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१३.. मायमस्याद्वादरहस्य खण्टः १ कः, ११ * पृथक्पटाप्रकाशनम् * । तथापि दारूपादावव्याप्त्यनुदारात, दण्डत्वादित इव दण्डरूयादितो दण्डादेः पृथमन्वयाधभावात् । न त तज्ज्ञान विना ज्ञायमानत्वस्य तदर्थत्वान्नायं दोषः, दण्डरूपज्ञान विजेत
-* जयाता - पृधगन्ध्यव्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वापादानं सार्थक, वचःकपालमयोग सत्यपि क्षुःकपालादिनाशकाले तव्यतिरेके कार्यव्यतिरकाबनुःकपालादेः पृथगन्वयादिमन्वाचन कपालसंयोगे प्रधगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिताकपालनियन्त्रितान्ययाव्यनिग्कानियोगिनाया: सत्त्वात् । तन्निश च न कपालचाल प्रति चमकपालसंगांगस्यान्यधासिद्धत्वप्नसङ्गः, नस्य पृथगन्वययतिरकप्रतियोगित्वम विशेषणाभावप्रयत्कविशिष्ट धाश्रयत्वादिति वाच्यम, तथापि = चक्षुःपादादिना नसंयोगान्पासिट्रिनिगकरणाय नपादानस्य सार्थकत:पि, घटे प्रति दण्टरूपाटी अन्याप्त्यनद्धारात् - प्रथमान्यधासिद्धिलक्षणा व्यासंबंडलंपायिनत्वात् । तन ननादा हेतुमाइ, - दण्डन्यादित इव दण्डरूपादितः दण्डादः पृथगन्चयायभावात् । न हे टण्डरूपादी सति दन्यतिरकण घटात्यादयनिरकः सम्भवति । अती दण्टाद्यन्वय -व्यतिक्रिया: दण्डरूपायन्नयन्यतिरकन्यापकलेन निरुक्त पृथक्त्वविरहेण पृधगन्श्यव्यतिरेकानियांगित्यं दण्टादी न सम्भवनि । नती दण्डरूपादी पृथगन्धयन्यतिरेकानियोगिनिन्नवलक्षणल्य विशेषगांशस्य सत्त्वपि पृथगन्वयत्र्यनिरकनिरूपितप्रतियोगवविशिष्टदण्डायन्यत्र्यतिरकप्रतियोगित्वस्य विशेश्यांशस्याऽसत्त्वेन नाद्यान्यबासिद्धलक्षणसम्भवः । यद्यपि दण्डर पादौ दण्डायनगव्यतिरकप्रतियोगित्तमरत्येव किन्तु दण्डादी निरुक्तरीत्या प्रथगन्यपव्यतिरकप्रतियागिन् नाम्नानि दण्डरूपादौ पृथगन्चयन्यतिरकप्रतियोगिनियन्त्रितान्वयव्यतिरकप्रतियोगितम्या:सन्चम् । तता निकाधान्यथासिद्धलक्षणस्य दण्डरुपादावव्याप्तिर्दुबारति ननुवादितात्पर्यनिति ध्येयम ।
न च तज्ज्ञानं विना ज्ञायमानत्वस्य तदर्थत्वात = पृधयपदार्थत्यात नायं दण्डरूपादावन्न्यथासिद्धवाव्याप्तिलक्षण: दोपः, नजानबिरहप्रयुक्त ज्ञानविषयत्वामाधानाश्रयत्वं प्रधवपदप्रतिपाद्यमिति भावः । दण्डान्वयत्कियां: एथक्त्वसङ्गतिः कथं ? उच्यत.
