Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 328
________________ तचिंतागपासनादः यथा घटं प्रति कुलालेन तत्यिता । साक्षादहेतोस्तस्य कुलाले घटजनकत्वे ज्ञात एव तदारा तस्य पूर्वभावग्रहात् । अथैवं स्वजन्यशमि प्रति घटजनकत्वं गृहीत्वैव तदन्दारा दण्डे घदपूर्ववृत्तित्ववहाद दण्डोऽपि तया तत्रान्यथासिष्टयेत, अन्यथा कुलालेन कुलालपिताऽपि न तथा स्यात, तुल्ययोगक्षेमत्वादिति चेत् ? 'अन्यं प्रति पूर्ववृतिताघटितरूपेण व्दितीयेनैव कुलालपितुरन्यथासिन्दिः । -* गयलता *यं = प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववृत्तित्वं = अवश्यक्लृप्तनियतपूर्ववृत्तित्वं गृहीत्वैव स्वस्य तत्त्वग्रहः = प्रकृतकार्य प्रति पूर्ववृत्तित्वबंध: तत्र = प्रकृतकार्ये स्वं = स्वपदप्रतिषाचं अन्यथासिद्धं इनि 'पञ्चमम् । अत्रौदाहरति - यथा घटं प्रति कुलालेन तत्पिता = कुलालपिना पञ्चमाऽन्यथासिद्धः । न च कुलालस्य बटं प्रति अवश्यक्तृप्तनियतपूर्ववृत्तित्वमज्ञाचा कथं न कुलालपिनुः घटं प्रति पूर्ववृत्नित्वं गृह्यते ? इति वाच्यम्, व्यवहितपूर्वकालवृत्तित्वेन साक्षात् = स्वाव्यवहितीनरत्वसम्बन्धन अहेताः = स्तुत्वन्यरस्य तस्य = कुलालपितुः कुलाले घटजनकत्वे ज्ञात एव = घटजनकन्वं गृहात्वैव, तद्वारा = स्वजन्यद्वारा तस्य = कुलालपितुः घटं प्रति पूर्वभावग्रहात् = पूर्ववृत्तित्वभानसम्भवात् । न चैवमपूर्वण यागम्य विणात यसरवम्बरू, स्वर्ग प्रत्यतदन्यथामिद्धतापत्तिः साक्षादहतो: यागरगापूर्वे स्वर्गजनकत्वं गृहीत्वैव नदद्वारा नस्य स्टग प्रति पूर्वभावग्रहादिति वाच्यम, अपूर्व स्वर्गजनकत्वमविज्ञायाधि विहितत्वन यागस्य स्वर्गजनकत्वज्ञानसम्भव नाथकाभावात । वस्तुतः यागस्य स्वगजनकत्वं ज्ञात्वेबापूर्वस्य तथात्व. ग्रह इति नापूर्वेण यागस्यान्यथासिद्धिः । तदुक्तं गङ्गेशेन - 'यत्र जन्यस्य पूर्वभावं ज्ञात्या जनकस्य तद्ग्रहस्तत्र जन्यन जनकमन्यथासिद्धम् । यत्र तु जनकस्य पूर्वभावं ज्ञात्वा जन्यस्त तद्ग्रहस्तत्र तद्वारा जनकत्वं यागस्येवा-पूर्वद्वारा' (ल.चिं.) इति । अघ एवं = जन्यस्य पूर्ववृनित्वं ज्ञात्वैव जनलस्प नद्वारा पूर्वमित्वग्रहे जनकस्यान्यथासिद्धत्वमित्येवं प्रतिपादने. स्वजन्यभमि प्रति दण्डस्य घटजनकत्वं गृहीत्वैव तद्धारा = स्वजन्यभ्रमिद्वारा दण्ड घटपूर्ववृनित्वग्रहात् साक्षादहेतुः दण्डाऽपि तया = स्वजन्यभ्रम्या तत्र = घंटे अन्यथासिध्येन = अन्चार प्रसज्येत । अन्यधा = स्वजन्यस्य कार्यपूर्ववृत्तित्वं गृहात्वंव स्वस्य कार्यपूर्ववृनित्वज्ञानेऽपि दण्डो स्वजन्यभ्रनिद्वारा नान्यथासिद्ध इत्य इगाकारे तु कुलालेन = स्वजन्यकुलालद्वारा कुलालपिताऽपि घटं प्रति न तथा = अन्यथासिद्धः