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१५६ मध्यमस्याद्वादरहस्य रवण्टः-३ का.११
अनेकान्तव्यवम्यासंवादः * योगादीनामपोद्गलिकाऽदृष्टवादं समूलमुन्मूलयितुं 'पोहलिकाऽदृष्टवानिति । यथा चास्य पौलिकत्वं तथोपपादितं प्रागेव ।
एवात्मनः चैतन्यादिधर्मयांगभणनाद वदान्तिनां निर्मकत्ववादोऽपि परास्त: । न हि मनसो ज्ञान-सुख-दुःखाद्याश्रयत्वमात्मनश्चाऽनिर्वचनीयज्ञाजाधंतरयोग इति युक्तम् । अहं जानामी'त्यादिप्रतीत्या तर साक्षाज्ज्ञानादिमत्त्वस्यैव युक्तत्वात,
-* मयता * ममुस्तमिति, स्थितम् ।
योगादीनां = योग-वैशेषिक-गित-वेदयादि-गणक- सांख्य-दीवादीनां अपीद्गलिकाऽदृष्टवाद आत्मगुण-वासना-मायाप्रधान-परिणाम - शक्त्यादिरूपाउदष्टमतं समलमन्मूलयितं पौद्रालिकाऽदष्टवानिति एवं श्रीवादिदेवसरिभिरुक्तम । यथा चार अदष्टस्य पौद्रलिकत्वं तथोपपादितं प्रागंब वीतरागस्तांत्राटनप्रकाशवनायकारिकाव्याख्याने (प्रथमखण्ड - पृ.१५६) इति नेह पुनः प्रतन्यते । अदृष्टस्यात्मगण-वासना-माया-प्रधान - परिणाम -शाक्त्यादिरूपताप्रतिक्षेपपूर्वक पीडलिकत्वं विस्तस्त: स्याद्वादरलाकरे व्यवस्थित बुभुत्सुभिः प्रोक्तसूत्रव्याख्यायां दृश्यम् ।
एवं च 'चैतन्यस्वरूप इत्यादिरूपण सूत्रेण च चैतन्यादिधर्मयोगभणनात् = आत्मनि चतन्य-कर्तत्व-भोक्तृत्वादिधर्मसम्बन्धप्रतिपादनात वेदान्तिनां ब्रह्माद्वैतवादिनां ब्रह्मगि निर्धर्मकत्ववादः धर्मत्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्नाभावप्रन्यादः अपि परास्तः ।
ननु तान्त:करगमध्यस्यतेऽहमिनि रम्ज्यामिन सर्पः कैवलरय नस्य साक्षिभास्यत्वात. तनत्कार्याकारपरिणतस्यैव साक्षिणा भानमित्यहमाकारेण परिणतग्य तस्याध्यासंध्यमहङ्कारध्यास इति गायतं । अयञ्च न सोपाधिक उपाधरभावान 'अहमज्ञ' इति वहड़कार -जानयारकचैतन्याध्यासात दग्धृत्वायमारकवह्निसम्बन्धादया दहता तिवत । नचान्तःकरणं स्मृतिप्रमाणवृत्तिसड़कल्पविकल्पाईवृत्त्याकारण परिणतं चिनवृद्धिमना-हकारच्यचहियते । इदमेवात्मनादात्म्यनाध्यस्थमानमात्मनि सुख-दु:स्वादिस्वधर्माध्यास उपाधिः, स्फटिक जपाकसमामच लीहित्यानभास । नती वस्तुगत्या स्वभिन्न धर्मशून्यन्वलक्षणं निधर्मकल्वं ब्रह्मणि निरपायमेवेत्याशङ्गकायां प्रकरणकार आह - न हि मनसो ज्ञान-सुख-दुःखायाश्रयत्वं आत्मनश्वाऽनिर्वचनीयज्ञानायंतरयोग इति कल्पयितुं युस्तम् 'अहं जानामी' त्यादिप्रतीत्या तत्र = आत्मनि साक्षात् = अनौपाधिकसम्बन्धेनैव ज्ञानादिमत्त्वस्य युक्तत्वान्, अन्यथा 'मन्मनी जानाति न त्वई' इति प्रतीतिप्रसङ्गात् । किञ्च ताचिक ब्रह्मण्यनिर्वचनीयज्ञानादिकल्पनमपि युक्तिबाहाम् । नक्तं प्रकरणकृतव अनेकान्त व्यवस्थाप्रकरणे “शुद्धब्रह्मगि शक्यसम्बन्धरूपा बोध्यसम्बन्धरूपा या लक्षणापि न सगच्छते, तात्विकऽर्थे-निर्वचनीयसंसर्गस्य सक्त्यसहत्वात् । न च देवदनव्यक्ताविशसण्टब्रह्मगि तात्पर्यसम्बन्धी अनेक आत्मा का स्वीकार अवश्य करना होगा । इस तरह आन्नाऽद्वनवादी वेदान्नी के मत का निरसन पूर्ण हुआ ।
योग - नैयायिक आदि विद्वान अदृप को अपौद्रालिक मानते हैं । अतः उनके मन के प्रतिश्नपार्थ प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार के सप्तम परिच्छेद के .६ में सूत्र में आत्मा के सप्तमविशेषणविधया 'पीद्गलिकाऽदएचान ऐसा श्रीवादिदेवसूरीश्वरजी ने कधन किया है । अदृष्ट, जिसे जैन कर्म कहते हैं, पांगलिक है, न कि आत्मगुणस्वरूप - इस विषय का प्रतिपादन तो पहले ही तीसरी कारिका के निरूपण में हो चुका है (देखिये प्रथम खण्ड पू.१५४१ । इसलिए पुनः उसी बात को दोहराकर समझान की यहाँ आवश्यकता नहीं है।
आमा निर्धति नहीं है वं च. । इस तरह सूत्र में 'आत्मा चैतन्यस्वरूर है' अर्थात् चैतन्य धर्म का आत्मा में सम्बन्ध है . एना कहने से वेदान्ती. की यह मान्यना कि . 'आत्मा निधमंक = धर्मशून्य है' भी परास्त हो जाती है, क्योंकि चैनन्य नामक धर्म का आत्मा में अस्तित्व है । यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि => 'आत्मा नो निर्धर्मक है । ज्ञान, सुख, दुःख आदि तो मन का धर्म है । इसलिए आत्मा को अनिर्चनीय झानादि के साथ योग नहीं होता है क्योंकि लोगों को 'मम ममो जानाति' ऐसी प्रतीनि नहीं होती है किन्तु 'अहं जानामि' ऐसी प्रतीति होती है । इसके अनुसार नो आत्मा में ही साक्षात् ज्ञान, मुख आदि का सम्बन्ध सिद्ध होता है । अत: मन में साक्षात = समन्याय सम्बन्ध से ज्ञान आरि का स्वीकार कर के आत्मा में परम्परा सम्बन्ध से ज्ञानादि की कल्पना करना संगत नहीं है । दुसरी बात यह है कि ज्ञान, सुख, दुःख आदि परस्पर भिन्न धर्म हैं । एक ही आत्मा में ज्ञान, सुख आदि के भेद से भिन्नता का स्वीकार आवश्यक