Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 307
________________ .:: मध्यमण्याद्वादरहस्ये गण्टः ३ . का.११ * सम्बन्धमा कारण भदः * का चैवं स्वजन्यव्यापारसम्बन्धेन दण्डस्य हेतुत्वात् दण्डसंयोगस्य तेन तथात्वं न. स्यादिति वाच्यम, स्वत्वघटितजन्यताभेदेन सम्बन्धभेदात् । वस्तुत: पृथगित्यादेः तदन्वयादिभिधान्वयादिमत्वार्थकत्वेऽपि न क्षतिः । निरुक्तरूपेण -* लयलवा *न च एवं - नदन्वयघटकाटिताचपन्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वस्य धगन्चयन्यनिरकप्रतियोगिभेदत्व स्वीक्रियमाणं सति व प्रनि स्वजन्यच्यापारसम्बन्धेन = स्वनिप्रजनकतानिरूपितजन्यत्व वेशिष्टभ्रमणात्मकन्यापारबच्चसंसर्गेण दण्डस्य = दण्दुत्वा - पछिन्नम्य हेतुत्यान् दण्डसंयोगस्य नेन = स्वजन्यन्यागारसम्बन्धन तथात्वं = घटतत्वं न स्यान, नम्प दण्डान्वयघटकापटितान्वयत्र्यनिरकनिरूपिनातियोगिताश्रयत्वन दण्डान्वयघटकाम् घटितान्दा.यतिकप्रतियोगिभिन्नत्वं सनि उथगन्नयन्पनिरकप्रतियागिदाण्डा. वच्छिन्नान्वयव्यतिरेकप्रतियोगित्वादिति विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टकारणत्वाभावस्य तत्र सत्यादिति वाच्यम्; स्वत्वघटितजन्यताभेदन | सम्बन्धभेदात = दार-तत्संयोगकारणतावच्छेदकसम्बन्धभेदान् । अयं भाषः दण्डः संयोगेन चक्रममणं प्रति कारणं दण्डसंयोगस्तु समदायेन । नतः चक्रममणस्वरूपे व्यापार या दण्डनिष्ठ- मयोगसम्बन्धावन्नित्रजनकनानिरूपिता जन्यदा ततो भिन्नत्र दाद. संयोगनिष्ठ - समवायसम्बन्धावनिकन जनकतानिरूपिता जन्यता। अत पय यट प्रति दण्डस्य स्वनिपसंयोगसम्बन्धावच्छिन्नजनकता नापिन जन्यत्व निशिटल्यागारबत्त्यसम्बन्धन कारणत्वं दण्डमयागस्य च स्वनिष्ठसमवायसम्बन्धावन्छिन्नजनकता निरूपितजन्ययविशिष्ट. || व्यापारवच्चसम्बन्धन कारणत्वम् । जनश्च दण्टसंयोगान्वयस्य न दादान्वयघटकदिनत्वन । अत एव दण्डसंयोगे दण्डान्वयबटकार बोटवान्कमब्यतिरेकप्रतियोगित्तमव्याहतम । नती न दण्डसंयोगे पृथगन्वयन्यतिरकप्रतियोगिभिन्नत्वम । इत्थञ्च विशेषणाभावप्रयुक्त. विशिष्टान्यधासिद्धलक्षणविरहेण न बरं प्रति दण्डसंयोगण्याद्यान्यथामिद्धत्वप्रसड़गः । एतेन दण्डसंयोगस्य स्वजन्मव्यापारसम्बन्धन पटहेतुर्व न स्पादिति प्रन्युक्तमः शब्दाभेदे प्यधभेदन अनन्यवासिद्धत्वस्यीकरीत्याउगायात । नन्वत्र प्रथमप्रधपदम्य नदन्चयघटकाटितत्वार्थकत्वं द्वितीयायवादस्य च तदन्वयन्यतिरका:व्यापकत्वार्थकत्वनिन्यननगमेन | गौरवमित्याशङ्कायामाह - वस्तुत इति । पृथगित्यादः संपूर्णस्य प्रथमान्यथासिद्धलक्षणस्य तदन्वयादिभिमान्चयादिमत्त्वार्थकत्वेऽपि = तदन्वयन्यतिरेकभिन्नान्वयन्यतिरकत्वन्नार्थकतानिन क्षतिः = न दण्डरूपादावाद्यान्यथासिद्धलक्षणाच्याप्तिः । निरुक्तरूपेण 6 सकती है . यह फलित होता है। न , । यहाँ इस हांका का कि -> 'पृधपद को स्वान्वयघटकापदितत्वार्थक मानने पर लो दण्डसंयोग घट का सारण न बन सकेगा, क्योंकि दण्ड घट के प्रति स्वजन्यन्यापारसम्बन्ध से कारण है, पर्व दण्डसंयोग भी स्वजन्यच्यापारसम्बन्ध में दी पट का कारण है मगा स्वजन्पच्यापारसम्बन्ध से दपसंयोग कारण नहीं हो सकेगा, क्योंकि तब दपरान्त्रयघटक से गटन सम्बन्ध से ही दण्डसग में अन्य व्यतिरेक की प्रतियोगिता प्राप्त होने से दण्डसंयोग में दण्डान्वयघटकाटित अन्वयव्यतिरेक के प्रतियोगी का भेद एवं पृथगन्वयन्यनिक प्रतियोगि नण्ड में नियन्त्रित अन्चय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता रह जाने म प्रथम अन्यथासिद्ध का लक्षण रह जायगा । नम तो दण्ड सं ठण्डरूप की भाँति रण्डसंयोग को भी घट के प्रति अन्यभासिद्ध मानना पडेगा - समाधान यह है कि स्वत्वटित जन्यता के मंद से सम्बन्ध बदल जाता है । आशय यह है कि स्वबिलक्षणसंशंगसम्बन्ध से दण्ड चक्र में भ्रमणस्वरूप व्यापार को उत्पन्न करता है जब कि दण्डसंशंगविशेष समवायसम्बन्ध से चक्र में रह कर प्रमिस्वरूप व्यापार को उत्पन्न करता है। अत: अमणस्वरूप व्यापार में रहनवाली दण्डजन्यता एवं दण्डसंयोगजन्यता भिन्न बनने की वजह स्वजन्यत्वरिशियन्यापारात्मक सम्बन्ध भी बदल जाता है। मतलर कि एक ही सम्बन्ध से दण्ड एवं हाइसंयोग चक्रममण के जनक नहीं है । अतः जन्यता के भंट से उगम पदित वह सम्बन्ध भिन्न हो जाने से इण्डान्चय के घटक से दण्डसंयोगान्वय घटित बनत नदी है। इसलिए दण्डान्वयघटकटितान्चयव्यतिरेक की प्रतियोगिता दण्डसंयोग में न्ह मकती नहीं है । तब तो दण्डान्वयघटकाऽघटित अन्नय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता दण्डसंयोग में रह जाने से पृथगन्नयज्यनिरेकप्रतियोगिभिन्नता दण्डसंयोग में न रहेगी। इस तरह विशेषणश के विरह से प्रयुक्त विशिशाभाव दण्डसंयोग में रह जाने से आद्य अन्यथासिद्ध के लक्षण की दण्डसंयोग में प्रवृनि न हो सकेगी। अतएव अनन्ययासिद्धत्व एवं घटनियनपूर्ववृतित्व दण्डमयोग में अपाधित रहने से दण्डसंयोग में थट के प्रति कारणता निगराध है . यह सिद्ध होता है। बस्नुतः । मगर वस्तुस्थिति को लक्ष्य में ली जाय तब पृथगित्यादि जो प्रथम अन्यथासिद्ध का लक्षण बनाया गया है उसका अर्थ यही फलित होता है कि इसके कारण के अन्वय-व्यतिरेक से भित्र अन्चय-व्यतिरेक की प्रतियोगिता का आधय आप अन्यथामिद्ध है । दण्डरूप आदि का अन्वर-व्यतिक स्वाश्रयन्यन्यापार सम्बन्ध से है। जब कि दण्ड आदि का अन्वयव्यतिरेक स्वजन्यव्यापारसम्बन्ध में है। मतलब कि दण्डादि एवं दण्टरूप आदि के अन्वय-व्यतिरेक भिन्न है । अतः दण्डात्मक

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