है, क्योंकि वैसा न कहने पर तो चक्षुकपालमयोग होने पर भी चक्षु या कपाल के नाश की उत्पनि क्षण में चक्षु या कपार के न्यनिरक से कपालचाक्षुष का व्यतिरंक = अनुत्पाद होने से चच एवं कपालमयोग में भी पृधगम्बयव्यतिरेकप्रतियोगी चक्षुःकपाल से नियन्त्रित अन्वय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता रहती है। इस तरह चक्षुकपालसंयोग में प्रसक्त अन्यधासिद्धत्व का परिहार तभी हो सकता है यदि 'पृधगन्वयन्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वस्वरूप विंधण का प्रथम अन्यपासिद्ध के लक्षण में निवेश किया जाप, क्योंकि चक्षु एवं कपाल के होने पर भी यक्षुकपारसंयोग के व्यतिरेक में वपालबाभुपात्मक कार्य का व्यतिरेक = अनुत्पाद प्रसिद्ध होने से पृधगन्वयन्यनिग्वातियोगिभिन्नत्व चचकपालसंयोग में नहीं रहना है 1 चक्षुकपालसंयोग भी पृथगन्वयन्यनिरक का प्रतियोगी ही है। इस तरह कपालचाक्षुष प्रत्यक्षात्मक कार्य के प्रति चक्षु या कपाल भाटि से चक्षुकपालसंयांग में अन्यथासिद्धत्व की आपत्ति के निवारणार्थ आद्य अन्यथासिद्ध के लक्षण में पृथगन्वयव्यतिरेकप्रतियोगिभिन्नत्य का विशेषणविधया निवेश करना आवश्यक है . यह फलित होना है" - भी ठीक नहीं है. क्योंकि चक्षुकपालमयोग में अन्यथासिद्धत्व के परिहागधं भले ही पृथगन्वयन्यतिरकप्रतियोगिभेद का प्रथम अन्यथामिन के शरीर में निवेश किया जाय फिर भी घट के प्रति दण्डार आदि में अन्यभासिद्ध के लक्षण की अन्याप्ति का परिहार हो सकता नहीं है। इसका कारण यह है कि जम दण्डादि का पृथक अन्वय-व्यतिरेक दण्इत्व को छोड़ कर हो सकता नहीं है ठीक वैसे ही दण्डरूपादि को छोड़ कर भी हो सकता नहीं है। पृधगन्नयव्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्य इण्डरूनादि में होने पर भी दण्डादि के अन्वय-व्यतिरक में दण्डपान्वषयतिरेकाऽव्यापकत्व नहीं होने मे दण्डादि में पृथगन्वयन्यनिरकप्रतियोगित्व ही नहीं होने की वजह पृथगन्वयन्यतिरऋतियागि गस दण्डादि से नियन्विन अन्वय-व्यनिक की प्रतियोगिता दण्डरूपादि में रहनी नहीं है । विशेष्याभाचप्रयुक्त निशियाभार टण्डरूपाटि में मुलभ हान की वजह दण्डरूपादि घट के प्रति अन्यथा सद्ध बन मफत नहीं हैं।
न च त. । यदि उक्त अच्याप्ति के निवारणा यह कहा जाय कि - "पृथकाट का अर्थ है, उसके ज्ञान के बिना जायमानत्व। मतलब कि अन्य किसीक ज्ञान के बिना जिसके अन्याय-व्यतिरेक का ज्ञान हो सक वे अन्वय-व्यतिरेक पृथगनयन्यतिरकशब्द में ग्राहा है। अब तो दण्ड के अन्चय-न्यतिरक में पृथगन्वयन्यतिरकन्व के अभाव की अपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि दण्टरूप के ज्ञान के दिन ही दण्ड के अन्वय एवं व्यतिरेक का ज्ञान हो सकता है। यह कोई गजाता नहीं है कि दण्डरूप का ज्ञान न होने पर दण्ड के अन्चय-व्यतिरेक का ज्ञान न हो। इस तरह दण्डान्वयव्यतिरंक पृधगन्वयन्यनिकस्वम्प सिद्ध हो जाने की बजह पृधगन्वय-न्यतिरंकप्रतियोगिभिन्न टपटरूप में पृथगन्वयव्यतिरेकातियांगी = दप से नियन्त्रित अन्वय-व्यनिक की प्रतियोगिता भी रहती है । अतः देण्टुरूप में अन्यथासिद्ध के लक्षण की अव्याप्ति को अवकावा नहीं