Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 310
________________ *अनिप्रसकधर्मणाप कारण बाधविचार: किन्तु 'अन्या क्लुप्ते'त्यादिनैव तेन रूपेणान्यधासिन्दिः । नि:कृष्टे तत्रैव तत्सम्बाधापेक्षया लाघवकृतावश्यकत्वस्याऽप्रवेशेऽपि कारणाल्पत्वकृतलाघवस्य प्रवेशात् । -* जयललता *अन्वयव्यतिरेकसम्भवात = अन्ययव्यतिरकप्रतियागित्वभानसम्भवान्, अन्यथा प्रथम, जलवे स्नेहममवायिकारणनावच्छेदकता गृहीत्वा जन्यजलसे जन्यम्नेहत्वावन्छिन्त्रसमवायिकारणतावच्छेदकत्वप्रतिपादनमपि दिलाध्येत । इत्थं प्रथमं कदाचिदानप्रसक्तर्मणाःपि कारणत्वग्रहस्यानपलपनीयत्वात् 'पूर्ववृत्तिन्वपदस्यान्चपनिरकप्रतियोगित्वार्थकस्वरवीकारऽपि न रूपन्न दण्डरूपादौ घटकारणत्ववारणसम्भवः किन्तु 'अन्यत्र क्लृप्त 'त्याटिनेव तृतीयाचासिद्धलक्षणेन तेन रूपेण = रूपत्वेन दरदरूपांडः घट पनि अन्यथा. सिद्धिः । दारं चिनव रूपत्वम दण्डरूपादः वरं प्रनि अन्ययव्यतिरकनियांगित्वग्रहण प्रथमान्यथासिद्धलक्षणानाक्रान्नन्वपि अन्यत्र कलप्तनियतपूर्ववर्तिनः दण्डादेव घटलक्षणकार्यसम्भवे तत्सहभूतत्वेन दण्डरूपादस्तनीयान्यधासिद्धत्वाकान्तलेन घटकारणत्या - नापातात, अनन्यवासिद्धत्वलक्षगचिरहप्रयुक्तानन्यथासिद्धत्वविशिनियनपूर्ववृत्तित्वप्रतियागिकाभावाश्रयत्वान् । ननु वक्ष्यमाणतृतीयान्यथासिद्धलक्षण निष्क सम्बन्धर्मिनलावयकृतावस्यकत्वस्य न प्रवेशा येन दण्डरूपस्य स्वाश्रयजन्य - व्यापारसम्बन्धनान्वयव्यतिरकप्रतियागिन्यान स्वजन्यन्यापारसम्बन्धापछिकान्ववन्यतिरकप्रतियोगिदण्डापक्षया नावश्यकत्वं स्यादिति न घटं प्रति रूपत्वेन दण्डरूपस्य तृतीयान्यथासिद्धलक्षणाक्रान्तत्यम । नापि प्रदर्शितरीत्या प्रथमान्यथासिद्धलक्षण क्रान्तत्वम् । नापि वक्ष्यमाद्वितीयाग्रन्पधासिद्धिलक्षणकलितत्वम् । ततश्च घरं प्रनि रूपवन दण्डरूपस्या-नन्यथासिद्धत्वमपरिहार्यम्, विशेषाभावकटस्य सामान्याभावस वक्त्यादिमाशड़कायां नैयायिका व्याचक्षत- निःकृष्टे - पर्यवसिते तत्रैव = तृतीयान्यधासिद्धलक्षण पव. तत्सम्बन्धापेक्षया लाघवकृतावश्यकत्वस्य = तत्सम्बन्धकृतलाययप्रयुक्तापदयकत्वस्य अप्रवेशाप = अघटकल्यःपि कारणाल्पत्वकृतलाघवस्य प्रवेशात = यक्ष्यमागतृतीया पथसिद्धलक्षणघटकत्वात् वदं प्रति पल्मन दारू पम्य कारणले ददायघटीय-पीयादिम्गेषु घटकारणचकल्पनापत्त्या करणवाइल्येन म.