Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 287
________________ १२. मध्यमस्या दादरहस्य : ३ का,११ * आत्मनिष्टप्रत्यासन्या कारणापपादनग * त्यत्तिवारणायात्मनिष्तसम्बन्धेनैव हेतुत्वौचित्यात् । चाक्षुषादेश्चक्षुरादिना विषयमनोयोगाद्यभावेनैवाऽनापत्तेः । वस्तुतो विजातीयात्ममनोयोगस्यैवात्मगानसत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वकल्पनमुचितम, तस्य -* जयलवा - = आत्मगौचरमानसप्रत्यक्षात्यालनिवारणकृत वमनोयोगस्य आत्मनिष्ठसम्बन्धेनैव = समयापेनेव हेतुत्वीचित्यात् । चैत्रीयत्वङ्मनः. संयोगस्य समवायेन चैत्रात्मवृत्तित्वं न तु सप्तमंत्रात्ननितम् । अना न सपती त्रस्पात्ममानसदयसम्भवः, सामग्रीविरहान । किन्त्येवं सति नानात्मसिद्धिः परेषां दुर्निवारा, अन्यथा नही पताटवस्थ्यात् । न चात्मनि प्रत्यासत्या त्वङ्गममायांगम्प ज्ञानका. रणव कथं सुषममत्र नात्ममानसोदयग्रसङ्ग ईन वान्चम, तदानी मंत्रात्मनि वड़मनोयोगस्व विरहात. 'यादा मनः म परिहत्य पुरीततिमविशति नन्दा सुपप्तिः' इति वचनात् । चैत्रायवङ्मनोयोगस्य चनात्मनित्वं. न तु नेत्रात्मनिवमिनि न तन्नमङ्गः । न चापं जाग्रदयस्थायां मैत्रे निर्मालिनमंत्र घटवाश्नपप्रसङ्गस्य दुरिल्लाम, मंत्रात्मनि त्वङ्गमनायांगस्य नदानी मत्वादिति वक्तव्यम्, लड़मन:संयोगस्य ज्ञानत्वावच्छिन्न प्रति हतत्त्वपि वाक्षषादी विषयवक्षयोगस्य चमनीयांपादश्च विशिष्य हेतृत्वात, नेत्रगलगिधानदशायां चावपादेः चक्षुरादिना विषयमनोयोगाद्यभावनवाऽनापसेः । न होकस्मादव कारणास्वंतरकारणविकलाकार्यापादानमहतीति पूर्व वा उक्तल्वात् । वस्तुतस्तु त्वहमनः संयोगस्य जन्यज्ञान सामान्य कारणनमय नास्ति. नाप्दाभावात्त । न चवं सति नस्या समवायिकारणजन्य. त्वानुपपनिारति वाच्यम्. आत्मविशेषगणं प्रति कलात्ममनः संयोगत्वनाउसमायिकारगतस्वीकारणव नस्याऽप्यसमवायिकारणजन्यल्योपपनेः । अत पय सुषप्तिकाले जीवनयोनियत्नांपपनिरपि सहगछतं किन्तु परात्मनः परेण मन्मा मषुप्तिकाले बयात्मनः च स्वीयमनसा प्रत्यक्षापनिवारणाप परात्मवृत्निवीयमन:संयोगव्यावृनं स्वात्मवृत्निसुषुप्तकालीनस्वीयमन:संयोगञ्याबृनं च वैनात्यमगीकृत्य तत्पुरस्कारेगात्मगन:संगांगरयात्ममान प्रति हतत्वं करप्यांत । अनेनैव सपती ज्ञानांत्यादवारणसम्भने लड़मनायगरप जन्यज्ञानत्वावजिन्न प्रति नकारणत्वमिन्यादान प्रकरणकार आहे - वस्तृत इति । इदच नवीननयायकमतेनोक्तम् । अयमाशायः तेंपाम् । सुषप्त्यव्यवहितप्राककाल ज्ञानोत्पनियदि स्यानदा तत्प्रत्यक्षापनिभिया त्वमनसंयोगस्य हेतुत्वं सम्भवति । सैच तु न युक्तिसिन्दा । नाहि