________________
14
*अन्य दागन ने नामांसा * अनात्येभ्यश्च काऽतत्यानां देशानामतिशायिता । पूराणं वोपकारित्वमुत सिदान्तसिध्दता ॥६॥ आध: पक्ष: पक्षमालाक्षीकटाक्षः स्थातुं प्रायो तो सपक्षः क्षमेत । यरमादेवन्यूनतावर्जकत्वं देशेऽन्त्ये चेत् ? किं नु नान्यत्र तुल्यम् ॥६॥ अस्तित्वं नलु तथापि विवक्षापूरस्य परमेऽस्तनिरुक्तः ।। आ: किमत्र न विवक्षणदण्डाबाश्चमीति तव चक्रकचक्रम् ॥७॥
यता * --- न नियन्त्रितुं पार्यन नथैव मप्रदागता जीववृत्तिना गर्नका लगना विवक्षिनचरमनदंश कल्पयितुमहति, अन्यथा स्मिन्नण्यकम्मिन ॥ प्रदेश नत्कल्पनाप्रमहागात प्रदात्या विशेषात् ।।
अथ शेपप्रदेशेभ्यो विवक्षिनामप्रदेशस्य नृल्यपरिमाणत्यप्यस्ति कश्चिदानशया यर जार: नत्र वर्तत नान्यत्रत्यागड़कायामाह- अनन्त्येभ्यश्च प्रदशेभ्यः अन्त्यानां = चरमाणां देशानां = प्रदेशानां काऽतिशायिता ? किं पूरणं उत उपकारित्वं सिद्धान्तसिद्धना वा! इत्यत्रापि पक्षनया प्रवाणगुणत्राव सर्वत्र प्रहनासग़ प्रसगसगति ।६.८॥
अध विवक्षितासारख्ययप्रदेशगदारन्न्यः दशः पूरणमाभिधानानशयशाली इति आद्य: पक्षः म्याक्रियने तहि सपक्ष: = शंघनदयागशिः प्राय: पक्ष्मलाक्षीकटाक्षः स्थातुं नं क्षमत, कतः १ यता बचा विवक्षितान्त्यः प्रददाः 'परणः नर्थककः प्रथमादिप्रदेशः तम्य विवक्षितजीवनदेगशेः पुग्ण एच. एकमपि प्रदेवामन्तरण नस्यापरिपूरित्याशयमाह-यस्मात् कारणान अन्त्ये देशे = प्रदश एतन्यूनतावर्जकत्वं = जीनापरिनिंगाशकवं अभिमतं चेत् ? किं न अन्यत्र = प्रश्रमादिनी न तुल्यम ! ममानगंय । तनः चरमप्रदेश इस प्रथमादिप्रदीप जीनत्यमनिवारितमेव ।।६।।
ननु तथापि शेषप्रदेशपि नन्न्युनताबर्जकत्वमद्भावेऽपि, विवक्षापूरणस्य = विवक्षाविएचभूतस्य पूरणस्य = न्यूननावकत्वस्य चम्म एव अस्तित्वं, कनः ! अन्ननिरुनेः = चम्मपदनिर्वचनात । चरमत्वं हि म्बसमानजातीयाननग्कत्यादिम्वरूपम । अन्यप्रदशानां जीचन्यूनतावणकवेगि तम्य म्बसमानजानीयानरकचेन न विवक्षितन्यूननावजंकत्वमिति विदाषा चरमसः प्राग्यंत्र वैक्षिकपूरणसद्भावनजीवन पनदेवानाम इति चेत् । आः : द्विानहर । किगनं त्वया ? श्रीमनाहावीरचरणदारणं प्रपद्यस्व विचारय च तं वन्दित्दा यदुत किमत्र चरमप्रदेश नीववव करलक्षणघटनिष्पनी विवक्षणदण्डान् = वैनिकपुरणलक्षणदगडात तब चक्रकचक्रं न चम्भ्रमीति ? पूर्वी झावितविकलात्रिकान्तिमरिकल्पस्वीकार बिभावितपक्षत्रिताधम्पक्षस्याकामिद्धि
को करल, बरमप्रदेशवृनि मान कर केवल चरमप्रशस्वरूप माना जाय । सभी प्रदेवा समानपरिमाणवाले हैं ॥६५॥
यदि अन्त्यप्रदेशजीववादी तिप्यगप्त की, जो द्वितीय निलय के स्वरूप में जिनशासन में प्रसिद्ध है, ओर से यह कहा जाय कि -> 'चरम प्रदेश में अन्य अचरमप्रदेवा की अपेक्षा एक ऐसा अतिदाय रहता है जो केवल परम प्रदेवा में ही होता है, न कि अन्य अचरमप्रदेश में । इसलिए जीव चरमप्रशस्वरूप ही है, न कि अचरमप्रदेशस्वरूप' - नो यह वक्तव्य भी अग्ण्यम्दन की भाँनि निष्फल है, क्योंकि वैमा मान्य करने पर यह प्रश्न होता है कि. - अवरम् प्रदेश की अपेक्षा चम्म प्रदेश में रहनेवाला अतिशय क्या (१) पुग्णस्वरूप है " या (D) उपकागत्मक है। पा (३) सिद्धान्तसिद्धत्व = जैनागमप्रसिद्धत्वरूप है ? ॥६६॥ जैसे भापकब्रह्मचर्यवाला आदमी बीकाक्ष के सामने नहीं टिकता है वैसे प्रथम विकल्प को अन्यप्रदेश सहन नहीं कर सकते, क्योंकि प्रथम विकल्प का स्वीकार किया जाय तब उसका अर्थ यह प्राप्त होता है कि आप का चग्मः प्रदेश जीन में न्यूनता का बजक होना है। मगर क्या वैमा पुग्ण अन्य अचम्मपदेवा में रहता नहीं है ! रहना ही है। जैसे विक्षिन एक प्रदेश के चिना संपूर्ण जीव अपुर्ण बन जाता है ठीक वैसे ही अन्य अवरमप्रदेश न रहने पर भी लीय अधूरा ही रहता है । इसलिए जैसे चरमप्रदेश से जीर की परिपूर्ति होती है ठीक वैसे ही अन्य अनरमप्रदेश में भी जीव की पूर्णता होनी न्यायप्राप्त है । नर - 'परमप्रदेश में है। पुग्णनामक अतिशय रहना है, न कि अन्य अचरमप्रदेश में' . यह कहना कम संगत हो सकता है । कथमपि नहीं ।।६।।
- "जी हाँ, चरम प्रदेश की भाँति अपरम प्रददा में भी पुरकन्चनामक अतिशय रहना है. फिर भी विक्षिन पुरण अतिशय ना कंवर चम्म प्रदेश में ही रहता है । इसका सागण यह है कि मय अचम्मपदेश होने पर भी चरमप्रदेश नहीं होने पर जीव पूर्ण नहीं कहलाता है। इस विवक्षा से पुरण अतिशय कंवर चरमप्रदेश में ही रहेंगा" - ओ जना । यह आपने क्या बोल दिया ! अन्यप्रदेशजीवत्ववादाबरूप पट की सिद्धि के लिय चिवक्षात्मक पद की सहायता लेने पर क्या