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*विशेषायः यमाय-निगवाद: *
आगमपाठश्चायं → 'एगे भंते । जीवप्पएसे जीवेत्ति वतन्वं सिआ ? यो इगते समत। एवं दो जीवप्पासा, तिणि संखेना, असंखेजा वा जाव एगपएसूणे वि अ णं जीवे यो जीवत्ति वतव्वं सिआ । जम्हा कसिागे पडिपुण्णे लोगामासपासतुल्लप्पएसे जीवेति वत्तव्वं सिआ ।' युक्ततत्, अन्यथा ->
कतिपयसमुदायिभ्रंसविधाभदाभात्कथमिह तव राशिनास्तेि कार्यप्रकाशी । यदि तु चरमदेशे राशिता लाशिता ते मतिरतिगहने नानेन दुष्टाहेण ||७६॥
-%ायलता * विस्तार कठिनः = तीक्ष्णः कुठारः = कुटारसगः ।।७।।
आलापकमेव दर्शयति आगमपाठवायमिति । अस्माभिः पूर्व मलधारनिप्रदर्शिनः पाठो गृहातः । नतः यदि श्रुतं तम्य प्रमाणे तहिं सोऽन्त्यप्रदेशा-
पिजीयत्त्वेन निषिद्ध एच नस्यैकत्वान । तथाहि नवमनं - एगे भन्त ! जांबाये जावनि बनवं सिया ? णो इण? समडे' इति । प्रयोगम्वरम- अन्त्यप्रदशा जीरः एकत्वात, प्रधमाद्यन्यतरप्रदेशवत । सर्वपि परिपूर्णा एव जीवनदशा जीवत्वेन श्रुने प्रता न त्वंक एव चरमप्रदशः। अतः श्रुतग्रामाश्यमिच्छता नक वान्त्यप्रदेशो जीवत्वे - नेश्व्यः । तत:वरमनदेशे शेषप्रददापक्षया सिद्धान्तसिद्धानिशवाश्रयणं तु प्रादायि प्राञ्जलहदगः स्वहस्तेनैव कठिनकुटाग्रहार: बमनारचलतावितान इति मम्यगुनम् । उक्तञ्च विशेषावश्यकभाप्यऽपि नंनु पोचपारी न समनण्ड़ो यसमुनिया ने 3 | सञ्चे समनपइओ मन्चपएसा नहा जीवों ।।२३२१|| तदनिश्चैवम - एकतन्तर्भवनि मनम्नपटोपकारी तमाज्यन्तरेण समस्त पटस्याभावान् । परंस एकस्तन्तः समस्तपटा न भवति, किन्न नेतन्तवः सर्वपि समृदिताः समस्तपन्यपददां लभन्त इति प्रतत्नमव तथा जारप्रदेशापि एको जीवो न भवनि किन्त सर्वे:पि जीवनदयाः संमदिता जीव इति (वि.आ.भा.म.स."
तंदन समर्धयति - युक्तधेतदिति । अन्यथा = एकप्रदेशस्याप्यन्त्यस्य करनजीववस्वीकार, त कतिपयसमापिथसवि. अम्भदम्भात् - अल्पप्रदेश प्रदेशिपर्यवसान मपात कथामिह चरमप्रदशादी तव निष्यगुप्तम्य राशिः जीवादिः कार्यप्रकाशी = ज्ञानादिलक्षणार्थक्रियाकारी नास्ति ? अन्यथा कटादि र शृङ्गादि जावयपदेशभाक स्यान, नत्कार्यकारित्वाभावग्या:विशेषादिनि पूर्वमुनमेन । यदि तु चरमदेश = चरम प्रदेश गशिता त्वया स्वकृता तर्हि अनेनाऽतिगहनेन दुराग्रहण नब मनिः । अनिगहनत्वं कमिन चन् ! कथं का मतिनाशने ? किं वा नत्र प्रमाणम् ? इति चेत् ! 'वं भूयनयमयं दस-पासा न वत्धुणा भिन्ना । तेणाम्वत्थुनि मया कसिणं चिय बत्थूमि से । जइ तं पमाणमंच कांसमा जीवो जहावयाराओ। दसे वि सञ्चबुद्धी गरज संसे वितो जीवं ।।२३४-२३४६इति विशेषावश्यकभाष्यगाथे एखात्र प्रमाणल्वन गहाण । तदति - श्चैवम - एभूतनयस्येदं मतं यदन देश-प्रदेशा न वस्तनो भिन्नाः तेन ताववस्तुरूपौ मती । अतो देश-प्रदेशकल्पनारहित कृत्स्नं परिपूर्णमेव वस्तु से = तस्य एवम् भूतनयम्येष्म । नतो यदि नदयम्भूतनयमतं प्रमागं जानासि ल्वं एवं नहि, कुलनः
आप शाखसिद्धत्व की बांग पुकारते हैं, मगर शान क्या कहता है ? यह तो पहले सुनिये । यह रहा वह आत्मप्रवादनामक | पूर्व श्रुत का पाठ जिमका अधं है - "हे भगवन ! एक प्रदेशा जीव कहा जा सकता है ?" इस प्रश्न का जवाय यह है कि 'यह नहीं हो सकता है । यह अर्थ समर्थ = योग्य नहीं है । इस तरह दो जोत्रप्रदेश, जीच के नीन प्रदेश, संख्यात प्रदेश, असंख्यात प्रदेशा यावत एकप्रदेशन्यूनसंख्याक असंख्य प्रदेश को भी जीन नहीं कहा जा सकना 1 सतुस्थिति यह है कि कृत्स्न प्रतिपूर्ण लोकाकाशप्रदेशातुल्यसंख्याक प्रदेशों को ही जीव कहा जा सकता है । इस सिद्धान्त को समझने में ही मालूम हो जाता है कि चरम प्रदेवा का जीन नहीं कहा जा मकना, क्योंकि वह एक है, जैसे कि प्रधम प्रदेश । इसलिग शास को प्रमाण कहना हो नब तो लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उननी मंख्यावाले जीवप्रदेदा को ही जीव कहना मुनामित्र हो सकता है।
विचार करने पर यह बात पक्किसंगत भी प्रतीत हान है, क्योंकि सभी प्रदेशों में अवयवी आत्मा का विश्राम न मान कर कतिपय प्रदेशों में ही आन्मा का विश्राम ॥ संपूर्णनीव की विद्यमानता माननं का अच्छा डोंग मचाने पर मो समस्पा यह आयेगी कि , 'राशि - संपूर्ण जीव कतिपय प्रदेश में विद्यमान हे तर कनिषय प्रदन ही कार्यप्रकाशी = झानादि कार्य के जनक क्यों होते नहीं हैं जिसका जवाब प्रतिवादी के सामने साई भी न रहेगा । फिर भी यदि चरमप्रदेश में ही गशिता = संपूर्ण चैतन्य माना जाय न तो लगता है कि अत्यन्त गहन इम कदाग्रह से तुम्हारी मति नए हो गई है । अतएव संपूर्ण अवयवों के होने पर ही अवयवी माना जा सकता है . इस आगमिक एच पौक्तिक बात का तुम अपलाप