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* जिनगद्रणक्षमाश्नमणवनसंवादः * अभित्तिचित्रार्पित एव भाति दितीयपक्षोऽपि परीक्षकाणां । येनोपकारो हि फलोपधातं युक्तं बहूनां न तदेककस्य ॥७॥ तदुक्तं → 'जुतो य तदुक्यारो देसूणे न उ पएसमेतमि । जह तंतूणमि पडे पडोक्यासे न तंतुम्मि ॥७३॥ (वि.स.भा.२३४७)
जयला * अस्तु तर्हि चरमप्रदशस्योरकारित्वलक्षणातिदाय इत्याशङ्कायामाह-द्वितीयपक्ष: उपकारित्वलक्षणः अपि परीक्षकाण अभित्तिचित्रार्पित एव भाति, येन कारगन उपकारी हि प्रकृतं न फल्लम्बरू भयोग्यत्वं. चन्मदा इव शेषप्रदर्शवपि कारणनवच्छेदकधर्मवत्त्वात्मकम्य तस्य गतत्वना निष्टा पानानव किन्न फलोपधानं - स्याउमाहितीनरलसम्बन्धन 'फरदोत्पादल्यायवमिति स्वीकर्तश्यं । तच्च वहनामेव प्रदेशानां यन न तदेककस्य चरमस्य प्रदेशस्या, गमग्री व कार्यनिका न त्वकं कारणमिति रचनात् । न होकनेव नन्तुना पटो जायने किन्तु स्वकारणालापन । तथैवकन प्रदर्शन वरमगा:चरमेण वा न ज्ञानादिन्दक्षणं कार्यमृत्पाद्यते किन्तु सर्वैरेच जीवप्रदशः सम्भूय एवं . ततः फकोपभागलपकागाधानातिगयनान्येभ्यः प्रदेशभ्यान्न्यः प्रदशी भिद्यत इनि रिकमेव वचः ॥७२।।
अत्रैव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमग्गवचनं प्रमाणात . तदनं विशेपावश्यकभाप्य नि शपः जुनो य इति । देशाने जीवप्रदेश सति चरमप्रदर्शन तत्महकारीभूय तदपकारः = ज्ञानादिकलपधानलक्षणोपकारः कर्नु युक्तः न तु ग्मन चरम प्रदेशमाने सति । यथा तन्नून = एकेन तन्तुना हीन = विवक्षितकतन्मुविग्हणान्ताद्यमाने पटे - विवक्षितमदग्न्याकनन्गन्य पटेवपरिनि शेषिकतन्तुना पूर्वतन्तुभिः सम्भय परोपकारः - विक्षिपदजननलक्षणोपकार नविनमहति, न तन्ती स्वतन्त्र सति । नत एकस्मिन्नच चरमप्रदेदा ज्ञानादिफलातानिन्यायलाभिधानं स्वसम्यापरिचयविम्मितम । इनञ्च प्रकृनप्रकरणकाराशयमनुसृत्य व्याख्यानम् अन्ये तु नदवयारी इत्यस्य तदपचारः इत्येवं छायामकुर्वन्ति अंग्रेऽपि परांपचार इति । तक माल पाहिमाद्रसूरिभिः 'उपचासदायक गवान्त्यप्रदशा जाबो न भवनि किन्नु दशान ब जीव जीवं पचारी युग्यत यथा तन्तुभिः कतिपयैरूने पटे पटोपचारो दृश्यते न वकस्मिंस्तन्तुमा' (वि.भा.२३४७ म.वृ.) इति ।।५।।
प्रसड़गन सोपयोगिताद विशेषावश्यकभायगाथातदन्याच्यानांपदर्शन कियत:स्माभिः । अंतोऽवयवान काइ समनकचं ति जइ न सो भिमओ । संयवहाराईए तो नम्मि कास्वविगाह २३.। यदि नाम.न्त्यायपवः समस्तस्याप्यवदिनां यत्साध्य कार्य तन्त्र कराति इत्रनो सौ नाभिमना भवतां कूर-पक्वान्न-वस्त्रादीनां सिन्ध-सुकुमारिकादिसुमखण्ड-स्नत्वादिरूपःत्यो वयो यदि न परितापकग अवतामित्पर्धः, तहिं संन्यवहागुठीत तस्मिन्नन्त्यावयव कुतः किल समस्तावयाविग्रही भक्ताम ? इति ।।२३५१|| प्रमाणयन्नाह . अंतिमतंतू न पड़ी तकजा करणो जहा कुंभी । अह तयभाव वि पड़ा सो किं न बडो खपुप्फ व? ||२५|| अन्त्यतन्तुमा न पटः, तस्य पटर-य कार्य तित्रागादिकं - नत्काय, तस्या:करणं = तत्काकि
___ यदि दूसरे पक्ष का आश्रय लिया जाय कि => 'अचम्म प्रदेश की अपेक्षा चरम प्रदेश में उपकार नामक एक अतिशय रहता है, जिसकी वजह जीव चरमप्रदेशस्वरूप है' -नां यह परीक्षकों को बिना मिनि के चित्रकामनुल्य लगेगा। इसका कारण यह है कि उपकार का अर्थ है फलोपधान यानी स्वाऽव्यवहितात्तात्वसम्बन्ध में फलोत्पादच्याप्यत्व । जिमकी अव्यरहित उत्तर क्षण में कार्य की निप्पत्ति हो वह उपकारक कहा जाता है । मगर ऐसा उपकार अन्य अवरम जीवनदेशों में निरपेक्ष केवल एक चरम प्रदेश नहीं कर सकता है। अनेक कारण होने पर ही कार्य का जन्म होता है. न कि कंवर, कारण से ही। अनः चरम प्रदेश में अचम्म प्रदेवा को अपेक्षा उपकार नामक अतिशय भी नामुमकिन है ॥७२॥
इस विषय में विशेषावश्यक भाग्य में भी कहा गया है कि 'उस ज्ञानादि फल का उपकार आंशिक सामग्रीन्यूनता होने पर या कार्य में आंशिक न्युनता होने पर ही हो सकता है, न कि प्रदेशमात्र = केवल चरम प्रदेश होने पर । जंग एक-दो तन्नु की न्यूनता होने पर एवं बोप सकल नन्नु आदि सामग्री उपस्थित होने पर अवशिष्ट एक-दो तन्तु पटापकार = स्वाश्व्यवहितानरत्वसम्बन्ध सं पटापनि का ज्याप्य बनने में समर्थ होने हैं, न कि केवल एक-दो तन्तु से ही पट की तदुत्तर क्षण में उत्पत्ति होती है। इसलिए एक चरमप्रदेश में ज्ञानादिफलापहितकारणता नहीं मानी जा सकती । अनएच रमप्रदेश में अन्य प्रदेश की अपेक्षा फलोपधात्मक उपकार का स्वीकार कर के उसीम अतिशय का प्रतिपादन कर के जीव को चरमप्रदेशात्मक चताना नामुनासिब है . यह, उपर्युन भाप्यगाथा के अर्थ को शांति में सोचने पर फलित होता है ||३||