Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 281
________________ 1१४ मध्यमस्वादादरहस्पदण्डः ३ . का.११ * मुक्ताका मनिरासः * सर्वेषामेव तन्तूनामन्यसंयोगशालिनां । तथात्वमिति नादेयमेकदा तत्पटोदयात् ।।४।। तृतीयपक्षः पुनरक्षराणां कलामपि ज्ञातवता ने माल्यः । व्यवस्थितो यत्समयस्तदाशावल्लीविताले कठिन: कुठार: ॥७॥ - जयलतातस्मादिनि । यधा कुम्भी घटः । बाथ लदभावेऽपि = पदकार्याभावे :पि नन्तुः पट इप्यतं. तर्हि किमित्पनी परे छटः रखपुष्प वा न भवति ? पटकार्या कर्तृत्वस्याइविदापात् ।२३५२|| तथा 'चलं भव्यवहाराभावाआ नत्थि न खपुष्पं व । अनावसंध्ययवा दिनाभावी बानि ।।२३. शनिवाभिमनोऽवयवी अन्त्यावयं नास्ति. उपलचिलक्षणमाप्तस्यानुपलब्धः, व्यवहाराभावाच. खपुणवदिति । अथवा अन्यायमात्रमवयी अवविस पूर्णहतुत्वान इत्यन्न नाबद् दृष्टान्नाभावान माध्यसिद्धिरिति ।।३३।। यदि | नाम नोपलभ्यते नागि ज्याहयते दृष्टान्ताभावार्थ नानमारत, ततः किम् ? इत्याह . 'पञ्चस्व औरणमाणादागमओ या पसिद्धि अत्यागं । सबापमाणविसमाइयं मिछनमंत्री ॥२३५४|| प्रत्यक्षानिप्रमागरथांनां सिद्धिः,नानि च लपक्षसाधकत्वन न प्रवर्तन्ते । अतः सर्वग्रमागविषयातीतं 'भ' भवतामभिमत मिथ्यात्वमयति ।।२३५५।। इति मलधारवृनिः । विस्नग्स्नु भाष्यता बाध्यः । ___ साम्प्रतं चतुःसनितमपद्यमवसरप्राप्तं व्याम्पायन । सर्वेषामेव तन्तूनां अन्त्यसंयोगशालिना = चरमनन्तर्गयांगवता तथालं - प्रत्यक स्थाव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेन पटीत्यादन्यायन्यमिनि । न चैवमेकोऽपि तन्तुः चरमतन्तुसंयोगेन पदमृत्यादयेदिति वाच्यम, द्वितन्तुकपटांत्यत्तरिष्टत्वानदानी, शततन्तुकरटोनिस्तु नापाद्या तत्कातावच्छंदकानाक्रान्तत्वात । एतेन शततमतन्तुसंयुनन प्रथमतन्तुना द्वितीयादितन्तुविकलेन शततन्तुरूपटोत्पादापत्ति: पास्ता, तदानी प्रथमतन्तुसंयुक्त तन्नी दाततमत्वस्यैव विरहग दातनन्तुकपटकारणस्य शतनमतन्नुसंयुक्तस्य तन्तारव विरहादिति तु नादयं = न स्यीकतन्यम्. एकदा = युगपत् तत्पटोदयात् = तन्तुसममइयाकपटोत्यादप्रसगात् । प्रधमतन्नोः चरमजन्तुसंयुनाम्य परविज्ञपहेतुत्वं, द्वितश्पतन्तीः चरमसन्तुसंयुनस्य पटान्तरतुत्वमित्येवं बीकार नेकां सर्वेश प्रथगादिनन्ननां चरमतन्तुसंयोगाश्रयाणां सन्चदशायां समकालमेव नत्तताटवादन्छिनानां नानागटाना. मुत्पत्तेः मुरवरगुरुणाऽपि निययित्गशक्यत्वात् । एतेन पूर्वतन्तब एवं नन्त्यन्तरसहकारात्पूर्वपटे मत्येव पटान्तरनार भन्नामिति निरस्तम्, एकदा नानापटोपलम्भस्य बाधितत्वात । यत्तु मुक्तावलीकृना 'मूर्तयोः समानदेशताविगंधात तब पटद्वयाऽसम्भवादिन' (का.