स्यात्, युक्तरुभयत्रैव तुल्ययोगक्षेमत्वान अन्यथाऽर्थशरप्रसङ्गादिति चेत् ? अत्रोच्यत 'अन्य प्रति पूर्ववृत्तिताघटितरूपेण यस्ट यं प्रति पूर्ववृत्तिता गृहान तत्र तदन्यथासिद्धमिति द्वितीयन : पूर्वोक्तेन द्वितीयान्यथासिद्धलक्षणेन एच घटं प्रति कुलालपितुः अन्यथासिद्धिः । राधा काशस्य शब्दजनकत्वन घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वग्रहाद् घटं प्रति द्वितीयान्यथासिद्भत्वं तथा कुलालपितुः कुलालजनकत्वेन घटं प्रति पूर्ववृत्तित्वज्ञानाद घटं प्रति द्वितो. का ज्ञान हो तो प्रकृत कार्य के प्रति अपने में पाम अन्यथामिद्धत्व होता है । जैसे कि घट के प्रति कुलाल से कुलालपिना. अन्यथासिद्ध होता है । कुलालपिता नो साक्षात घट का हेतु नहीं हो सकता है । इसलिए कुलाल के द्वारा कुलालपिना को घट के प्रति पूर्ववर्ती मानना होगा। मगर जब तक कुलाल में घटजनकत्व का, जो घटनियतपूर्ववृत्तिता से घटित है, ज्ञान न हो तब तक कुलाल के द्वारा कुलालपिता में एटपूर्ववृत्तिता का ज्ञान नहीं हो सकता है । इसलिए कुलालपिता घट के प्रति कुलालद्वारा पश्चम अन्यथासिद्ध सिद्ध होता है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि → 'यटि अपने कार्य में किसीके प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान होने के बाद ही अपने में किसी कार्य के प्रति पूर्ववृत्तिता का ज्ञान हो तब अपने में पचम अन्यथामिद्धत्व आयेगा, इस नियम का स्वीकार करने पर तो दण्ड भी घट के प्रति अन्पयासिद्ध बन जायेगा, क्योंकि दण्डजन्य मिक्रिया में घट के प्रति पूर्ववृत्तिव का ज्ञान होने पर ही दण्ड में घट के प्रति पूर्ववृत्तित्व का भान होता है। फिर भी दण्ड को दण्डजन्य भ्रमिक्रिया के द्वारा अन्यथासिद्ध न माना जाय तब तो घट के प्रति फुलालपिता भी कुलाल से अन्यथासिद्ध न हो सकेगा, क्योंकि दोनों पक्ष में आक्षेप और समाधान तो नुल्य ही है । यह कथन अयुक्त होने का कारण यह है कि घट के प्रति कुलालपिता द्वितीय अन्यबासिद्ध के परिप्त लक्षण में द्वितीय अन्यधासिद्ध हो जाता है। यहाँ यह कहा गया था कि • 'अन्य प्रति पूर्ववृनिनाटिनरूपेण जिसकी पूर्वनिता का प्रकृत कार्य के प्रति ज्ञान हो वह प्रकृन कार्य के प्रति अन्यधासिद्ध है । कुलारपिता में कुलानापतृत्वेन घटपूर्वनिता का ज्ञान होने से कुलालपिता घर के प्रति अन्यथासिद्ध होता है । कुलालपितृत्व तो कुलालात्मक अन्य कार्य के प्रति पूर्वलिन से घटित ही है - इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है। दण्ड में तो दण्डत्वेन घटकारणता का भान होने से दण्ट घट के प्रति अन्यधासिद्ध नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363