सुषप्त्यनुकुलमनःक्रियया मनसा आत्मनो विभागस्तन आममन:संयोगनाश तत: पुरीनतिरूपाना. देशेन मन:संयोगरूपा सएप्तिसत्पद्यते । एवञ्च सपप्त्यव्याहतपूर्व आत्म्मन संयोगरूपासमवाधिकारणनाशात् तत्क्षणे ज्ञानी. आपत्ति नहीं दी जा सकती। सामग्रीविरह में आपादन कम हो सकता है । मगर ऐसा मानने पर चैत्रात्मा और मैत्रामा भिन्न सिद्ध हो जायेंगे, जिसका स्वीकार करने में वेदान्ती को जरूर हिचकिचाहद का अनुभव होगा। मगर प्रमाण में और अन्यथानुपपनि के बल गं गिद्ध होनवाली वस्तु का अपटाप करना भी आस्तिक के लिए नामनासिब है । इसलिए अनेक आत्मा का स्वीकार करना वेदान्ती के लिए भी अनिवार्य है। यहां यह शंका नहीं की जा सकती कि -> 'त्वङ्मन:संयोग को आत्मनिष्टप्रत्यारात्ति से ज्ञानमात्र का कारण मानने पर नो जागृत अवस्था में आँखें मूंद कर बैठे हुए मंत्रात्मा में त्वमनःसंयोग रहने के सबब घटचाक्षुप प्रत्यक्ष भाटि की भी आपत्ति आयगी' - इमका कारण यह है कि चाक्षप आदि के प्रति कंवर त्वङ्मनःमयोग कारण नहीं है किन्तु विषय के साथ वक्षु आदि इन्द्रिय का सम्बन्ध एवं चक्षुआरि इन्द्रिय का मन के साथ संयोग भी कारण होता है । आँख मूंद लेने पर मैत्र की वििन्द्रय का घट आदि विषय के साथ संयोग सम्बन्ध ही नहीं है नर अंकल त्वङमन संयोग से घटचाक्षप आदि के ज्ञान की उत्पत्ति का भागदन कैसे हो सकना ? कथमपि नहीं । सामग्री होने पर ही कार्य के जन्म का आपादन किया जा सकता है। इसलिए आत्मनिष्टप्रत्यापत्ति से त्वदमन:संयोग को ज्ञानमात्र का जनक मानना मुनासिब है । वरनुता. । वस्तुस्थिति को लक्ष्य में ली जाय नत्र यही मानना संगततर होगा कि आत्मविश्यक मानस प्रत्यक्ष के प्रति विजातीय आत्ममनःसंयोग कारण हैं । निद्रा अवस्था में व्यापक आत्मा का मन के साथ मंयोग होने पर भी वह मंयोग विजातीय = आत्मगोचरमानम्प्रत्यक्षकारणतावच्छेदकधर्माधान नहीं होने से तब मंत्र का आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष की उत्पति का आपादन नहीं किया जा सकता । यदि विजानीय आत्ममन:संयोग को शरीरनिष्ठप्रत्यासत्ति से आत्ममानस का कारण माना जाय तब तो स्पष्ट ही गौरय दोप प्रसक्त होगा, क्योंकि तब कारणतावदक सम्बन्ध माक्षात न हो कर परम्परया अवच्छेदकतामम्बन्ध बनता है एवं अवच्छंदकतासम्बन्ध में ज्ञान आदि के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से शरीर में कारणता का स्वीकार करना अपेक्षित बन जाता है । अत: आत्मा को अनेक मानना एवं शरीरपरिमाण मानना ही पुक्ति संगत प्रतीत होता है ।

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