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११. मध्यभरपाद्वादहस्य खण्डः ३ . का. * तिष्यगुप्ताभिधानानदग्नयनिरास:
परिचितक्षीरनीरातिदेशान । येऽष्ट स्पष्टप्रदेशा लियतमपिहितारतेऽपि मध्या न बन्याः , पूर्वाकारातिवारादिति परिणमते सर्वत: सर्वतप्तः ॥६६॥
नापि कापि नियतं दितीयके ज्ञप्तिरस्ति चरमांशगोचरा । वृत्तिताऽपि घरमेन तत्र वा सर्वदेशगतया घटादिवत् ॥६॥
- जयलता * नपरिचित क्षीरनीरातिदेशान् = महाज्वालान्याप्लान्यभिनमध्यांजलोपगान सर्वतः काध्यमानानिव विभ्रति नचापि ये मध्या अष्ट स्पष्टप्रदेशाः नियतं - अवयं सर्वदव ने अपिहिताः = अनावृताः, कत ! यनस्ते पूर्वाकारातिचारात् = पूर्विलयरिशुद्धपर्यावरणाशात न बन्ध्या = न कभचम्धनयोग्याः भवन्ति । जीवः बल कमांवृतदशाया सर्वतः सर्वतमः भवति । नत्र स्थिरगृद्धप्रदेशाटक मत्येव शेषप्रदेशा उत्क्काभ्यमानत्वनात्यान्न तथा परिभ्रमन्छषपिहिनप्रदशा न स्थिरानावृतप्रदशाएकस्वम्पा इति 'यत्सद्भाव व भवन = उत्पग्रमानः पदार्थ नन्दात्मकः' इन प्रथमो विकल्पः प्रत्यक्षमेव बाध्यने । न हि करकणदर्शनायादा उगादायत सद्भिः ॥१६॥
अस्तु तर्हि द्वितःया विकला एवं न: वारणं यदन यत्सद्भाव एव भवन = झायमानः पदार्थः तदात्मक' इति यथा कम्ब्यावादिमस्थान सत्त्या डायमानो घटः तदात्मकः तव चरम प्रदेश सत्येव यथासूत्रप्रामाण्यन ज्ञायमानी जाबान्त्यप्रदशस्वरूप एवेत्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राइ-नापि द्वितीयक विकल्प व्यावर्णिनस्वरूप चरमांशगोचरा नियतं ज्ञप्निरस्ति । यनी विक्षनः प्रदेगी यथा चम्मत्वेनाभिमतः नथवान्यन्नदशामि चम्मत्वेन ज्ञातमहत्येन विश्चितचरमप्रशतुत्यपरिमाणत्वात् । तथा च नग्मप्रदेशविषयिणी शामिरेवा व्यवरियता सती कथमात्मानं व्यवस्थापयत ? नंत्यर्थः ।
अस्तु तर्हि तृतीय एवं विकलयः त्रिलोचनायलोचनममोतिप्रसङ्गादिदाभग्मकारी नः वारणम । या कानग्राधादि. संस्थानसद्भाव एव भवन = वर्तमानी घटः तादृशसंस्थानगरः नव चरमप्रदेदो सत्ये च भवन = विद्यमानी जीवः तन्मय एवत्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह. घरमे विकल्प अपि वा कक्षाक्रियमाणं न तत्र = बिनितान्त्यप्रदशे वृत्तिता = जीयविद्यमानता सड़गछतं । यतः मा हि निनाम प्रदोष गता : सर्वदेवागतया वृनितया चिक्षितचरमप्रदा एब बत्तिव्यं न शेषप्रदोष इत्पत्र प्रमाणाभावात, बिनशाम । दृष्टान्नमाइ घटादिवत् गधा घटचिना संकपालगना एकस्मिनंद कागलं
हैं जो लम्बी ज्वालाबाली अग्नि से नप्त पर उबलते हुए श्रीर-नीर की भाँति सतत उर्ध्व अधः दिशा में घूम रहे हैं। मगर तभी भी आत्मा के मध्य में रहे हग आठ शुद्ध आत्मप्रदेश सदा कर्म से अनावृत ही रहते हैं। पूर्व शुद्ध आकार को छोड़ कर वे कर्मबन्धन के अयोग्य होते हैं। आत्मा संसारी अवस्था में चारों ओर में कर्म से संपूर्णनया नप्त होती है। परिज स्थिर प्रदेशाष्टक होने पर ही शेप प्रदेश अविशुद्ध एवं अस्थिरूप से उत्पन्न होने हैं फिर भी वे प्रदेशाष्टकस्वरूप नहीं होने हैं जिसकी वजह 'निसंक होने पर ही होता हुआ पदार्थ तयानक होता है। इस नियम का 'जिमके होने पर ही उत्पन होता हुआ पदार्थ तत्स्वरूप होता है' इस तरह स्वीकार करना बाधिन होता है ॥६॥
यदि आप द्वितीय विकल्प का स्वीकार कर के उपर्युन. नियम का इस तरह अर्थघटन करें कि 'जिसके होने पर ही ज्ञायमान पदार्थ तत्स्वरूप होना है जैसे कम्युग्रीवादिसंस्थान होने पर ही ज्ञायमान घर कम्ग्रीवादिसंस्थानस्वरूप होता है तब भी नियत चरम प्रदेश का ही जीव कहना नामुमकिन बन जायेगा, क्योंकि विक्षित चम्म प्रदेश की भाँनि अन्य प्रदेश को भी चरमत्वन विचलित करने पर जीन ज्ञायमान होने की वजह तब जीव को उस चरमप्रदेशान्तर स्वरूप मानना पड़ेगा । एवं उस चरम प्रदेश में प्राथम्य की विवक्षा करने पर उससे भिन्न घरमादेश के होने पर ही जीव जायमान होने के समय जीव को उस चरमप्रदेशस्वरूप न मान कर अन्दा अलिम प्रदेशात्मक मानना पड़ेगा । मनलब की जीव को निश्रितरूप से किसी एक चरमप्रदेशात्मक नहीं माना जा सकता है, यदि भावपद का अर्थ ज्ञप्ति माना जाय । इस तरह भावपद का निन्न अर्थ मान्य कर के उपर्युक्त नियम का इस तरह स्वीकार करना कि -> 'जिसके होने पर ही जो दृनि = विद्यमान होता है वह पदार्थ तत्स्वरूप होता है, जैस कम्युग्रीवादिसंस्थान होने पर ही रहनेवाला घट कम्युग्रीवादिसंस्थानात्मक होता है - भी गहन नहीं हो सकता है, म्याकि जैसे घट सर्व अवयों में रहता है न कि एक अवयव में, ठीक वैसे ही जीव भी अपने सफल आत्मप्रदेश में, जो लोकाकाशनमाणसंख्यावाने होते हैं. कहना है, न कि किसी एक प्रदेश में । अतःजोद चम्मप्रदेशम्यरूप है. है. यह नहीं माना जा सकता । अन्य प्रदेश में अन्य प्रदेश की अपेक्षा कुछ विशेपता नहीं होती है जिसकी वजह जीव