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दागरनिउपन्यासत्या कारणा
तत्पक्षतर्कस्त्वात्मविभुत्वनिराकरणेऽनुपदमेव भावितः ।
सिद्धान्तस्तु → एवं सति सुषुप्तिदशायां मैत्रशरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानोत्पत्त्यापतिः चैत्रीयत्वमनोयोगादिरूपाया: समवायेन ज्ञानसामय्या अपि तदानीं सत्त्वात् । न च शरीरनिष्ठपरम्परासम्बन्धेनैव त्वमनोयोगस्य हेतुत्वान्न दोष इति वाच्यम्, तदानीमात्ममानसो* जयलता
निमित्तामपारमार्थिक विशेषचत्तामभिप्रेत्य जलचन्द्रसूर्याद्युपादीयते वेदान्तेषु यथाहावं ज्योतिरात्मा विवस्वानापी भिन्ना बहुकोनुगच्छन्न उपाधिना क्रियते भेदरूपी देवः क्षेत्रेष्वेवमजीत्यगात्मा' इति । तत्पक्षतर्कः = ब्रह्माद्वैतवादिमतन तु आत्मविभुत्वनिराकरणे नवचत्वारिंशत्तमकारिकादितः शान्तिं अनुपमेव भावितः किञ्चिचात्रामा विभावित एव । विस्तरस्तु शाङ्करभाष्याऽद्वैतसिद्धि-तत्त्वप्रदीपिका- सिद्धान्तविन्दु - वेदान्तकल्पलनिकादिभ्यो ऽवसातयः । गीरभयान्नेह प्रतन्यतेऽस्माभिः ।
व्यवस्थितः सिद्धान्तस्तु एवं सति = आत्मनी त्रिभुत्व एकच स्वीक्रियमाणं सति सुष्टुतिदशायां = सुषुप्त्युपधायःकात्ममन:पूर्वसंयोगनाशीत्यनिकाले तदुत्तरं व सुपुप्तिक्षरी आत्ममनी विभागकालोत्पन्नविशेषणज्ञानादिना मंत्र शरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन = स्वनिष्ठावच्छेद्यतानिरूपितादकतासंसर्गेण ज्ञानोत्पत्यापत्तिः = ज्ञानोत्पादप्रसङगस्य दुवारेलम चैत्रीयत्वमनोयोगादिरूपायाः चैत्रदशरीरावच्छिन्नस्पर्शनमन:संयोगप्रभृतिस्वरूपायाः समवायेन ज्ञानसामग्र्याः अपि तदानीं आत्मनि सत्त्वात् चैत्रमंत्रादिशरीरलक्षणोपाधिभिरवच्छिन्नस्यात्मनः सर्वगतत्वादेकल्याच । न च ततन्मनः संयोगलेन हेतुत्वान्नार्य दोष इति वाच्यम्, एवं विशिष्यान्नन्नकार्यकारणभावकल्पने महागौरवात् तदपेक्षया नागात्मकल्पनाया एवौचित्याच । न च शरीरनिष्ठपरम्परासम्बन्धेनैव = स्वाश्रयसंयुक्तसंयुक्तत्वसम्बन्धेनैव न त्वात्मनिष्टसमवायसम्वन्धेन त्वमनोयोगस्य हेतुत्वात् = ज्ञानादिकारणत्वात् नायं = सुषुप्तिकालं मैत्रशरीरे ज्ञानोत्यादलक्षणः दोषः तदानी चैत्रीयत्वमनीयांगस्याश्रयीभूतेन मनसा संयुक्तस्येन्द्रियस्य मंत्रशरीरा संयुक्तन, स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्धेन मंत्रविद्यमानत्वादिनि वाच्यम्, एवं सति मैत्रसुपुनिदशायां. चैत्रीयत्वमनःसंयोगस्य स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्धन मंत्रीवारी सन्येनात्मनः मनः संयुक्तत्वेन चात्ममानसप्रत्यक्षोदयस्य दुर्वास्त्वात् । न हि मैत्रीतः संयोगाश्रयमनः संयुक्तान्नसंयुक्तं न भवनि आत्मन एकत्वाद्विमुवाच । अतो न शरारनिष्ठत्यासत्या | मन:संयोगस्य ज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति कारणत्वं वकुमर्हति । तर्हि कथं सुप्रतिक्षणं मंचशरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन ज्ञानीत्यादा. पत्तिर्निराकार्या' ? इति चेत् १ उच्यते तदानीं सुषुप्तिदशायां मैत्रशरीरेऽवच्छेदकतासम्बन्धेन आत्ममानसांत्पत्तिवारणाय
