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*रामरूदमतप्रकाशन अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्वे ज्ञात एव यं प्रति यस्य पूर्ववृत्तित्वं गृह्यते तत्र तद हिलीयम्,
-* जयलाता * - रामद्रस्त 'कारणान्नराऽघटितसम्बन्धन नियतान्चयन्यतिरेकान्यत्वे अनि येन मह पूर्वनावः तदन्यथासद्भूम । दण्डरूपव्याप्तिवारणाय सत्पन्नम् । सत्यन्तमानौती चक्षपा-पि वाक्षणं प्रनि अन्यथासिद्धिः स्यात, तातियोगिकर्मयोगस्य चाक्षषं प्रति कारणत्वन तताम्बन्धनैव चक्षुषः कारणत्वात् । अनः विशेष्यदलमिति (न.सं.रा.प्र.२३३) व्याचले ।
इतरान्वयन्यनिरंकशालि यत्तदन्यथासिमिनि त परे । स्वेतरान्चयन्यतिरेकप्रयुकान्वयव्यतिरेकशालि यननन्यथासिद्धमित्यपि कश्चित् ।।
तत्कार्यकारणाघटितसम्बन्धावचिदन्ननियतपूर्वनिताइन्यत्व सनि नियतपूर्ववृत्तित्वमन्यथासिद्धत्वन् । घटं प्रत्यनियतपदार्धाना कारणताघटकशिपोनर रलवान सरणान्चालित रूपपरिचापकधर्मवत्वमावश्यकमती नियनपूर्वदनिवनिवेश इत्यपरे ।
____ अवसरसङ्गनिकलितं द्वितीयान्यथा सिद्धलक्षगमायदयात - अन्यं प्रति पूर्ववृत्तित्व = प्रकृतकायनिरिक्त कार्यनिरूपिनवृत्तित्व, अन्यपदस्य प्रकृतकाभिन्नकार्यपरत्वात् । ज्ञात एव = ज्ञानविपर्य सत्येच, नाशपूर्ववृतित्वज्ञानानन्तरमेवनि यावत । यं पनि यस्य पूर्ववृत्तित्वं गृह्यने = यनिरूपितयनिष्ठभूमि छानविषयतादित्यर्थः, तादापूनित्यज्ञानं भवतीति यावत् । तथा चान्यपूर्ववृतित्वज्ञानस्य प्रकृत-कार्यपूर्ववृत्तित्वज्ञानहेनुत्वलाभानु तादृशकार्यकारणभावबालादन्यपूर्वनित्वम्य प्रकृतववृत्तितावच्छेदकल्लसिद्धिः । एवञ्च प्रकृतकार्यातिरिक्तकार्यनिरूपितनियतपूर्ववृत्तिवर्घाटनधर्मावच्छिन्नप्रकृतकार्यनिरूपिननियतपूर्वनिताश्रयत्वं प्रकृतकार्य
सिद्धत्वमिति फलितमिति भावः । एतादशान्यथासिद्धमदाहरति - यथा घटादावाकाशमिति । दमन्दं प्रति पूर्व वृनिले ज्ञाते एव यदादिकं प्रति गगनस्य पूर्वनिग्रहान तत्र घटादी आकाशस्य द्वितीयान्यभागिद्धत्वम् । अयमाायं. बिना काशत्वज्ञानादाकाशं घटपूर्ववृत्तीतिज्ञानासम्भवादाकाशत्वस्य घटादिपूर्ववृत्तितावच्छेदकल्वसिदिनुभवबलादायाता । आकाशत्वञ्च न जातिः, न्यक्करभेदात्, स्वाश्रयनिष्ठरवाश्रय प्रतियोगिक भेदाभावादिति यावत् । किन्तु शन्दसम्बायिकारणत्वं हि तंत् । तच्च शब्दपूर्ववृत्तित्वटितमिनि शब्दसमवायिकारणत्वस्वरूपाकाहात्वेनाकावास्य घटपूर्ववृत्तित्वग्रहादाकाशस्य प्रकृनघटादिस्वरूपकार्यभिन्नशब्दस्वरूपकार्यपूर्ववृत्तित्वघटितशब्दसमवायिकारणत्वरूपानात्वावच्छिन्नघटादिरूपकार्यनिरूपितनियतपूर्ववृत्तिताश्यत्वरूप द्वितीयान्यज्ञान का अभाव ईश्वरज्ञानाभावप्रयुक्त कैसे हो सकेगा ? कथमपि नहीं । इसलिए ईश्वरज्ञानविरहप्रयुक्त अभाव के प्रतियोगी ज्ञान के विषय दण्डनिष्ठ थटपूर्ववृत्तिता ही नामुमकिन होने से टएर में ईश्वरज्ञान को ले कर अन्यथासिद्धत्व को आपत्ति आ सकती नहीं है। यदि पूर्वोक्त 'यदन्वय व्यतिरेकभिन्नान्वयव्यतिरेक की प्रतियोगिता के आश्रय में कार्यपूर्ववृत्तित्व का ज्ञान होना' एसी विवक्षा में प्रथम अन्यधासिद्ध के लक्षण की प्ररूपणा की जय नर इस लक्षण के शरीर में पत्रकार के निवेश की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब बिना एवकर प्रयोग के भी किसी दोप की संभावना नहीं रहती है । इस तरह प्रथम अन्यथासिद्ध के लक्षण का निरूपण पूर्ण हः ।
दितीय अन्यथासिल गग प्रतिपादन अन्य । अब कारणशरीर के घटक अन्यथासिद्ध के द्वितीयभेद का प्रकरणकार नैयायिकमतानुसार निरूपण कर रहे हैं। किसी अन्य कार्य के प्रति जिसके पूर्ववृत्तित्व (=कारणची का ज्ञान करने के पश्चात् दी जिस कार्य के प्रति उसके पूर्ववृतित्व (=कारणत्व) का ग्रहण किया जाता है वह उस कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध होता है जैसे घर के प्रति आकाश आकाया नित्य एवं व्यापक है । अतः वह कार्यमात्र के प्रति नियत पूर्ववृत्ति है। एवं घट के प्रति भी निपनपूर्ववृत्तित्वरूप कारणत्व आकाश में मिट्ट ही है। परन्तु घट के प्रति आकाश को आकाशवेन रूपेण कारण मानना होगा। मगर आकारात्व क्या वस्तु है ? यह पूछने पर कहना होगा कि शब्दसमवापिकारणत्व । इसका कारण यह है कि शन्द जन्यगुण होने की बजह द्रव्यहेतुक ही होगा। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि -> 'शब्द भले ही जन्यगुण ही मगर द्रव्यहतुक न हो तो क्या बिगड़ा !' <- क्योंकि जन्यणमात्र के प्रति द्रव्य समवायिकारण होता है । यदि गन्द में जन्यगुणत्व के होते हुए भी द्रव्यसमनायिकारणकत्व को न माना जाय तब नो जन्यगण एवं द्रव्य के बीच प्रसिद्ध उपर्युक्त कार्य-कारणभाव का भंग हो जायेगा । इस विपक्षबाधक तर्क की सहायता से एवं शब्द के प्रति घटादि में निवतपूर्ववृतिता न होने से आकाश में ही शब्दसमवायिकारणत्व की सिद्धि होगी । शब्दसमरापिकारणत्वरूप आकाशत्व धर्म से आकाश को घटपूर्ववर्ती मानने पर