पत्वेनानावत्यकल्लान्नायान्वयामिगत्वमेर घटं प्रति रूपवन मपेण दण्डकपस्य । न च रूपत्वन कारणवकल्पन कार पाहल्या पन्या दरम्पत्वेनैव दादरूपम्य पटं प्रनि कारणल्वमस्त्विति उनका यह कथन है कि , रूपन्च भले ही दण्डरूप को छोड़कर घटरूप, पटरूप आदि में भी रहने से अतिप्रमक हो मगर यह कोई नियम नहीं है कि अतिरिक्तवृनि धर्म स कारणता अवच्छिन्न नहीं ही होती है । अतिप्रसक धर्म से भी कदाचित कारणता का स्वीकार तो जलबजाति में स्नहसमवापिकारणतावदकत्व के प्रथम भान को मान्य करनेवाले नयायिकों ने किय ही है । तब तो पूर्ववृत्तिवपद का कार्योत्दान्वयतिरेकप्रतियोगिल अथं करने पर भी रूपत्वेन दण्डरूप में घर के प्रति कारणतः की आपत्ति का निवारण नहीं किया जा सकता, क्योंकि दण्ड के साथ ही दण्डरूप में पटपूर्ववृनिता = घटोत्पादान्वयव्यनि प्रतियोगिता का भान हो - यह असिद्ध है । तब ना घट के प्रति टपररूप में अनन्यथासिद्धत्व का निवारण प्रथम अन्वयासिद्ध के लक्षण से कैसे हो सकेगा ? फिन्त विचार करने पर यहाँ यही मानना संगन प्रतीत होता है कि दण्डरूप में भले ही प्रथम अन्यथामिद का लक्षण न रहता हो मगर 'अन्यत्र कलम...' इत्यादि वक्ष्यमाण तृतीय अन्यथासिद्ध का लक्षण म्ह जाने में दण्टरूप में बद के प्रति अन्ययासिद्धि निगवाथ है। अवध्ययलप्त नियन पूर्ववनी दण्ड से ही घट = कार्य की उत्पनि मुकिन हाने से तत्सहभ्न दररूप तृतीय अन्यशगिद्ध बनता है। इसलिए नपरूप में तृतीय अन्यथासिद्ध के लक्षण से ही घटकारणत का निराकरण किया जा सकता है, न कि प्रथम अन्यधासिद्ध के रक्षण में . यह फलित होता है। नि:कर । पदि यहाँ यह शंका हो कि - 'घद के प्रति रूपवन दण्डरूप में कारणता का वारण तृतीय अन्नधामिद के लक्षण से करना संगत नहीं है, क्योंकि परिष्कृत तृतीयान्यधासिद्धलक्षण में सम्बन्ध की अपेक्षा लाघस्कृत आवश्यकता का निवेश नहीं किया गया है । इसलिए दण्डरूप को स्वाश्रयजन्यन्यापारसम्बन्ध से घटावी मानन की अपेक्षा इण्ट को स्वजन्यन्यापारसम्बन्ध में घटपूर्ववर्ती मानना जावश्यक होने में दण्डकप अनावश्यक है, ऐसा नहीं कहा जा सकता । अतः रूपत्वेन दण्डप में अनन्यभागिद्धव की आपति वा परिहार नहीं हो सकना' - नां यह ठीक नहीं है, क्योंचि तुतीय अन्यबासिद्ध के लक्षण में सम्पन्न की अपेक्षा लापवत आवश्यकन्व का भल निपंश न हो नगर कारणाल्पत्वलाधवकृत आवश्यकत का तो निनश किया गया ही है। रूपत्वेन दण्डरूप में घटकानणना का स्वीकार करने पर दण्डरूष की भांनि घटरूप, पटरूप, पवरूप आदि में भी घटकापणना को मान्य करना पड़ेगा. जिसकी वजह कारणाहुल्यप्रसन होना है। इसकी अपेक्षा दण्ड का ही कारण मानन में कारणामलापक्रन आवश्यकल दण्ट में रहता है । अनः रूपलेन टण्डरूप में अनावश्यकता सिद्ध

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