Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 284
________________ * आत्मग्यानिसंवादः * कियेवं गौणमेकत्वं प्रसक्तं परमात्मनि । योगस्वेकसंख्याया एकस्मिोव युज्यते ॥८० ॥ उत्तरम्, → तद्गोलाइगूललाइलचापलव्यापभागिदम् । कचिनेदपक्षस्य प्रत्यक्षाऽऽदर्शदर्शनात् ॥6॥ प्रत्येकं समवायन द्वित्वं वर्तन उत्पन उभयोः द्वित्वपयामिः पर्यानिसम्बन्धन द्वित्वञ्च वर्ने । प्रकृने न प्रत्येकं सकलस्वप्रदेशेषु समवायन जीवलस्य स्यावादिना नगकतत्वात निखिलस्वप्रदोष जीवत्वपर्याप्तिनं कल्पयितुं शक्या. अन्यथा युद्गलादिति नत्कल्पनाप्रसङ्गात् । अत एव पानसम्बन्धनाखिलजनप्रदापु नारत्वकल्पनाःपि प्रत्युक्ता, अजीबपि धमास्तिकायादा पर्यापल्या जीवत्वकल्पनाप्रसगात् ।।७।। किन, एवं = एकस्यापि जीवस्य लोकाकाशनदासमगडल्याफम्वादशात्मकत्व स्वीक्रियमाणे परमात्मनि आत्मत्वावच्छिन्न गौणं = अपक्षाद्भिविशेष विषयत्वरूप एकत्वं प्रसकम् । यध धन-लक्ष-बंदर-बकलादिसमदायात्मक वन भाकर्मकत्वं तथै. बासङ्ग्यात्मप्रदेशात्मके आत्मनि तदुपसर्जनीभूतमंब न लनुपमर्जनी-तमिति प्रत्येत । नर्हि अनुपचरितमे कवं कुन ? इत्या. शङ्कायां पर आह एकसंख्याया = एकत्वसहरख्यायाः योगः - समवायः पुनः एकस्मिन्नेव = अनकानात्मक द्रव्य एय युज्यते - वाईति ॥८॥ अबोनर स्याद्वादी प्राइकन गधन - तदिदम् अनन्तरं पद्यत्र'न, गोलागूललागलचापलब्यापभाग = धनुदीर्घलालवालधितुल्यम । कुतः ? इत्याह - कनिद्रेदपक्षस्य - अवयवावर्याचनाः स्यादनयस्य प्रत्यक्षादर्शदर्शनात = अध्यक्षमेयोपलम्मान । सदकान्तामंद साइख्यमनप्रबंशप्रसङ्गः, तंदकान्तभेदे च नयापिकमतापात:. उभयत्र दोषाः प्रागंचोपदर्शिताः । 'उमानि कपालान्येव घटनया 'परिणतानि' इत्यादेराबलगांपालावरसवाहित्यवात नवंदाभेन मद्धः । नयभेदापेक्षयान्मन्येकत्वबहुत्वं नैव विरुद्धं । अयं भावः सर्वेषु स्वाद प्रत्येक दशता. जावः समास्त, नत्ममुदाय च सर्वात्मन्ग सा वर्तते । अता नककम्प हठात् कात्स्न्येन जीवत्वप्रसङ्गो न वा सकलतत्समूह सर्वात्मना जीया सम्भवः । अवयवे योऽवविनः स्वान्द्रेदात् जीवेऽनुपचरितम. कत्वमपि निरपापम् । सङ्ग्रहनयार्पणपकलनाधारित पि जीवञ्चयवाचत्रिभेदाभेदावष्टितस्याद्वादाविरोधनानेकत्वस्या विरोधात । तदुक्तं प्रकरणकृतव आत्मख्याती "अन्यविनायकान्नभेदे प्रत्येकसमुदायापेक्षायामवयनवृत्तित्वं दुर्निरूपम, न्यभेदाश्रयणे त न काप्यनुपानिः एकत्वेन सड़गृहातम्याविनः स्वव्यत्वेन सड़गृहनियावदववववृत्तित्वसम्भवात् । तत् किम् ? अवययकत्वमपि द्वित्वादिवद् बुद्धिजन्यमेवनि त ? न, एकत्व द्वित्वादीन अनन्तानां सड़च्यापर्यायाणामकरन्यवृत्तीनामेव सतां यथाक्षयोपशम बुद्धिविशेषेण प्रनिनियतानामेव ग्रहणमित्युपगमात् । युक्तञ्चतत् अन्यथा एकत्रैव बटे तप-तहसवतारक्यमित्यादिना द्विवचनप्रयोगस्य से बिच रहने पर ही घटपटीभय में द्वित्वपयाप्ति रह सकती है एवं पर्याप्तिसम्बन्ध से द्वित्व रह सकता है। मगर आप स्याद्वादी तो प्रत्येक जीवप्रदेश में समवायसम्बन्ध से जीवन का स्वीकार नहीं करते हैं । तर सकलप्रदेशसमुदाय में जीवत्य की पर्याप्ति | कैसे रह सकेगी ? और उसकी अनुपस्थिति में पर्याप्तिसम्बन्ध से जीवत्व भी वहाँ कैसे रहेगा ? कथमपि नहीं ।।५।। इसके अतिरिक्त एक अन्य दोप यह आयेगा कि आत्मा को अमरज्यप्रदेशात्मक मानने पर परमात्मा में यानी मभी आत्मा में एकत्व मुख्य नहीं रह सकेगा, किन्तु गौण = अपेक्षाशुद्धिचिशेपविषयत्वस्वरूप एकत्व रहंगा, क्योंकि मुख्य एकत्वसंख्या नो अनेकानात्मक केवल एक द्रव्य में ही रहनी हैं। आत्मा को तो आपने असंख्यप्रदेशात्मक मानी है। इस तरह आत्मा को असंस्थ्य स्वप्रदेशात्मक नहीं मानी जा सकती ॥४॥ उत्तरपक्ष:- जनाब ! जैसे गाय की लम्बी पुनछ अस्थिर होती है वैसे आपका चान्य भी स्याद्रादकेशरी के सामने अस्थिर-चंचल बन जाता है। इसका कारण यह है कि आपने जिन दोपों की संभावना का उद्भावन किया है वे अवयव और अवयवी में सर्वथा भेद मानने पर ही प्रसक्त होते हैं। मगर हम स्याहादी नो अवयत्र और अवयवी में कथंचित भेद मानते हैं, जो कि दर्पण जैसे निर्मल प्रत्यक्ष प्रमाण से ही उपलब्ध होता है । 'ये कपाल ही घटात्मना परिणत हो गये', 'ये तन्तु ही पट बन गये' इत्याकारक अवयव और अवयवी में कश्चिन अभेद का ज्ञान होने से कश्चित् भेद को प्रत्यक्ष अपना विषय बनाता है। अनाव प्रतिअवयव में जीवत्व का हम कथमित स्वीकार करते हैं । अर्थात प्रथम, द्वितीय आदि सर्व प्रदेश में दवातः जीव रहता है और सकल आत्मप्रया में सर्वात्मना जीव रहता है - ऐसा हम मानते हैं । इसलिए

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