Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 285
________________ मयमाहादरहस्य वनः का.१ ब्रह्मसूत्रायसवाद: * त वदन्ति ->एक एवात्मा प्रतिशरीरं रजनीकरबिम्बमिव प्रतिसर: सरस्वतीसरवदन्तरलुबिम्बतीति ततमतनिर्दलनाय 'प्रतिक्षेत्रं भिक्ष' इति । - III - बहा च करितुरंगरश्रगदातिषु सेनेत्येकवचनप्रयागम्यानुपपत्तेः । अथैकत्र द्वित्वादितत्तद्धाप्रकारकवुद्धिविषयत्वादिकं गंणय द्वित्वादिन्यवहारनिमित्तं न तनतनरिन्दनव पर्याप्पमिति नको द्वामित्याद: प्रसङ्ग इति चत् ? न, उतविपयतामाद्विगंदायकत्र पर्याप्तन्यात, तनधर्मग्रकारतानिरू पितत्वविशिष्ट विषयताया अगि वत्सम्बनधादिभेदेन प्रकारतादाद कराया जमावान. गवेग च यस्य प्रत्येकानतिरिक्तवनकधर्माचन्दन द्विवादिश्यां प्टिसकात, धर्मगतद्विसम्पत्र तयाल्पवछंदकत्वस्वीकार न नत्राग द्वित्वस्य वास्तवस्या भागाद्वगत्वरसत्वादिप्रकारकदिविषयत्वमार्यच गाणस्य वाकार तत्पयर्यान्यवन्छेदकादिगपणनावस्यति वास्तद्वित्वामात्र ज्ञानाकारतच नत्र पर्यवस्व दिति द्रव्यल्पावनिकत्वावदन पांयत्नवनिम्नविवाद: पर्यागत्वावसिद्वित्वादवच्छंदन च इन्कामानिनिकाला गयामि यकिनका नाविला व्य ति ध्येयम् । उक्त पत्र 'दन्चट्टया र अहं. नागदंगणद्या दुये अहं' इत्यादि परमपम । (आ.ख्या .. ४..) ।।८।। तर्कानुमानशब्दरद्वैतविवक्षया कचित् । निह्नवमतभहन चात्ममानं निरूपितम् ।।२।। पे तु वेदान्तिनी ब्रह्माद्वैतवादिनी नदन्ति एक नाना, नत नाना, 'तहों कास्मिन मच्छनि पर: किं न गमति इत्यायादाड़कायामाई प्रनिशरीरं प्रत्येक गैर रजनीकर्गचिम्पमित्र प्रतिसर: सरावासरस्वदन्तः अनुविम्बतीनि । यक पाव चन्द्रप्रतिसरोजलं प्रतिबिंबनि सरांजलगनं निशाकरप्रतिबिम्ब जलवृद्धा वर्धत, जलदार द्वसनि. नालयलने चलति. जलभेद न भिद्यत इत्येवं जन्मधर्मानुयायि भवति न तु परमार्थतः इन्द्रासः नयावास्ति । परमार्थता-विकृतमंचकम्पपि मद् ब्रह्म देहान्तः नानात्वेन प्रतिबिचति देहायुपाध्यन्तर्भावाद्भजन इयोपाधिधर्मान वृद्धिसगगनागगनचलनादीन् । तदुक्तं ब्रह्मसूत्रशाभाष्य 'दर्शयनि च श्रुतिः परस्यैव ब्रह्मणो देहादिष्पाधिप्यन्तरनुप्रदशम 'पुरश्च द्विपनः गुरश्चक्रे चतुष्पदः । पुरः २५ पनी भूत्वा पुरः पुरुष आविदान' (बृ.उप.२/५/१८) इति । अनेन जीवनात्मनानाविदय' (छा.-3-) इनि च । तस्माद्युलमतन 'अत एव वोगमा सूर्यकादिवत' (न.स./२/१८) इति । त्र.स.३/२/३१ शां.भा, प्र..१८) । अन पति अस्योपा एक प्रदेश में बलात्कार से सांत्मना जीवत्व की आपत्ति या सकलप्रदेशसमदाय में अजीवत्व की आपत्ति को अवकाश नहीं है । अवययों से अवयवी यानी सकल प्रदेशों में जीव कचिन भिन्न होने में प्रत्येक जार में मुख्य एकत्व की अनुपपत्ति भी नहीं हो सकती है। म्यादाद चक्रवती के शरण में जानवाल मदा खौफ रहते हैं । समझे ! ॥४॥ लामा1 (pt जि [pititief DJ ये तु. । यहाँ वेदान्तियों का यह कथन है कि - 'आत्मा केवल एक है। जैसे आकाश में चाँद एक होता है फिर भी जैसे सारे जहाँ के प्रत्यक सरोवर में उसका भित्र भिन्न प्रतिबिम्ब पड़ता है एवं कोई प्रतिविम्ब पानी के चलने पर चलता है, पानी के स्थिर होने पर स्थिर रहता है ठीक वैसे ही जगस्वरूप आकाश में सन ब्रह्मस्वरूप कंवल एक चाँट होता है फिर भी अनेक शरीरस्वरूप सरोवर में उस ब्रह्मतन्न का प्रतिबिम्ब पड़ता है एवं शरीर के चलने पर वह चलितम्वरूप ज्ञात होता है एवं स्थिर रहने पर स्थिरस्वरूप । शरीर की वृद्धि में यह बढ़ना हो ऐसा लगता एवं शरीर के क्षीण होने पर यह कृशतया ज्ञायमान होता है। जैसे जलचन्द्र चलने पर भी गगनगत वास्तविय, चन्द्र = बिम्ब ना आकाश में जहाँ होता है वहाँ ही रहता है । जलबन्द्र तरगित होने पर भाकाशचन्द्र तरंगित नहीं होता है। ठीक शरीर के चरन, बठन, घूमने पर भी विशुद्ध ब्रह्मतत्त्व मनो चलता है, न तो बैठता है और न तो घूमता है। बारीर की वृद्धि गर्व हाम होने पर उसकी वृद्धि या हानि नहीं होती है। यहाँ ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्ती के मन के जो नर्क है उनका बयान नो हम अभी आत्मविभुत्वनिराकरण के अवसर १०.........३ भोक में कर चुके हैं।' मगर वेदान्ती के उपर्यत मत के निराकरणार्थ श्रीरादिदेवग्नेि महागज ने प्रमाणनयतत्वालाकालंकार के सूत्र में आत्मा के विशेषणविधया 'प्रतिक्षेत्र भित्र ऐसा ग्रहण किया है। जिसका अर्थ है भान्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न होनी है. न कि एक । पूर्वपक्षी बान्नी के गामने सिद्धान्ती'का उत्तरपक्ष यह है कि . यदि चैत्र, मंत्र आदि आत्मा को एक ही मानी जाय तय ता मैत्र जर मी रहा हो तब भी मैत्रशरीर में अवदकतासम्बन्ध में ज्ञान की उत्पनि होने लगेगी, क्योंकि चैत्रीय वगिन्द्रियमनामयोगादिस्वरूप ज्ञानमामग्री भी ममवायत्तम्मन्य से आत्मा में सब रहती है। आत्मा नो एक ही है तब 'चत्रीयत्वगिन्द्रियमनःमयांग आदि ज्ञानमामग्री का आत्मा में अभाव है' मा नहीं कहा जा सकता । यदि यहाँ वदान्नी की ओर -

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