११२.मु.पृ.७११) गदितं, तन्न चारू. प्रकाशचनधूमादीनां मूर्नद्रव्यागां समनदेशताया अनिगानेनोपलम्भादिति दिक् ॥७॥ तर्हि सिद्धान्तसिद्धत्वलक्षण एनातिदायोऽस्तु चरमप्रदशस्याचरमप्रदाभ्यं व्यावर्तकत्वग । न च मद्धान्तसिद्धत्वमेवामिद्धमंत्रति वाच्यम्, यतः पूर्शकान्लापकरूप सिद्धान्ने शंषा प्रथमादिप्रदेशा जीवत्वेन निषिद्धा. न पुनरन्यप्रदेशः तस्य तर जीनत्वा नज्ञानात् । अनेन अन्त्यप्रदेशों में जीवः प्रदेवालात, प्रथमादिप्रदशयन इनि प्रत्यास्यातम्, आगम्बाधितत्वादिति निहवाशङ्कायां स्थाद्वदी प्राह- तृतीयपक्षः अष्टषष्ठितम्कारिकाप्रदर्शितः सिद्धान्तसिद्धत्वलक्षणः पुनः अक्षराणां कलामपि ज्ञातवता = यस्मात्कारणात समयः = "जाहा गं कसिणे पहिपुन लोगागामपालतु जाति बत्तव्यं सिआ इत्ययस्वरूप आत्मणवादपृालापकथितः सिद्धान्तः व्यवस्थितः स्न तदाशावाट्टी बिताने = अन्त्यप्रदेशजावत्वरिपयिय्याः निम्यगुप्तामिलापलनाया यहाँ यह कहा जाय कि → 'प्रत्येक तन्न चरमतन्तुसंयुक्न हो कर पद के जनक होते हैं अर्थात् स्वाऽज्यवहिनीनगत्वमम्बन से पटोत्पाद के व्याप्य होने हैं । सब नन्दुओं में चरमतन्नुसंयांग नभी हो सकता है यदि अचरम सकल तन्तु एवं चरम लन्तु विद्यमान हो । अन्य एक भी तन्तु न होने पर चरमतन्तु संयोग ही विद्यमान तन्तु में नहीं रह सकेगा, क्योंकि नर कोई भी तन्तु चरम नहीं बनता है' - नो यह भी अमंगत है, क्योंकि तब तो एक ही काल में अनेक पटों की उत्पनि होने लगेगी। चग्मतन्तु संयोगविशिष्ट प्रत्येक तन्नु नन् तत् पट के कारण है - यह स्वीकार करने पर यावत् मंज्याक नन्नु होंगे उतनी संख्या में पद की उत्पनि होने लगेगी । तर तो १. तन्तु से १०० पद की उत्पनि हो जायगी, जो व्यवहार से बाधित है । इसलिए वैसा अभ्युपगम नहीं किया जा सकता ॥७॥ ६८ वी कारिका में जो तृतीय विकल्प बताया गया था कि > 'अचम्म प्रदेश की अपेक्षा चम्म प्रदेश में सिद्धान्तमिद्धत्व नामक अतिशय रहता है यानी जैनागम ही चम्मप्रदेश में जीवत्व का समर्थन करता है' - वह तो मंस्कृतभाषा की मात्रा आदि को जाननेवाले को भी मान्य नहीं हैं. सकता है, क्योंकि 'कबन्द गक प्रदेश जीव नहीं है ऐसा ही सिद्धान्त जैनशाखों में उपलब्ध होना है। इसलिए शास तो आपकी अन्यप्रदेशा ही जीव है। इस तथ्यहीन मान्यता की सिद्धि की आशास्वरूप जो चेल है उमक विस्तार को काटने के लिए कठिन तीक्ष्ण कुठार समान हो जायेगा । इसलिए तृतीय विकल्प का प्रदर्शन कने पर तो आपकी इज्जन दो कीड़ी की हो जायेगी ।।७५।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363