुर्णामयकदाद्यन्या प्रागभाव चतश्यस्या नियतपूर्ववृत्तिवादित्याशयेन शत नन्विति । अस्य च समाधानमग्ने 'अत्राहः' इत्यनेन वक्ष्यतीति रमतंत्र्यम् । अत्र = तृतीया - न्यथा सिद्धलक्षण अपि गन्धप्रागभावमात्रस्य न पाकजगन्धोत्पत्तिच्याप्यत्वं येन गन्धप्रागभावमात्रज्ञानज्ञाप्या पाक जगन्धोतात: स्पात । तब इतमाह-तस्य = गन्धप्रागभावस्य रूपप्रागभावाविनाभूतत्वात् " रूपप्रायभावच्याप्यत्वात् । यत्र यत्र गन्धप्पागनाव: तत्र तत्र रूपप्रागभाव इति नियमादित्यर्थः। म्बन्यायच्या कम्य स्वच्याप्यत्यनियमन गन्धम् पप्रागभाषामभयोदेय पाकजगन्दील्पनिच्याप्यत्वान्न गाकजगन्धं प्रति रूग्रागभावग्य तु यान्पधामिद्धत्वसम्भव इति नन्वाश्यः ।
एतेन = गन्धप्रागभावस्य सपनागभावव्याप्यन्यन, अस्य निरस्न इत्यनेनान्चयः । पञ्चम्यर्थहनुवप्रचनात्माश्रयग्रगतः प्रकृत 'पृथगन्वयव्यतिरेकाहित्ये = स्वतन्त्रान्वयव्य निम्नशून्यत्ये सति अन्यत्र लुमनियतपूर्ववर्तिताकसहभूतं यन तनृतीयमन्यथासिद्धं, नदज्ञानप्रयुक्काज्ञातत्लादिविरहरूपं पृथक्त्वं ग्राटाम् । तदघंट कलमनियत्तगुबंबर्तिताकदादिसहनूतन्य गसगर पृथगचय
दण्डादि में चक्रादि भी अन्यबासिद्ध बन जायंग, पांकि पदनातीय के प्रति कतृप्त दण्डादि कारण से चक्रादि अन्य हैं । एवं चक्रादि से दण्डादि भी तृतीय अन्यथासिद्ध बन जायगे, क्योंकि घटजातीय के प्रति कलाः नियतपूर्ववृत्ति चक्रादि में दण्डादि अन्य है। इस आपनि के वारणार्थ 'कार्यसन्भव' ऐगा तृतीय अन्यथानिद्ध के वारीर में कहा गया है। अर्थात अन्यत्र क्लृप्तनियन पूर्ववर्ती से कार्य की संभावना हो तो उसका महभून तृतीय अन्यधासिद्ध है । घटजातीय के प्रति क्लृप्त केवल दण्ड से घर कार्य की उत्पत्ति नामुमकिन है । अतान पंचमी का अर्थ ज्ञानज्ञाप्यत्व होने पर केवल दण्डज्ञानज्ञाप्य घटोत्पनि यहाँ नामुमकिन बनती है, क्योंकि केवल दण्ट में घटोत्पाद की व्यामि नहीं है । इसलिए केवल दण्ड से चक्रादि में नृतीय अन्यथासिद्धन्द की आपत्ति का निरास हो जाता है।
* पाकगगन पे रूपuTHIमें ज्यशादित की ipl * पुर्वपक्ष :- नन्च, । यहाँ पंचमी विभकि का ज्ञानज्ञाप्यत्व अर्थ अन्य कार्य के प्रति कटप्पनियतपूर्ववर्ती का, जिमचे ज्ञान से कार्योत्पत्ति ज्ञाप्य है, सहभूत प्रकृत कार्य के प्रनि तृतीय अन्यथामिद्ध है - दोसा अर्थ करने पर नो पाकज गन्ध के प्रति रूपागभाव गन्धपागभाव में नृतीय अन्यथासिद्ध नहीं हो सकेगा । इसका कारण यह है कि पाकन गन्ध के पनि क्लुमनियतपूर्ववर्ती गन्धप्रागभाव ही केवल गन्यापान का व्याप्य नहीं है किन्नु रूपप्रागभाव भी पाकज गन्धो पनि का व्याप्य है, क्योंकि रूपयागभान का गन्धप्रागभाव च्याप्य है । जहाँ जहाँ गन्धप्रागभाव रहना है वहाँ नहीं रूप का भी प्रारभाव अवश्य रहता है । अत: कवल गन्धप्रागभाव में यानी रूपप्रागभावशून्य गन्धप्रागभाव में पाकज गन्ध की न्यायता नहीं है। अनः रुपनागभावान्य गन्धप्रागभाव के ज्ञान में पार.जगन्धोत्यांच की ज्ञप्ति (जाप्यता) नामुमकिन है। इसलिए गन्धप्रागभाव की भांति संपप्रागभाव का भी कलमनियतपूर्ववर्ती पद में गृहण हो जायेगा। तब ना पाकज गन्य के प्रति गन्धप्रागभाव से रूपप्रागभाग नृतीय अन्यथामिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह क्लुप्तनियतपूर्ववर्ती में मित्र - सहभूत नहीं है।
पतेन. । अतएव यहाँ यह वचन कि → 'जिमका प्रधगान्ययव्यतिरेक अप्राप्त हो और जो कप्तनिस्तपूर्वनिमत हो वह प्रकृत कार्य के प्रति अन्यधापित है। जैसे नघट के प्रति गसभविशेष, क्योंकि पृथगन्वयतिग्क का प्रतियोगी गधा नहीं बनता है' -भी निरस्त हो जाता है, चूंचि गभग्रानभाव की भांति रूपप्रागभाव का भी प्रधगन्चयन्यतिरंक मिलता | है । जर, में गन्धशागभार को जार का भी उत्पनिक्षणादन - परागभाव रहता है । रुपागभार में प्रधगन्धयतिंरक