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三
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से यह कहा जाय कि त्वगिन्द्रियमनः संयोग समवायसम्वन्ध से आत्मा में रह कर आत्मा में ज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं बनता है किन्तु स्वाययसंयुक्तसंयोगस्वरूप परम्परासम्बन्ध से शरीर में रह कर ज्ञान का जनक होता है जब मंत्र सो गया है तब चैत्रीय त्वगिन्द्रियमनुः संयोग के आश्रय मन से संयुक्त इन्द्रिय से संयुक्त चैत्रवारी है, न कि मैत्रदारी | अतः तव त्रीयत्वगिन्द्रियमनः संयोग स्वाश्रयमंयुक्तसंयोगसम्बन्ध से नेत्र शरीर में ही रहेंगा, न कि मैत्रीय शरीर में । अतः मैत्र की सुपुप्तिदशा में क्षेत्रीय यरिन्द्रियमनः संयोग से मंत्री शरीर में अवच्छेदकतासम्बन्ध से ज्ञान की उत्पत्ति का उपर्युक्त दोप नहीं आयेगा तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि त्वगिन्द्रियमनः संयोग को शरीरनिष्ठप्रत्यासत्ति से ज्ञानकारण नहीं माना जा सकता किन्तु आत्मनिष्टप्रत्यासति से ही ज्ञानकारण माना जा सकता है। यदि त्वगिन्द्रियमनः संयोग को आत्मनिष्ठ प्रत्यासत्ति (= समवाय) से ज्ञानकारण न मान कर शरीरनिष्टत्यासति (= स्वाश्रयसंयुक्तरांयोग) से ज्ञान का जनक माना जाय तब तो सुपुमिकाल में आत्मा के मानस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति की आपत्ति आयेंगी। इसका कारण यह है कि चैत्रीय त्वगिन्द्रियमनः संयोग स्वाश्रयसंयुक्तसंयोगसम्बन्ध से जैसे चैत्रदारीर में रहता है वैसे मैत्रशरीर में भी रहता है, क्योंकि स्व = चैत्रीय स्वगिन्द्रियमनः संयोग के आश्रय चैत्रीय मन से संयुक्त आत्मा से मंत्रीय शरीर भी संयुक्त ही होता है । आप वेदान्ती तो आत्मा को एक की मानते हैं । इसलिए चैत्रीय शरीर की भाँति मंत्रीय शरीर का आत्मा से जो चैत्रीयत्वमनः संयोगाश्रयमनः संयुक्त है, संयुक होना न्यायाप्त है | आत्मा तो सर्वदा समिति ही रहती है। अतः सुपुषि काल में उक्त सामग्री के बल में मंत्र को आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष होना दुर्निवार ही होगा । हो, उस आपत्ति का निवारण करना हो तब यही कहना मुनासिब होगा कि स्वःसंयोग आत्मनिप्रत्यासत्ति से कारण है । मतलब कि मंत्र को आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष तभी हो सकता है यदि त्वमन:संयोग मंत्रात्मा में रहना हो । जय मैत्र निद्राधीन होता है तब मैत्रीय त्वङ्गमन:संयोग ही नहीं रहना है, क्योंकि तब मन स्वगिन्द्रिय को छोड़ कर पुरीत नाही में चला जाता है। चेत्रीय लक्ष्मनः संयोग तो मैत्रात्मा में नहीं रहता है किन्तु केवल चैत्रात्मा में ही रहता है। इसलिए निद्रादेवी के अधीन क्षेत्र में तब आत्मविषयक मानस प्रत्यक्ष की