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* ब्रह्मणां निर्धर्मकत्वखण्डनम्
८२.७
ज्ञानसुखादिभेदेनैकत्राने कात्मतापतेव
अथ नित्यज्ञानसुखादीनामभेद एव । अत एव 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' ( तै.आ.) इति अत्राऽभेदोक्तिः सङ्गता, नित्यज्ञानसुखादीनां तु चिताश्रयत्वमेवेति नायं दोष इति चेत् ! तन, कथचिद्भेदाऽभावे 'विज्ञानमानन्दमित्यस्य 'घटो घट' इतिवनिराकाइक्षत्वापतेः । आनन्दत्वविज्ञानत्वयोर्भेदे च निर्धर्मकत्वस्य दूरप्रोषितत्वात् ।
बैंजयला
पदानां सङ्गच्छते तथाऽनविते ऽर्थे तात्पर्यानुपपत्तेः तात्पयनिथाधिगमं चान्योन्याश्रयः प्रत्यक्षादखण्डानुभवस्त्वनुभव कलहग्रस्त इति न किञ्चिदेतत् (अने. व्य. पू. २६) इति ।
नन्वस्तु ब्रह्मण्येव विज्ञानलुखाद्यभिसंबन्धः किन्तु स न भेदनियतः किन्त्वमेदनियत इति न तत्र स्वभिन्नधर्मशून्यत्वलक्षणं निर्धर्मकत्वं व्याहृतमित्याशङ्कायामाह ज्ञानसुखादिभेदेन एकत्र ब्रह्मणि अनेकात्मतापतेः ज्ञानसुखादेः परस्परं भिन्नत्वेन ज्ञानादिस्वरूपस्य ब्रह्मणां नानात्वमनिवार्यमेव, अन्यथा ज्ञान- सुखादीनामभेदापत्तेः ।
वेदान्तीष्टापल्या शङ्कते - अथ नित्यज्ञान-सुखादीनां अभेद इट एवं
तत्र प्रमाणं ? इन्याह अत एव = नित्य-विज्ञानसुखादीनां परस्परमभिन्नत्वादेव, 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इत्यन्त्राऽभेदोक्तिः सङ्गता, समानविभक्तिकविशेषणविशेष्ययीः तादात्म्यनियतत्वात् । एवं ब्रह्माणि ज्ञानत्वादिधर्मयांगान्निर्धर्मकत्वं व्याहन्येतेत्याशङ्कायामाह नित्यसुखादीनां तु चित्ताश्रयत्वमेवेति न अयं निर्धर्मब्रह्मसिद्धान्नव्याकोपलक्षणो दोष इति चेत् न विज्ञान-सुखयोः कथचिद्भेदाभाव सर्वभादे 'विज्ञानमानन्द' इत्यस्य वाक्यांशस्य 'घटी घट' इतिवन्निराकाङ्क्षत्वापत्तेः शाब्दबोधाजनकत्वापत्तेः । उत्तरपदार्थस्य पूर्वपदेनैवोक्नत्वेन तत्र पौनश्क्त्वमित्यपि वदन्ति ।
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ननु नित्यविज्ञानानन्दयोरभेदेऽपि ज्ञानत्वानन्दत्वया मैदाना भेदान्वयाऽसम्भव: 'नाली पद' इतिवत् अन्वयानुयोगिप्रतियोगिनार्विरूपपस्थितत्वादित्याशङ्कायामाह् स्याद्वादी आनन्दत्व-विज्ञानत्वयो: भेदं च स्वातिरिक्तधर्मशून्यवलक्षणस्य निर्धर्मकत्वस्य | दूरप्रोपितत्वात् = विलयापत्तेः आनन्द - विज्ञानादिस्वरूपे ब्रह्मणि स्वस्मात परस्परतश्च भिन्नयो: सुखत्व-ज्ञानत्वयो: स्वीकारापातात् । एवञ्च ब्रह्मणि नानात्वमपि दुर्निवारम् । एतेन तत्र मिध्यात्वाभावोऽधिकरणात्मकः सत्यत्वं दुःखाभावः सादृशाः सुखं, अज्ञाना
है । तब तो एक में अनेकात्मकता की आपत्ति आयेगी। एक ही व्यक्ति ज्ञानात्मक एवं सुखात्मक नहीं हो सकती है। अथ । यदि यहाँ यह शंका हो कि नित्य ज्ञान, नित्य सुख आदि वस्तुतः परस्पर अभि ही हैं। अतः एक ही आत्मा नित्यविज्ञानस्वरूप एवं नित्यसुखस्वरूप हो सकती है । इसीलिए तो 'नित्यं विज्ञानं आनन्दं ब्रह्म' इत्यादि श्रुति में ब्रह्मतत्त्व का नित्य विज्ञान और नित्य सुख के साथ अभेद का प्रतिपादन भी संगत हो सकता है । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि नित्य सुख, नित्य विज्ञान आदि का आश्रय तो चित्त यानी अंतःकरण ही है । इसलिए ब्रह्म = आत्मा में निर्धर्मकत्व की हानि भी नहीं होगी तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि विज्ञान और आनन्द में कथंचित् भी भेद न हो तब तो जैसे 'घटो घट: यह वाक्य निगकांन हो जाता है ठीक वैसे ही 'विज्ञानमानन्दं' यह वचन भी निराकांक्ष हो जायेगा, क्योंकि आनन्दपद से जिसका बोध करना है उसका बोध तो विज्ञानपद से ही हो गया है तब उन दोनों में परस्पर अन्वय भी कैसे हो सकेगा ? अधिक में पुनरूपित दोष की आपत्ति आयेगी। यदि यहीं ऐसा कहा जाय 'विज्ञान और आनन्द तो एक ही है, मगर उसमें रहनेवाले विज्ञानत्व और आनन्दल धर्म परस्पर भिन्न हैं । अतः विज्ञान और आनन्द की विरूप उपस्थिति 'विज्ञानमानन्द' इस वाक्य से होने की वजह विज्ञान और आनन्द में परस्पर अभेद अन्वय हो सकता है। इसलिए निराकांत्व की वाच्य में प्रसक्ति नहीं होगी तो तो ब्रह्म में निर्भक की ही हानि हो जायेंगी, क्योंकि 'ब्रह्म विज्ञानस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप है एवं उनमें रहनेवाला विज्ञानत्य धर्म और आनन्दत्व धर्म परस्पर भिन्न है' ऐसा स्वीकार करने पर तो सिद्ध हो जायेगा कि विज्ञानत्व और आनन्दख धर्म का विज्ञानादिस्वरूप ब्रह्म आश्रय है। अब निर्धर्मकत्व को अवकाश कहाँ ? वह तो परदेश में चायेगा। निर्धर्मत्व का देशनिकाल (= ब्रह्मनिकाल) हो जाने से विज्ञानत्व एवं आनन्दत्वरूप भिन्न धर्म का आश्रय होने की वजह अह में भी भेद नानात्व की सिद्धि हो जायेगी । तव तो मातसिद्धान्त भी धराशायी हो जायगा। मतलब कि 'आत्मा अनेक है यह सिद्ध होता है। उपर्युक्त विचार से आत्मा नास्विक चीज है - यह सिद्ध होता है ।
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