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१२२ मध्यमस्याद्वादरहस्य खात: ३ का.११ * बदाषिकसूत्रसंवादः * विपश्चित, स्वस्मिन् सुख-दुःवहान्यतरमात्रस्यैव काम्यत्वात् ।
अथ कण्टकविन्दचरागस्य चरणावच्छेदेन तत्कामनादर्शनात् स्वशरीरावच्छेदेन तत्कामनाऽप्यविरुदेति चेत् ? तर्हि विशेषदर्शिनस्तव सकलशरीरावच्छे देनैव तत्कामनौचित्यात प्रतिनियतप्रवृत्यनुपपत्तिः । अपि चाहष्ट-फलयो; प्रतिनियरदर्शनानानात्मान एव व्यवतिष्ठन्ते ।
जयलता * नकानाबलोकनादाविच्छा ? मामान्यधर्मावच्छेदन सिद्धत्वधीस्त याबदाश्रयसिद्धत्वधियं विना विपदर्शिनो न सम्भवजि तथाप्या. त्माद्वतनयं त्वात्मत्वावच्छन्दना विजानीयसुखस्वरूपस्वर्ग-कृतनदारवध्वंसात्मकापवर्गसिद्धत्वज्ञानसम्भवान्न यम-नियमासन-प्राणायाम. प्रत्याहार-धागणा-यान-समाधिपनिकी -प्रयत्न-प्रवृत्निसम्मद इति तात्पर्यम् । एतेन स्वरिमन सुखस्य सिद्धत्वेपि ननरीगवच्छेदन तदज्ञानान्न यमादा प्रबन्यनुपरत्तिरिति परास्तम्, यतो न च = नव तत्तच्छरीरावदेन = अवच्छेदकनासम्बन्धेन तनछरीरे, सुख-दुःखहान्यन्यतरकामन्या प्रवर्तते कन्चिद्विपश्चित्, स्वस्मिन्नेव सुख-दुःखहान्यन्यतरमात्रस्य स्वतः काम्यत्वात् । अन्यथा तयोः पुरुषार्थत्वहान्यापन:, 'यज्ञानं सत्त्वत्तिनयेच्यते स पुरुषार्थ' इति तदक्षणात. स्यनित्यनकारिका या ज्ञानजन्या अन्यकामनानर्धानकामना नद्विपयत्वं पुरुषार्थत्वं इति नदधात् । ततश्चाद्वैतमन सुखात्मकस्य दुःखोच्छेदस्वरूपस्य वा मोक्षस्या-पुरुषार्थत्वापत्तिबारवेत्यर्थः ।
बदाम्नी शकते - अथ कण्टकविद्धचरणस्य अविद्रोपदर्शिनः पुरुषस्य चरणावच्छेदेन = अवच्छेदकनया चरणे तत्कामनादर्शनात - सुख-द:खानछेदन्यनरकाममोपालब्धः तदेव स्वशरीरावच्छेदेन अपि अविशेषदर्शिन: पुरुपस्य तत्कामना - सुखदु:खोच्छेदान्यनराभिलाषा अविरुद्धा इनि सङ्गच्छत इति चेत् : तर्हि विशेपदर्शिनः तब वेदान्निनः सकलशरीरावच्छेदेनेव = अनन्छदकतासम्बन्धन चैत्र-मैत्र यन्नदन-दबदनादिनिखिल शरीरप एव तत्कामनीचित्यात = सुख-दु:खाभावान्यनराभिलाषस्य न्याय्यत्वात् न त अवच्छेदलतया स्वशरीर एव, अन्यथा वरिमन्नात्मनि परशरीरावच्छेदन द:खारिष्टत्वापनः । तथा च प्रति नियतप्रवृत्त्यनुपपत्तिः सर्वेषामेव दारारिणां यमादी प्रवृत्तिः स्यान्न वा कस्यचित, अविशेषान् । इत्यञ्चाल्माद्वैत प्रवृत्ती नयत्यमनुपपत्रम ।
अपि च अदृष्ट -फलयोः प्रतिनियमदर्शनात् । धांदीना सामानाधिकरण्यन सुखादिजनकत्वनियमादित्यर्थः । तदुक्तं वैशेषिकसूत्रे 'आत्मान्तरगणानामात्मान्तरेऽकारणत्वान' (वै.मू. ६/१/-) इति । व्याख्यातश्च न्यायकन्दल्यां श्रीधरेण 'आन्मान्नरगुणानां सुखादीनां आत्मान्तरण सुखादिषु कारणत्वाभावात् धमाधर्मायारन्पन्न वर्तमानयोरन्यत्रारम्भकत्यमयुक्तमिनि (प्र.पा.मा.न्या.क.पू.२:०) । नतः नानात्मान एच व्यवतिष्ठन्ते । प्रतिगरी निन्ना एय आत्मानं न लभिन्ना इत्यर्थः ।
आत्मा में स्वर्ग = सुख एवं मुक्ति = दुःखाभाव होने पर भी अपने शरीर में सुख या दुःखाभाव की निप्पत्ति की कामना से यम-नियम आदि में मुमुक्षु की प्रवृत्ति हो मकती है' - यांकि नर दारीर में अवच्छेटकनासम्बन्ध से सुख या दुःखाभाव उत्पन्न करने के लिए किसीकी कामना नहीं होती है। कोई भी मुमुक्षु आदि अपने में ही सुख की प्राप्ति एवं दुःस के धंस की कामना रखता है । इस तरह परमार्थ में स्ववृनित्वेन मुख-दु:खध्वंसान्यतर ही काम्य = कामनाविषय बनना है। यह सिद्ध होने पर स्वशरीरवृत्तिवन मुम्ब या दुःखाच्छेद कैसे काम्य बनेंगे ? क्यमपि नहीं । अत: अनवाद में ना मुम्वाति के लिये यमादि में प्रवृत्ति ही नामुमकिन रन जायेगी ।
अनुष्का शरीरातलंदेन सुखकामना असंभव जथ. । यहाँ यह शंका हो कि. -> 'जब अपने पांव में काँटा भ जाता है नब अपने चग्णावच्छेदेन दानहानि की या मुख की कामना देखी जाती है, न कि अपने में । ठीक इसी तरह अपने शरीरावांछंदन भी दुःखोच्छंद या सुख की कामना हाने में कोई विगंध नहीं है । चैत्रात्मा, मैत्रात्मा, दबदनामा परस्पर अभिन्न होने पर भी चत्रीय, मंत्रीय, देवदत्तीय शरीर में भिन्नता ही है। अतः शरीगवच्छेदेन सुरख की या द:खोच्छेद की कामना का स्वीकार किया जा सकता है। <• तो यह असंगत है। इसका कारण यह है कि सामान्य अवथ लोगों को भले ही चरणावच्छेटेन या स्वारीरावच्छदेन सुवादि की कामना हा मगर आप चान्ती तो बुद्धिमान है. विशंपनी है। 'यत्किंचित वासरावच्छेदेन द:खध्वंस होने पर भी सकलवारीरावच्छंटेन दाम्बोच्छेद नहीं हो पायेगा, अन्य शगरावच्छेदन मेरे में ही दःख रह जायेगा' एसा आपको ज्ञान होने की वजह आपके लिए नो मकलशगरावन ही सुखादि की कामना होनी उचित है । तर नो केवल तुम यम-नियम आदि में प्रनि कगंग नो भी सकल शरीगवच्छेनेन द:ख का अय हो जायेगा । इस परिस्थिति में प्रवृति का नियमन नहीं होगा । चैत्र, मैत्र शरीर